‘लव जिहाद’ क़ानून का सफ़र: सबूतों के बगैर एक झूठ को सच बनाने की अनवरत कोशिश

बीते कुछ समय में देश के कई राज्यों में कथित तौर पर मुस्लिम पुरुषों के हिंदू महिलाओं से शादी करने की बढ़ती घटनाओं के आधार पर 'लव जिहाद' से जुड़े क़ानून को जायज़ ठहराया गया है. लेकिन क्या इन दावों का समर्थन करने के लिए कोई वास्तविक सबूत मौजूद है?

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

बीते कुछ समय में देश के कई राज्यों में कथित तौर पर मुस्लिम पुरुषों के हिंदू महिलाओं से शादी करने की बढ़ती घटनाओं के आधार पर ‘लव जिहाद’ से जुड़े क़ानून को जायज़ ठहराया गया है. लेकिन क्या इन दावों का समर्थन करने के लिए कोई वास्तविक सबूत मौजूद है?

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

लव जिहादके झूठ का चाहे कितनी बार वध करके उसे दफना दिया जाए, लेकिन यह बार-बार जी उठता है.  

रक्तबीज रूपी यह राक्षस बार-बार हिंदुत्ववादी शक्तियों, कार्यपालिका और न्यायपालिका के गठजोड़ से फिर से उठ खड़ा होता है. 2023 की शुरुआत तक यह एक बार फिर से लौटने की मुनादी कर चुका है. 

इस बार इसके पीछे कई आयामी कोशिशों का हाथ है, जिसकी शुरुआत मार्च 2022 में हरियाणा में नए धर्मांतरण कानून से हुई.  इसके बाद 30 सितंबर को कर्नाटक में प्रोटेक्शन ऑफ फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट (धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा कानून), 2022 लाया गया. साल के अंत में उत्तराखंड के दमनकारी उत्तराखंड फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट (धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा कानून), 2018 को और ज्यादा सख्त बनाने पर उत्तराखंड के राज्यपाल ने मुहर लगा दी. महाराष्ट्र कैबिनेट ने अंतरधार्मिक शादियों और संबंधों की जासूसी करने वाली अधिसूचना जारी की और अंत में सुप्रीम कोर्ट भाजपा के एक पेशेवर याचिकाकर्ता द्वारा चौथी बार दायर एक याचिका पर सुनवाई करने के लिए पूरी तरह से उत्सुक नजर आया.  

वर्तमान में लव जिहादकानूनों वाले राज्यों की संख्या 11 है, लेकिन इनकी गिनती रख पाना मुश्किल होता जा रहा है. 

हिमाचल प्रदेश ने 2019 में और गुजरात और मध्य प्रदेश ने 2021 में अपने पुराने फ्रीडम ऑफ रिलीजन (धार्मिक स्वतंत्रता) कानूनों की जगह नए सख्त कानून लागू कर दिए हैं, जिनका मकसद खासतौर पर हिंदू महिलाओं को अपने धर्म से बाहर शादी करने से रोकना है. 

ओडिशा (1967), छत्तीसगढ़ (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978) और झारखंड (2017) में धर्मांतरण पर नियंत्रण संबंधी कानून हैं, लेकिन ये कानून शादी के निजी परिसर में दाखिल नहीं होते हैं.  इस सूची में नए-नए शामिल हुए उत्तराखंड (2018), उत्तर प्रदेश (2020) और कर्नाटक और हरियाणा (2022) ने खुले तौर पर ऐसे कानून बनाए हैं, जिनका मकसद घोषित तौर पर उनके शब्दों में लव जिहाद की बढ़ रही प्रवृत्तिसे लड़ना है. 

और साथ ही भाजपा शासित महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्य भी हैं, जो अपने धर्म से बाहर शादी करने के इच्छुक असहाय युवाओं का पीछा करने और उनकी जासूसी करने और उनके पीछे पुलिस बल छोड़ने संबंधी अधिसूचना द्वारा जनभावना की थाह लेना चाहते हैं और इस अतिक्रमण का प्रसार संबंधोंतक करना चाहते हैं. 

कानूनों की इस झड़ी को मुस्लिम पुरुषों द्वारा हिंदू स्त्रियों से शादी करने के तथाकथित तौर पर बढ़ रहे, बल्कि धड़ल्ले से हो रहे मामलों के आधार पर न्यायोचित ठहराने की कोशिश की जा रही है. 

उत्तराखंड के विधेयक के साथ दिए गए उद्देश्य एवं कारणों के कथन (स्टेटमेंट ऑफ ऑब्जेक्ट एंड रीजन्स) ने विधानसभा सदस्यों को सूचना दी कि धर्मांतरण, सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों, के अनेक मामले सामने आए हैं.’ 

इसमें यह भी कहा गया कि

अपने धर्म की शक्ति बढ़ाने के एजेंडा के तहत दूसरे धर्मों के लोगों का उनके धर्म में धर्मांतरण कराने के लिए लोग अपने धर्म के बारे में गलत जानकारी देकर दूसरे धर्म की लड़कियों से शादी करते हैं.’ 

इसमें आगे कहा गया: 

कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें लोगों ने उस धर्म की लड़की से शादी करने के लिए ही उसके धर्म में धर्मांतरण कराया और फिर शादी के बाद उन्होंने लड़की का धर्मांतरण अपने धर्म में करवा दिया.’ 

