संविधान, लोकतांत्रिक मूल्य और हम

सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन की चार किताबें - ‘संविधान और हम’, ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’, ‘जीवन में संविधान’ और ‘भारत का संविधान: महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई हैं. संविधान के निर्माण और इसके पीछे के संघर्ष के अलावा ये किताबें आज़ादी के बाद संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई और तिल-तिल कर जी रहे वंचित और दबे हुए लोगों की दास्तान हैं.

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(फोटो साभार: फेसबुक)

सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन की चार किताबें – ‘संविधान और हम’, ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’, ‘जीवन में संविधान’ और ‘भारत का संविधान: महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई हैं. संविधान के निर्माण और इसके पीछे के संघर्ष के अलावा ये किताबें आज़ादी के बाद संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई और तिल-तिल कर जी रहे वंचित और दबे हुए लोगों की दास्तान हैं.

(फोटो साभार: फेसबुक)

26 जनवरी 1950 को जब एक लंबी बहस और मेहनत के बाद संविधान को अपनाया गया तो यह कल्पना की गई थी कि आने वाले वर्षों में भारत के हर नागरिक को संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकारों के साथ एक गरिमामयी जीवन जीने के मौके भी हासिल होंगे और सबको विकास के अवसर भी मिलेंगे.

समय बीतने के साथ-साथ जहां विकास हुआ, वहीं लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. दिक्कत यह है कि आज बमुश्किल देश के एक प्रतिशत लोगों के घर में संविधान की प्रति होगी, जबकि धार्मिक किताबों का भंडार हर घर में होगा. जब संविधान घर में नहीं, किसी ने देखा नहीं तो समझ कैसे विकसित होगी और कैसे हमारा लोकतंत्र बचेगा.

इधर सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने संविधान बचाने की तगड़ी पहल की है, जिसमें विभिन्न प्रकार की संस्थाएं संविधान पर बहुत बारीकी और गहराई से काम कर रही हैं.

इस क्रम में अनेक प्रकार की सामग्री विकसित की जा रही है और दूरदराज  के गांवों से लेकर शहरों और विभिन्न प्रकार के सोशल मीडिया पर लोग सक्रिय हैं और समाज के हर वर्ग के साथ संजीदा ढंग से काम हो रहा है.

इस बीच सामाजिक कार्यकर्ता उनकी बारीक अवलोकन क्षमता और लेखनी से उपजी हैं चार किताबें – ‘संविधान और हम’, ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’, ‘जीवन में संविधान’ और ‘भारत का संविधान: महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई हैं.

इन किताबों के ज़रिये उन्होंने संविधान के बारे में जन जागृति फैलाने का महत्वपूर्ण काम किया है. साथ ही 2023 का अनूठा कैलेंडर विकसित किया है, जिसमें संविधान के बारे में चर्चा की गई है. एक पोस्टर भी संवैधानिक मूल्यों को लेकर बनाया है.

सचिन जैन इस समय ‘विकास संवाद’ नामक संस्था के साथ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहकर विकास के मुद्दों पर वर्तमान में रणनीतिक संचार पर काम कर रहे हैं.

वे प्रतिष्ठित अशोका फेलोशिप के फेलो भी हैं. उन्होंने 100 के करीब पुस्तकें अलग-अलग मुद्दों पर लिखी है. लगभग 2 दशक से ज्यादा समय से सचिन भोजन का अधिकार, कुपोषण, आजीविका, पंचायती राज, पैरवी, संचार  और अन्य सामाजिक मुद्दों पर मध्य प्रदेश और देश के अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे हैं.

देश और प्रदेश की कई नीतियां बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

उनकी पहली किताब ‘संविधान और हम’ को आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर ने प्रकाशित किया है. ग्रामीण क्षेत्र में इस किताब कि सहज और सरल भाषा की सराहना हुई. पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी था.

दूसरी किताब ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’ अघोरा प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित हुई है. इसमें वो सब बारीक तथ्य और बहस है, जिसमें भारतीय संविधान के बनने की कहानी और संविधान के विकास क्रम का उल्लेख है.

