प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में 2004 से 2014 के दशक को ‘लॉस्ट डेकेड’ कहा था. यह पद अर्थव्यवस्थाओं में प्रति व्यक्ति आय में न के बराबर बढ़ोतरी को लेकर चलन में रहा है. हालांकि प्रधानमंत्री ने भारत में जिस दशक के लिए इसे इस्तेमाल किया, उससे जुड़े आंकड़े इस अर्थ के विपरीत तस्वीर दिखाते हैं.
प्रधानमंत्री ने संसद में 2004-14 के बीच के दस सालों को ‘बर्बाद दशक’ (लॉस्ट डेकेड) कहा. दो दशक पहले यह पद डेवेलपमेंट लिटरेचर में प्रचलन में आया क्योंकि 1980-2000 में उप-सहारा अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं में प्रति व्यक्ति आय में न के बराबर बढ़ोतरी देखी गई. और इस तरह से वहां वर्ष 2000 में प्रति व्यक्ति आय 1980 के स्तर से थोड़ी-सी ही ऊपर थी.
क्या 2004-14 के भारत के लिए यही बात लागू होती है? तथ्य कुछ और ही कहानी बयान करते हैं.
- 2004-14 के बीच अर्थव्यवस्था 8 फीसदी की दर से बढ़ी, जबकि 2008 में दुनिया को वैश्विक आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा जिसके प्रभाव आने वाले वर्षों तक बने रहे. इस दौरान जनसंख्या में प्रतिवर्ष 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हो रही थी, लेकिन इसके साथ ही साथ इन दस वर्षों में प्रति व्यक्ति आय में औसतन 6.7 फीसदी की औसत वृद्धि दर्ज की गई. यह उपलब्धि कैसे हासिल की गई? नीचे दिए गए तथ्य इस अभूतपूर्व विकास की, जो न पहले दर्ज किया गया और न जिसे 2015 के बाद बरकरार रखा जा सका, की व्याख्या करेंगे.
- 2004-05 और 2011-12 के बीच अर्थव्यवस्था हर साल 75 लाख नए गैर-कृषि रोजगार का सृजन कर रही थी (सात सालों में 5.2 करोड़ नए रोजगार) युवा और कुल बेरोजगारी के कम होने का यही कारण था.
- इसने हर साल पचास लाख से ज्यादा लोगों को कृषि से बाहर निकलने में सक्षम बनाया. कृषि में कामगारों का प्रतिशत 1973-74 से ही कम हो रहा था, लेकिन इसमें लगे लोगों की निरपेक्ष संख्या में हमेशा वृद्धि हो रही थी. भारत के इतिहास में पहली बार कृषि में लगे लोगों की निरपेक्ष संख्या में 2004-05 के बाद कमी आई. (जिसकी गति में 2014 तक तेजी रही, उसके बाद उसमें 2019 तक कमी आई.)
- एक आलोचना यह की जाती है कि इस दौरान मुद्रास्फीति ज्यादा थी. लेकिन 2004-12 के बीच गैर कृषि रोजगार सृजन ने ग्रामीण श्रम बाजार में संकुचन पैदा किया और खुले बाजार में मजदूरी को वास्तविक अर्थों में बढ़ाने का काम किया; इस प्रक्रिया में मनरेगा लागू करने और बढ़ रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) ने योगदान दिया. इसके ही प्रभाव के तौर पर शहरी मजदूरी में भी वास्तविक अर्थों में (बढ़ रही मुद्रास्फीति के बावजूद) वृद्धि हुई. इस दौर में वास्तविक मजदूरी (मुद्रास्फीति का हिसाब लगाने के बाद) का रिकॉर्ड हालिया दौर से कहीं ज्यादा बेहतर है. चूंकि वास्तविक मजदूरी बढ़ रही थी, इसलिए गरीबी में भी कमी आई.
- इसके अलावा, गैर कृषि रोजगार के सृजन और वास्तविक मजदूरी में वृद्धि से, वास्तविक निजी अंतिम उपभोग पर खर्च में इजाफा हुआ. इसलिए 2004-12 में गरीबी कम करने में अच्छी प्रगति हुई. न सिर्फ जीडीपी वृद्धि सभी दौर की तुलना में सबसे ज्यादा थी, बल्कि इस दौर में 2004-05 से 2011-12 के बीच गरीबों की संख्या में हर साल लगभग 2 करोड़ लोगों की कमी आई. (तेंदुलकर गरीबी रेखा के हिसाब से) यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. हालांकि, कुल आबादी में उनका प्रतिशत 2004 से पहले भी घट रहा था, लेकिन 1973-74 से गरीबों की निरपेक्ष संख्या में इससे पहले कभी कमी नहीं आई थी. (1993-2004-05 के बीच लकड़वाड़ा गरीबी रेखा के हिसाब से महज 1.8 करोड़ की कमी के अपवाद को छोड़ दें तो)
- शिक्षितों में खुली बेरोजगारी दर 2004-05 के बाद से 2011-12 के बीच गिर रही थी (उन वर्षों के एनएसएसओ के श्रम बल सर्वेक्षणों के हिसाब से). वर्तमान सरकार के कार्यकाल में युवा बेरोजगारी दोगुनी से ज्यादा हो गई है.