इन मामलोंके आधार पर उत्तराखंड की विधानसभा ने एक ऐसा कानून बनाया जो न सिर्फ प्रेम को अपराध बनाने का काम करता है और अभियुक्त पर ही साक्ष्य की जिम्मेदारी डालता है, बल्कि शादी से पहले या बाद में धर्मांतरण होने की स्थिति में अंतरधार्मिक शादियों को गैरकानूनी घोषित करने तक की इजाजत देता है. दूसरे राज्यों में इससे मिलते-जुलते विधेयकों को पेश करते हुए उनके मुख्यमंत्रियों और दूसरों द्वारा भी कुछ इसी तरह की बातें की गईं. 

हाल के सभी धर्मांतरण विरोधी कानूनों की पृष्ठभूमि में डराने वाले और अक्सर भड़काऊ आरोप रहे हैं, लेकिन किसी भी मामले में वास्तविक तथ्य या आंकड़े पेश नहीं किए गए हैं. इसलिए यह देखना जरूरी है कि क्या इन दावों के समर्थन में कोई वास्तविक सबूत है या रहा है. 

शुरुआती मामले

लव जिहाद’ शब्दावली का ईजाद सबसे पहले 2009 में केरल के कैथोलिक बिशप काउंसिल में किया गया था, जब एक बिशप (पादरी) ने बिना सबूत के बड़ी संख्या में कैथोलिक लड़कियों को मुस्लिम लड़कों द्वारा शादी के जाल में फंसाए जाने का दावा किया. लेकिन यह शब्द केरल और कर्नाटक उच्च न्यायालय में दो अलग-अलग मामलों के कारण प्रचलन में आया. इन दोनों ही मामलों का आधार लड़कियों के पिताओं द्वारा पुलिस में दायर शिकायत थी, जिनमें यह दावा किया गया था कि उनकी बेटियों का अपहरण किया गया था और उन्हें मुस्लिम युवाओं से शादी करने के लिए मजबूर किया गया था. 

एक ईसाई और एक हिंदू लड़की की धर्मांतरण कराके उनसे शादी करने के आरोपी दो मुस्लिम लड़कों- शहान शा और सिराजुद्दीन की अग्रिम जमानत की याचिका पर विचार करते हुए केरल उच्च न्यायालय के जस्टिस केटी शंकरण ने 29 सितंबर, 2009 को उनकी जमानत याचिका को खारिज करते हुए एक लंबा आदेश पारित किया, जिसमें यह कहा गया था कि यह सर्वविदित है कि लव जिहाद या रोमियो जिहाद नामक एक मुहिम चलाई जा रही है.’ 

उन्होंने केरल के डीजीपी को एक हलफनामा दायर करके आठ सवालों का जवाब देने के लिए कहा कि क्या ऐसे किसी अभियान का वजूद है, इसमें भारत और विदेश के कौन से संगठन शामिल हैं, इस अभियान की फंडिंग कैसे हो रही है, क्या यह अभियान पूरे भारत में चलाया जा रहा है, पिछले तीन सालों में कितने विद्यार्थियों को इस्लाम में धर्मांतरित कराया गया है और क्या लव जिहाद अभियानऔर नकली नोट, तस्करी, मादक पदार्थों के कारोबार और आतंकवादी गतिविधियों के तार आपस में कहीं जुड़े हैं

उन युवकों की अग्रिम जमानत देने से इनकार करने के साथ ही जज महोदय ने अपने आदेश की प्रतियां भारत के अतिरिक्त सॉलिसटर जनरल और साथ ही साथ केंद्रीय गृह मंत्रालय के सचिव को भी भेजने का निर्देश दिया जिसमें उनसे तत्काल जवाब तलब किया गया था. 

लगभग इसी समय, अक्टूबर, 21, 2009 को कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक पीठ ने सी. सेल्वाराज द्वारा दायर एक बंदी प्रत्यक्षीकरण वाले मामले, यह आरोप लगाया गया था कि उनकी बेटी शीला राज को एक मुस्लिम लड़के द्वारा अगवा करके चमराजनगर से केरल ले जाया गया, वहां उसे मदरसे में इस्लाम की शिक्षा दी गई, उसका धर्मांतरण करवाया गया और उसकी शादी करवा दी गई.

हालांकि शीला राज कोर्ट के सामने उपस्थित हुईं और कोर्ट को यह बताया कि उसने धर्मांतरण और शादी अपनी मर्जी से की थी, लेकिन डिवीजन बेंच ने लव जिहादकी बड़ी साजिशकी जांच करने के लिए कर्नाटक के डीजीपी के निरीक्षण में एक स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम का गठन कर दिया और एसआईटी की रिपोर्ट के कोर्ट में जमा होने तक शीला राज को अपने अभिभावकों के साथ रहने का निर्देश दिया. 

13 नवंबर, 2009 को एसआईटी की अंतरिम रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ कि लड़कियों की गुमशुदगी के सभी मामलों की जांच करने के लिए सीआईटी की जो 24 टीमें कर्नाटक के सभी जिले में भेजी गई थीं, उन्हें लव जिहादका कोई सबूत नहीं मिला और उन्हें शीला के धर्मांतरण और उनकी शादी में उन्हें लव जिहाद का कोई कोणनजर नहीं आया. जस्टिस के श्रीधर राव और रवि मलिमथ ने इस तरह से शीला और उसके पति का पुनर्मिलन करा दिया और यह निर्देश दिया कि वह जहां चाहे, वहां जाने के लिए स्वतंत्र है. 

31 दिसंबर, 2009 को कर्नाटक के डीजीपी डीवी गुरुप्रसाद द्वारा दायर एसआईटी रिपोर्ट में यह उजागर हुआ कि सीआईडी ने 2005 से 2009 के बीच लड़कियों की गुमशुदगी के 21,890 मामलों की जांच की थी और यह पाया था कि उनमें से सिर्फ 229 ने दूसरे धर्म के पुरुषों के साथ शादी की थी और इन 229 मामलों में सिर्फ 63 मामलों में धर्मांतरण हुआ था.

अंतरधार्मिक विवाहों के इन 229 मामलों में 149 हिंदू लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों से शादी की, 38 मुस्लिम और 20 ईसाई लड़कियों ने हिंदू लड़कों से शादी की, 10 हिंदू लड़कियों ने ईसाई लड़कों से शादी की, 11 ईसाई लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों से शादी की और एक मुस्लिम लड़की ने  एक ईसाई लड़के से शादी की. 

इससे ज्यादा महत्वपूर्ण तरीके से डीजीपी ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि लड़कियों का धर्मांतरण कराने के मकसद से उनको उकसाकर उनकी शादी मुस्लिम लड़कों से कराने के किसी संगठित प्रयास या अभियान का पता नहीं चला.  

6 नवंबर, 2013 को सरकारी वकीलों को सुनने के बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया और अपने आदेश में लिखा: 

सरकारी एडवोकेट के मुताबिक कर्नाटक राज्य में लव जिहाद का कोई मामला नहीं हुआ है.’ 

लेकिन दूसरी तरफ केरल में जस्टिस केटी शंकरण अपनी साजिश वाली बात से डिगने के लिए तैयार नहीं थे. 

केरल 

केरल के डीजीपी जैकब पननोज ने 18 अक्टूबर, 2009 को सभी जिला पुलिस महाधीक्षकों द्वारा दिए गए 14 रिपोर्टों और राज्य सीआईडी, पुलिस इंटेलिजेंस, स्पेशल सेल और क्राइम ब्रांच के प्रमुखों की चार रिपोर्टों के आधार पर एक विस्तृत हलफनामा दायर किया था. 

29 सितंबर, 2009 को जज द्वारा पूछे गए सभी आठ सवालों का जवाब न में देकर यह स्पष्ट कर दिया गया कि राज्य में ऐसी कोई संगठित गतिविधि या साजिश नहीं थी और तीन साल में केरल में एकमात्र मामला जिसमें ऐसे आरोप लगाए थे, वह शहान शा और सिराजुद्दीन वाला वर्तमान मामला ही है. 

डीजीपी ने कहा कि हालांकि किसी पुख्ता मामले का पता नहीं चला है, लेकिन कुछ सूत्रों के हवाले से सूचनाएंऔर आरोपमिले थे और इंटेलिजेंस सेल सभी स्कूलों और कॉलेजों पर निगाह रखेगा और सामने आने वाले मामलों से पूरी सख्ती से निपटेगा. 

इसके बावजूद जस्टिस केटी शंकरण ने 26 अक्टूबर, 2009 को शहान शा और सिराजुद्दीन को उनकी अग्रिम जमानत की याचिका वापस लेने की इजाजत देने से इनकार कर दिया. बल्कि इसकी जगह उन्होंने डीजीपी से सभी 18 रिपोर्टों को एक सीलबंद लिफाफे में दायर करने और यह समझाने के लिए कहा कि सूत्रों के हवाले से सूचनाएंऔर आरोपोंके होने के बावजूद वे मामले को बंद क्यों करना चाहते हैं?

उन्होंने केंद्र सरकार को एक हलफनामा देकर यह बताने का निर्देश दिया कि इस बाबत क्या कार्रवाई करने का उसका इरादा है

9 नवंबर, 2009 को केरल के डीजीपी ने सभी 18 रिपोर्ट और एक हलफनामा दायर किया, जिसमें यह स्पष्टीकरण दिया गया था कि सूत्रों की सूचनाएंऔर आरोपके समर्थन में कोई चीज या सबूत मौजूद नहीं है और इस तरह से इसे किसी आपराधिक गतिविधि या संगठन का सबूत नहीं माना जा सकता है. इसके बावजूद इंटेलिजेंस सेल को इन आरोपों को लेकर लगातार सतर्क रहने और इसकी जांच करने की जिम्मेदारी दी गई थी.

1 दिसंबर, 2009 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी एक हलफनामा दायर किया जिसमें इसने किसी लव जिहादअभियान या संगठन के अस्तित्व में न होने की घोषणा की. 

लेकिन फिर भी इन सभी हलफनामों को दरकिनार करते हुए जस्टिस शंकरण ने अपने 9 दिसंबर, 2009 के अपने लंबे फैसले में जिला पुलिस महाधीक्षकों की सभी 14 रिपोर्टों को खारिज कर दिया और इसकी जगह अज्ञात स्रोतों और अनाम आरोपों पर भरोसा करते हुए अपने भारी-भरकम फैसले के अनुच्छेद 43 में कहा:

यह स्पष्ट है कि एक खास धर्म की लड़कियों को दूसरे धर्म में धर्मांतरित करने की एक सुनियोजित कोशिश की जा रही है. यह भी स्पष्ट है कि यह ऐसा रिपोर्ट में उल्लिखित कुछ संगठनों की मदद से किया जा रहा है.’ 