इन अभूतपूर्व उपलब्धियों की तुलना पिछले आठ वर्षों से कीजिए:
- गैर-कृषि रोजगार का सृजन 75 लाख प्रतिवर्ष से घटकर 2013-19 के बीच 29 लाख रह गया.
- 2013 से कुल विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) रोजगार 2013 के बाद, ‘मेक इन इंडिया’ के बावजूद, निरपेक्ष संख्या के हिसाब से कम हुआ है. (खासकर असंगठित मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में. और इसके साथ संगठित मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की बाजार हिस्सेदारी बढ़ी है.) यह 2016 की नोटबंदी के बाद हुआ. जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान जो 1992 से 2015 तक 17 फीसदी पर स्थिर था, इसके बाद 13 प्रतिशत तक गिर गया. 2022-23 में यह फिर बढ़कर 17 प्रतिशत पर पहुंचा है.
- कोविड-19 महामारी ने नौकरियों के घटने के संकट को और बढ़ाया है. और सबसे खराब बात यह है कि कोविड के बाद की के-आकार की रिकवरी में असंगठित मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में और संकुचन आया है और संगठित क्षेत्र की बाजार हिस्सेदारी बढ़ी है. यह बढ़ रही असमानता का बुनियादी कारण है.
- खुली बेरोजगारी 2012 के 2.2 प्रतिशत से तेजी से बढ़कर 2017-18 में 6.1 प्रतिशत हो गई (एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक) जो 45 वर्षों में सबसे ज्यादा थी. 2017-18 नोटबंदी के बाद का वर्ष था, जिसने रोजगार संकट को और गहरा कर दिया. 2017-18 के आवधिक श्रमबल सर्वे में पता चला कि बेरोजगारी 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर थी.
- युवा बेरोजगारी (15-29 आयु वर्ग) 2012 और 2019 और 2021 के बीच दोगुनी या तिगुनी हो गई. जैसे 2004-2019 के दौरान और फिर कोविड के दौरान आर्थिक और स्वास्थ्य कुप्रबंधन के दौरान ग्रामीण/शहरी भारत में शिक्षित युवाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई, वैसे ही बेरोजगारी भी बढ़ी.
- वास्तविक मजदूरी में बढ़ोतरी में भी तेज गिरावट आई है. मुद्रास्फीति आरबीआई की अपनी ही 6 प्रतिशत की उच्चतम सीमा से काफी आगे रही है. इस हिसाब से वास्तविक मजदूरी वास्तव में घट गई है.
- यही कारण है कि जैसा कि वर्ल्ड बैंक ने एक आधिकारिक रिपोर्ट (सितंबर, 2022) में रेखांकित किया है, गरीबी के आंकड़ों में वास्तव में बढ़ोतरी हुई है : 2020 के दौरान गरीबी (प्रति दिन 2.15 डॉलर से कम पर गुजर-बसर करने वालों के तौर पर परिभाषित) में 7 करोड़ की वृद्धि हुई. इसमें से 5.6 करोड़ (या 80 फीसदी) लोग भारत के थे. यह मेरे द्वारा एक साल पहले लगाए गए अनुमान की पुष्टि करता है.
निष्कर्ष के तौर पर कहें :
- तथाकथित ‘बर्बाद दशक’ में प्रति वर्ष 75 लाख गैर कृषि नौकरियों का सृजन हुआ. 2013-19 के दौरान प्रति वर्ष सिर्फ 29 लाख गैर कृषि नौकरियों का सृजन हुआ (कोविड-19 से पहले) (सरकार के पीएलएफएस डेटा के आधार पर). कोविड-19 के बाद इसमें और गिरावट आई.
- युवा बेरोजगारी यूपीए शासन काल की तुलना में कोविड-19 से पहले और यहां तक कि उसके बाद भी तिगुनी नहीं तो दोगुनी जरूर हो गई है.
- वास्तविक मजदूरी तथाकथित ‘बर्बाद दशक’ के दौरान (उच्च मुद्रास्फीति के बावजूद) बढ़ी. लेकिन इसमें हालिया वर्ष में गिरावट आई (पीएलएफएस डेटा के मुताबिक).
- गरीबों की संख्या में पहले वाले दौर में तेजी से गिरावट आई, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें बढ़ोतरी हुई है.
(संतोष मेहरोत्रा सेंटर फॉर डेवेलपमेंट स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ, यूनाइटेड किंगडम में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)