सरकार को तथाकथित तौर पर धर्मांतरित किए जा रहे नागरिकों की रक्षा करने के दायित्व पर प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि उन मामलों में भी जिनमें बच्चे बालिग हो चुके हैं, उनके अभिभावकों के पास उनके भविष्य और करिअर को लेकर फैसले लेने का अधिकार है. उन्होंने याचिकाकर्ताओं की उनकी जमानत याचिकाओं को वापस लेने की अर्जी को खारिज कर दिया और उन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया. 

शहान शा और सिराजुद्दीन की खुशकिस्मती से इस न्यायिक विवेकहीनता को एक सप्ताह बाद ही सुधार दिया गया, जब जस्टिस एम. शशिधरण नांबियार को प्रथमदृष्टया याचिकाकर्ताओं द्वारा उनके खिलाफ लगाए गए आपराधिक आरोपों को खत्म करने की याचिका में दम नजर आया और उन्होंने मुकदमे को स्थगित करने का आदेश दिया. 

फिर भी अपने साथी जज की बातों को ध्यान में रखते हुए जस्टिस नांबियार ने तिरुवनंतपुरम और एर्नाकुलम के जिला जजों से विस्तृत रिपोर्ट मांगी. एक साल बाद यह दर्ज करते हुए कि दोनों ही जिला जजों की रिपोर्ट में लव जिहादया धर्मांतरण के षड्यंत्र के संबंध में कोई सबूत नहीं पाया गया और शहान शा और सिराजुद्दीन के खिलाफ कोई अभियोजनीय मामला नहीं बनता है, जस्टिस नांबियार ने 10 दिसंबर, 2010 को उनके खिलाफ एफआईआर को खारिज करते हुए दोनों लड़कों को इस मामले से बरी कर दिया. 

हिमाचल प्रदेश 

इधर, उत्तर भारत में समझदारी दिखाते हुए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच ने 30 अगस्त, 2012 को इवैंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया बनाम स्टेट वाले मामले में यह कहा कि हिमाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 2006 और 2007 के नियम के वे प्रावधान- जिनमें धर्मांतरण करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को पहले जिलाधिकारी को पूर्व सूचना देने और पुलिस जांच का सामना करने की शर्त लगाई गई है, पूरी तरह से निजता के अधिकार का हनन करने वाले हैं. 

जस्टिस राजीव शर्मा की सदस्यता वाली बेंच की तरफ से मत प्रकट करते हुए जस्टिस दीपक गुप्ता ने हिमाचल प्रदेश के कानून के अनुच्छेद 4 के साथ-साथ ही नियम 3 और नियम 5 के एक हिस्से को अनुच्छेद 14 का हनन करने वाला और असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया. महत्वपूर्ण तरीके से जस्टिस गुप्ता ने अनुच्छेद 41 में लिखा: 

राज्य द्वारा ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई है जो यह दिखा सके कि राज्य में हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता कानून को लागू करने से पहले या बाद में धर्मांतरण के कारण लोक-व्यवस्था पर कोई नकारात्मक असर पड़ा है. वास्तविकता में, आज की तारीख तक इस कानून के तहत सिर्फ एक मामला दर्ज किया गया है.

हादिया

लेकिन सच सांप्रदायिक कट्टरपंथियों की राह में कभी आड़े नहीं आता है और कुछ साल बाद ही केरल हाईकोर्ट के एक दूसरे जज ने मामले को वहां से आगे बढ़ाने का फैसला किया जहां जस्टिस केटी शंकरण उसे छोड़कर गए थे. 

इस बार मामला था होमियोपैथी की पोस्टग्रैजुएट छात्रा अखिला का, जिसने इस्लाम में धर्मांतरण करना चुना था और अपना नाम हादिया अपनाया था और अपने अभिभावकों को जानकारी दिए बगैर शफीन जहां से शादी कर ली थी. हादिया के पिता अशोकन ने कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका यह दावा करते हुए दायर की थी कि इस्लामिक स्टेट द्वारा उनकी बेटी का अपहरण करके उसे प्रशिक्षण दिया गया है और उसे कोर्ट के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए और उसे अपने परिवार से मिलाया जाना चाहिए.

एक डिवीजन बेंच ने 23 साल की हादिया का इंटरव्यू लिया और यह पाया कि वह निजी तौर पर तीन सालों से इस्लाम का पालन कर रही थी, जिसके बाद उसने औपचारिक तौर पर धर्मांतरण करवा लिया था और वह अपनी मर्जी से स्वतंत्रत तौर पर रह रही थी. इसके बाद बेंच ने 25 जनवरी, 2016 के अपने फैसले में अशोकन की याचिका को खारिज कर दिया. 

इस नकारात्मक फैसले से विचलित हुए बगैर अशोकन ने एक बार फिर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और उन्हें जस्टिस के. सुरेंद्र मोहन की अध्यक्षता वाला एक ज्यादा लचीला बेंच मिल गया, जिसने अपुनी नांबियार द्वारा अपनी बेटी अथीरा के संदर्भ में दायर ऐसी ही एक याचिका में पुलिस जांच का निर्देश दिया था. इस बार अशोकन ने अपने आरोपों को लव जिहाद’, जबरदस्ती कराई गई शादी, धर्मांतरण और सीरिया या आईएसआईएस तक मानव तस्करी के आजमाए हुए नुस्खे की शक्ल में पेश किया, जिन सभी को कोर्ट की निगरानी में 2009-13 की एक विस्तृत जांच में खारिज किया जा चुका था. 

हादिया और शफीन जहां. (फाइल फोटो: सोशल मीडिया)

24 मई, 2017 के अपने कुख्यात फैसले को पूरी तरह से एक काल्पनिक कथा पर आधारित करते हुए जस्टिस के. सुरेंद्र मोहन और अब्राहम मैथ्यू ने लव जिहादऔर मानव तस्करी पर विस्तार से लिखा और हादिया के उसे अकेला छोड़ देने और उसे उसके द्वारा चुने गए तरीके से जीवन जीने देने की पुरजोर अपील को अस्वीकार कर दिया. 

एक अजीब तरीके से कानून को सिर के बल उल्टा करते हुए जस्टिस सुरेंद्र मोहन ने फैसला सुनाया कि 24 वर्षीय पोस्ट ग्रैजुएट छात्रा को अपना जीवनसाथी चुनने का कोई अधिकार नहीं था, कि सिर्फ उसके अभिभावकों को ही अपनी बेटी की शादी करने का अधिकार था और इस आधार उन्होंने हादिया की शफीन जहां से शादी को रद्द कर दिया. 

न्याय का इस तरह से मखौल उड़ाकर ही मानो संतोष न करते हुए बेंच ने केरल राज्य के डीजीपी को व्यक्तिगत तौर पर शफीन जहां के खिलाफ अपराध संख्या 21/2016 की जांच करने और इसे अथीरा के कथित बलपूर्वक धर्मांतरण के मामले से संबंधित अपराध संख्या 510/2016 के साथ नत्थी करने का आदेश दिया. कोर्ट ने अपराध संख्या 21/2016 के जांच अधिकारी पर शफीन जहां पर शिकंजा न कसने के लिए विभागीय कार्रवाई शुरू करने का भी निर्देश दिया. 

अफसोसजनक तरीके से शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट भी जस्टिस के. सुरेंद्र मोहन के वैमनस्य से भरे फैसले से तैयार पूर्वाग्रह का शिकार हो गया. 

जब शफीन जहां ने हादिया के साथ उसकी शादी को शून्य करनेवाले अतार्किक फैसले को चुनौती देते हुए विशेष याचिका दायर की, तब सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में फैसलों की एक श्रृंखला में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को केरल के डीजीपी के अधीन की जा रही जांच को अपने हाथों में ले लेने का निर्देश दिया और एनआईए एक्ट, 2008 के अनुच्छेद 6 के तहत एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जांच करने का निर्देश दिया. 

हाईकोर्ट के फैसले में गिनाए गए झूठों से सुप्रीम कोर्ट इस कदर प्रभावित था कि इसने एनआई की जांच के पूरा होने तक हादिया को एक तरह से बंदी बनाए रखने का निर्देश दिया. आखिरकार 27 नवंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने हादिया का इंटरव्यू लिया और यह स्वीकार किया कि वह एक पढ़ी-लिखी वयस्क थी जिसने खुद से अपने जीवन के फैसले लिए थे. कोर्ट ने इसके बाद निर्देश दिया कि हालांकि एनआईए की जांच जारी रहेगी, लेकिन हादिया को उसके होमियोपैथी कॉलेज और सलेम के होस्टल में फिर से दाखिला दिया जाए जहां वह अपनी इंटर्नशिप को पूरा कर सकेगी और किसी भी अन्य विद्यार्थी की तरह अपनी आजादी का आनंद उठा सकेगी.  

8 मार्च, 2018 को शफीन जहां बनाम अशोकन वाले मामले में बहस पूरी होने पर सुप्रीम कोर्ट ने एक छोटे फैसले में हादिया के साथ शफीन की शादी को रद्द करने वाले आदेश को पलट दिया और यह निर्देश दिया कि वह अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी और भविष्य की अपनी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन, एक बार फिर कोर्ट ने यह स्पष्टीकरण दिया कि एनआईए की जांच जारी रहेगी. 

आखिरकार, अप्रैल, 2018 के अपने दूरदर्शी फैसले में कोर्ट ने जस्टिस के. सुरेंद्र मोहन के फैसले को पलट दिया और एक वयस्क को उसका जीवनसाथी के साथ-साथ अपना धर्म चुनने और साथ ही साथ अपनी इच्छा से अपने धर्म को बदलने के परम अधिकार पर मुहर लगा दी. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस एएम खानविलकर और वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की तरफ से एक आम सहमति वाले फैसले में संयुक्त रूप से मत प्रकट करते हुए बगैर किसी अगर-मगर के कहा कि धर्म और शादी व्यक्तिगत पसंद का मामला है, जिससे निजता के अधिकार का संरक्षण प्राप्त है और कोई भी तीसरा व्यक्ति, चाहे वह अभिभावक या कोई अन्य क्यों न हो, इस पसंद में दखलंदाजी नहीं कर सकता है. 

मुख्य न्यायाधीश और जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह दोहराया कि एनआईए सुप्रीम कोर्ट द्वारा शुरू कराए गए जांच को आगे बढ़ाने के लिए स्वतंत्र है, यद्यपि यह हादिया और शफीन जहां की शादी में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. 

यह आखिरी निर्देश काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसने लव जिहाद के राक्षसी झूठ के ताबूत में कील ठोकने का काम किया, जिसने दो युवा वयस्कों की जिंदगियों को लगभग तबाह कर दिया था. 

बार-बार सिर उठाने वाला दानव 

हालांकि एनआईए ने केरल के डीजीपी से जांच अपने हाथ में लेने में कोई देरी नहीं की थी और 10 अगस्त, 2017 और 16 अगस्त, 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद इसकी जांच की जद बहुत दूर तक फैल चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद एनआई लव जिहादका एक भी मामला या कोई स्थानीय या अंतरराष्ट्रीय साजिश का पता नहीं लगा सकी. 

हकीकत में 4 फरवरी, 2020 को एक तारांकित प्रश्न के जवाब में गृहराज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने लोकसभा को सूचित किया कि केरल में किसी भी केंद्रीय एजेंसी द्वारा लव जिहादके किसी भी मामले की सूचना नहीं दी गई है

लेकिन ऐसा लगता है कि चाहे कितनी ही बार इसका पर्दाफाश महज एक झूठ के तौर पर किया जाए, ‘लव जिहादका प्रेत और किसी के द्वारा नहीं, खुद न्यायपालिका द्वारा खड़ा किया जाता रहेगा. 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा हादिया को आजाद किए जाने के महज एक सप्ताह पहले उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 20 नवंबर, 2017 को य राज्य सरकार को मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर एक धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने की सलाह दी. 

यह टिप्पणी एक हिंदू लड़की के पिता द्वारा एक दायर एक याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई, जिनकी बेटी एक मुस्लिम लड़के साथ चली गई थी. उस लड़के ने हिंदू धर्म में धर्मांतरण किया था. हालांकि इस टिप्पणी से पहले ही यह याचिका विवादग्रस्त हो चुकी थी, क्योंकि उस लड़की ने- जिसे कोर्ट के फैसले के आधार पर एक ऐसी जगह पर रखा गया था, जहां वह अपने अभिभावकों के साथ ही साथ अपने कथित पति के प्रभाव से मुक्त हो- सुनवाई शुरू होने पर कोर्ट को यह सूचना दी थी कि वह अपने अभिभावकों के साथ घर लौटना चाहती थी. 

फिर भी यह दर्ज करने के बाद कि राज्य सरकार से कानून बनाने के लिए कहना कोर्ट के अधिकारक्षेत्र से बाहर है, जस्टिस राजीव शर्मा ने आगे बढ़ते हुए यह सलाह दे डाली कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए राज्य सरकार से मध्य प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट की तर्ज पर अपना एक फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट बनाने की उम्मीद की जाती है.

शायद इस न्यायिक सलाह से संकेत पाकर सरकार ने 14 मई, 2018 को उत्तराखंड फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 2018 को अधिसूचित कर दिया. इस विधेयक का उद्देश्य और कारण का कथन सामूहिक और व्यक्तिगत, दोनों स्तरों पर बड़ी संख्या में धर्मांतरण के मामलों’, ‘छद्म सामाजिक संगठनों की मौजूदगी जिनका छिपा हुआ मकसद दूसरे धर्मों के कमजोर तबकों का धर्मांतरण करवाना है’,  आसानी से ठगे जा सकने वाले लोगों का लालच देकर या गैर-वाजिब प्रभाव के तहत धर्मांतरणऔर बलपूर्वक धर्मांतरणोंकी बात करता है. 

उत्तराखंड की विधानसभा को दृढ़तापूर्वक, भले ही अपरिष्कृत तरीके से उद्देश्य एवं कारण के कथन में यह सूचना दी गई कि: 

हमारे सामने ऐसी घटनाएं आई हैं, जिनमें दूसरे धर्मों के लोगों को अपने धर्म में परिवर्तित करके अपने धर्म की संख्या बढ़ाने के एजेंडा के तहत लोग अपने धर्म के बारे में झूठ बोलकर दूसरे धर्मों की लड़कियों से शादी करते हैं और ऐसी लड़कियों से शादी रचा लेने के बाद, उन्हें अपने धर्म में धर्मांतरित करवा देते हैं. ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें लोग सिर्फ उस धर्म की लड़की से शादी के मकसद से दूसरे धर्मों में धर्मांतरित हो जाते हैं और शादी के बाद वे उस लड़की को अपने धर्म में धर्मांतरित करवा देते हैं.

आश्चर्यजनक तरीके से इस बयान में आगे कहा गया है: 

हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी शफीन जहां बनाम अशोकन केएम एवं अन्य और अमन बेग बनाम मध्य प्रदेश राज्य तथा अन्य वाली रिट याचिका में ऐसी घटनाओं का न्यायिक संज्ञान लिया था.

सुविधाजनक तरीके से विधानसभा को या तो जानकारी नहीं दी गई या इसने 9 अप्रैल, 2018 को शफीन जहां बनाम अशोकन केएम एवं अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करना चुना. 

उत्तर प्रदेश 

उत्तर प्रदेश के लव जिहाद कानून की जड़ में न्यायिक फैसला भले न रहा है, लेकिन इसकी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. 

चूंकि 2013 के विनाशकारी मुजफ्फरनगर दंगों के पीछे लव जिहादके वितंडे के शोर का हाथ माना गया था, इसलिए कोबरा पोस्ट और गुलेल  ने एक साल भर लंबी तफ्तीश चलाई जिसके बाद 4 अक्टूबर, 2015 को प्रिंट और टेलीविजन दोनों ही माध्यमों पर इस संबंध में रिपोर्ट को जारी किया गया.

ऑपरेशन जूलियट : बस्टिंग द मिथ ऑफ लव जिहादशीर्षक वाली यह तफ्तीश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी और बजरंग दल के प्रमुख व्यक्तियों, जिनमें केंद्रीय मंत्री संजीव कुमार बालियान, कैराना से सांसद (अब दिवंगत) हुकुम सिंह, सरधाना से विधायक संगीत सोम और आरएसएस और विहिप के मुजफ्फरनगर प्रमुख शामिल थे, के प्रसारित स्टिंगों पर आधारित थी.  

कोबरा पोस्ट और गुलेल  ने उन्हें कैमरा पर यह स्वीकार करते हुए पकड़ा कि उन्होंने बलात्कार और अपहरण के झूठे मामले दर्ज कराए थे और संबंधित महिलाओं को नाबालिग दिखाने के लिए दस्तावेजों में हेराफेरी की थी और उन्होंने पुलिस में अपनी पकड़ का इस्तेमाल एक सामान्य शादी को लव जिहाद के मामले का रूप देने के लिए किया था. 

महत्वपूर्ण तरीके से इस जांच में यह सामने आया कि बचाई गईएक भी महिला ने हिंदुत्ववादी शक्तियों की मदद नहीं मांगी थी न ही उनमें से किसी ने यह अपहरण या लव जिहादका शिकार होने का दावा किया था. 

कोबरा पोस्ट और गुलेल  द्वारा इस झूठ को पूरी तरह से बेनकाब कर दिए जाने के बावजूद, 21 नवंबर, 2019 को उत्तर प्रदेश लॉ कमीशन के जस्टिस आदित्य नाथ मित्तल ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को एक धर्मांतरण विरोधी विधेयक का एक मसौदा पेश किया. लॉ कमीशन से संकेत ग्रहण करते हुए मुख्यमंत्री ने कानपुर रेंज के आईजीपी को लव जिहादकी परिघटना की जांच करने के लिए एक विशेष जांच दल गठित करने के लिए कहा. 

योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक/@MYogiAdityanath)

24 नवंबर, 2020 को एसआईटी की जांच के निष्कर्षों की घोषणा आईजीपी मोहित अग्रवाल द्वारा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में की गई. उन्होंने बताया कि पिछले दो सालों में पूरे कानपुर जिले में सिर्फ 14 मामले दर्ज कराए गए थे, जिनमें से आठ का संबंध नाबालिग लड़कियों से था. लड़कियों के बालिग होने और अपने मुस्लिम साथी से अपनी मर्जी से शादी करने के कारण तीन मामलों को बंद कर दिया गया, जबकि बाकी 11 मामलों में पुरुष साथी के साथ-साथ उन नाबालिगों के खिलाफ भी मामले दर्ज कराए गए. 

लंबी चली एसआईटी जांच और प्राथमिकियों के बावजूद भी जैसा कि आईजीपी ने प्रेस को बताया: 

साजिश वाले आयाम को साबित नहीं किया जा सका. जांच दल को इन लड़कों (आरोपियों) के पीछे किसी संगठन का हाथ भी नहीं मिला. साथ ही, उनकी कोई विदेशी फंडिंग भी नहीं हुई थी.’

सबूतों की गैर मौजूदगी जैसी तुच्छ चीज की परवाह किए बगैर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आईजीपी के प्रेस कॉन्फ्रेंस के महज तीन दिन बाद शादी के लिए धर्मांतरण को अपराध बनाने वाले, आरोपी पर खुद को बेगुनाह साबित करने का जिम्मा डालने वाले और 2018 के उत्तराखंड के कानून के सभी विद्वेषपूर्ण तत्वों को शामिल करने वाले और उसमें अपनी तरफ से कुछ और परिवर्तन शामिल करने वाले अध्यादेश पर राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के दस्तखत करवा दिए

इस अध्यादेश की जगह उत्तर प्रदेश प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कंवर्सन ऑफ रिलीजन एक्ट, 2021 ने ली और इसके उद्देश्य एवं कारण के कथन में सहर्ष यह दावा किया गया कि हालिया अतीत में कई ऐसे उदाहरण प्रकाश में आए हैं, जिनमें भोले-भाले लोगों को धोखाधड़ी, बल प्रयोग, अनुचित प्रभाव, दबाव बनाकर, लालच देकर या फर्जी तरीके से एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरित कराया गया है.’ 

एक दिलचस्प तथ्य: उत्तर प्रदेश के अध्यादेश पर दस्तखत करने के मुश्किल से एक महीने बाद राज्यपाल आनंदीबेन पटेल, जो तब मध्य प्रदेश में थीं, ने उस राज्य में भी बगैर किसी आधार के ऐसा ही अध्यादेश लागू कर दिया. 

एक और दिलचस्प तथ्य: न्यूजलॉन्ड्री  द्वारा मई, 2021 में जारी की गई खोजी रिपोर्ट्स और व्यक्तिगत साक्षात्कारों की एक श्रृंखला ने यह उजागर किया कि एसआईटी द्वारा दायर 11 मामलों में से 7 मामलों में, ‘बलपूर्वक धर्मांतरणऔर मजबूर करनेके दावों को कथित पीड़ितों द्वारा खारिज कर दिया गया और वे दावे बेहद खोखले थे. 

अभियान जारी है

एक तरफ जहां न्यायालय नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत करने में मुस्तैद रहे हैं, वहीं लव जिहादकानूनों सिलसिला भी अनवरत जारी है. इवैंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया वाले में 2006 के हिमाचल प्रदेश कानून के कुछ खास प्रावधानों को निरस्त करते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा ने यह लिखा था कि यह कानून बनाए जाने के बाद छह सालों में सिर्फ एक मामला इसके तहत दर्ज किया गया था. लेकिन फिर भी अक्टूबर, 2019 में 2006 के कानून को हटाकर उसकी जगह हिमाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 2009 लाया गया; और बेशर्म लापरवाही के साथ हाईकोर्ट द्वारा निरस्त किए गए प्रावधानों को पहले से कई गुना बढ़ाकर फिर से वापस ले आया गया है. 

राई बराबर भी सबूत न होने के बावजूद विधेयक के उद्देश्य एवं कारणों के कथन कहा गया है: यह देखा गया है कि धोखे से धर्मांतरण में बढ़ोतरी हुई है…और आगे कहा गया है कि 2006 के कानून को पूरी तरह से नया करना जरूरी हो गया था क्योंकि 

इस कानून में किया गया सजा का प्रावधान इसे रोकने के हिसाब से उतने पर्याप्त नहीं हैं और इसलिए उत्तराखंड जैसे कुछ दूसरे राज्यों की तर्ज पर पर्याप्त सजा का प्रावधान किया जाना जरूरी है. साथ ही सिर्फ धर्मांतरण के लिए की जाने वाली शादी पर नियंत्रण रखने के लिए भी कोई प्रावधान नही है. इसके अलावा यह कानून धर्मांतरण में शामिल संस्था या संगठन को सजा देने का भी प्रावधान नहीं करता है.’ 

सारांश के तौर पर कहा जाए तो, कहना न होगा कि जबकि न्यायपालिका ने बार-बार लव जिहाद के अफसाने को आगे बढ़ाने में सांप्रदायिक कट्टरपंथियों की ‘बी’ टीम के तौर पर काम किया है, लेकिन कुछ ने इसका प्रतिकार करने का भी काम किया है. 

अनीस अहमद बनाम केरल वाले वाद में 19.10.2017 के एक बेहद तीखे फैसले में केरल उच्च न्यायालय के जस्टिस वी. चितंबरेश और सतीश निनान ने कहा कि वे राज्य में अंतरधार्मिक विवाह के हर मामले को, भले ही पति-पत्नियों के बीच इससे पहले प्लैटोनिक प्रेम रहा हो, ‘लव जिहादया घर वापसीका रंग देने की प्रवृत्ति को देखकर खौफजदा हैं.’   

कोर्ट ने एक योग केंद्र के खिलाफ पुलिस जांच और कार्रवाई करने का आदेश दिया जिसका इस्तेमाल अपनी जाति या धर्म के बाहर विवाह करने की इच्छा रखने वाली हिंदू लड़कियों के बलपूर्वक समझाने-बुझाने के लिए किया जा रहा था. कोर्ट को पता चला कि अनीस अहमद की पत्नी आरुथा मेलेदथ को उनके अभिभावकों द्वारा, पुलिस से उनकी गैरकानूनी कस्टडी हासिल करने के बाद जबरदस्ती इस योग केंद्र में बंद करके रखा गया था. पुलिस ने इस जोड़े को सोनीपत, हरियाणा से उठाया था और उन्हें केरल लेकर आई थी और पत्नी को उनके अभिभावकों के हवाले कर दिया था. कोर्ट ने अधिकारियों की तीखी आलोचना करते हुए इस जोड़े को मिलाया था. 

सुप्रीम कोर्ट अपने धर्म और साथी को चुनने की स्वतंत्रता के पक्ष में भी मजबूती से खड़ा रहा है, हालांकि ऐसा इसने इन धर्मांतरण विरोधी कानूनों के संदर्भ में नहीं किया है. पुट्टूस्वामी (2017) वाले मामले में कोर्ट ने यह कहा कि अपना जीवनसाथी चुनने या अपना धर्म बदलना निजता और समानता के अधिकार का अनिवार्य तत्व है. फीन जहां (2018) और शक्ति वाहिनी(2018) वाले मामले में इसने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने के एक वयस्क के अधिकार में अभिभावकों, समुदायों, खाप पंचायतों या अधिकारियों द्वारा दखलंदाजी नहीं की जा सकती है. 

इस बात की सिर्फ उम्मीद की जा सकती है कि जब पेशेवर याचिकाकर्ता एक बार फिर इस जिन्न को बोतल से बाहर निकालने की कोशिश करेंगे, तब सुप्रीम कोर्ट अतीत की सीख को याद रखेगा. 

(चंदर उदय वरिष्ठ अधिवक्ता हैं.)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)