इस पुस्तक में सचिन लोकतंत्र, भारत में लोकतंत्र, उपनिवेशवाद, भारत में नियोजन की व्यवस्था, आधुनिक संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संविधान और विचारों की विविधता और संविधान सभा की 14 और 15 अगस्त की सभा से लेकर भारत के संविधान और व्यवस्था के बनने में डॉक्टर आंबेडकर का योगदान, महात्मा गांधी और संविधान, आदिवासी, वैश्विक अशांति, धर्म, गैर बराबरी ऋण की अर्थव्यवस्था और लोगों का एक भीड़ के रूप में तब्दील हो जाने के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं.

‘जीवन में संविधान’ नामक किताब में हमारे जीवन की कहानियां हैं, जहां पर हम प्रतिदिन संवैधानिक मूल्यों का सिर्फ क्षरण मात्र ही नहीं देखते हैं, बल्कि हम यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि सत्ता, व्यवस्था और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया ने किस तरह से आम और खास आदमी को अलग-अलग जगह पर नागरिकों की श्रेणियां बनाकर खड़ा कर दिया है.

75 से अधिक कहानियों का ये संग्रह आजादी के बाद संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई, संघर्ष और तिल-तिल कर जी रहे वंचित और दबे हुए लोगों की एक ऐसी दास्तान है, जो एक लंबी सुरंग के मानिंद विकास के रास्ते में से गुजर रही है. इन कहानियों में गरीब, बेबस लोग हैं, जो दलित हैं, स्त्रियां हैं, बूढ़े और लाचार लोग हैं, कुपोषित बच्चे हैं, आजीविका के लिए लड़ते लोग हैं, किशोर हैं युवा हैं. ये सब जो नागरिक होने की पीड़ा भुगत रहे हैं.

अपनी चौथी किताब ‘भारत का संविधान: महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क’ में वे 8 अध्यायों के साथ संविधान बनने की कहानी और महत्वपूर्ण तथ्यों का तारीखवार संकलन करके यह बता रहे हैं कि संविधान के बनने में कितने प्रयास किए गए, किस तरह की बहस हुई.

साथ ही कितनी गहराई से तत्कालीन समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझ कर आने वाले आजाद हिंदुस्तान की तस्वीर की झलक संविधान में दिखाई देती है और इसके लिए जिस तरह से संविधान सभा के लोगों ने बहस की और निर्णय करके संविधान का मूल पाठ तैयार किया – अकल्पनीय है.

इस पुस्तक की  प्रस्तावना कानूनविद और अधिवक्ता गौतम भाटिया ने लिखी है.

वे कहते हैं, ‘यह किताब आधुनिक भारत में संविधान निर्माण का विस्तृत और व्यापक इतिहास उपलब्ध कराती है. भारतीय संविधान 1949 में अचानक सामने नहीं आया, बल्कि इसका एक लंबा इतिहास रहा है, जिसका एक सिरा भारत में ब्रिटिशों के शुरुआती अधिपत्य और 1773 के बंगाल रेगुलेशन से मिलता है. इस रेगुलेशन के जरिये औपनिवेशिक शासकों के लिए शासन का शुरुआती चार्टर तैयार किया गया था.’

वे आगे कहते हैं, ‘19वीं सदी के अंतिम समय में और 1857 के विद्रोह के बाद दशकों से भारतीयों ने विभिन्न तरीकों से भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को चुनौती दी. इनमें से एक तरीका संवैधानिक तरीका भी था. 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद उसने जल्दी ही यानी 1895 के आसपास संवैधानिक दस्तावेज तैयार करने का काम शुरू कर दिया था. इनमें मूल अधिकार संबंधी विधेयक भी शामिल था, जिससे स्वतंत्र भारत का खाका बनना था.

इन किताबों के लेखक सचिन जैन कहते हैं, ‘दो दशक तक पत्रकारिता और जमीनी स्तर पर काम करने के बाद यह समझ बनी कि हमें संविधान पर काम करने की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि जिस तरह से संवैधानिक मूल्यों का ह्रास हुआ है और संविधान की लगातार उपेक्षा हुई है वह बहुत चिंताजनक है.’

उनके अनुसार, ‘किसी भी देश को चलाने के लिए संविधान का होना अत्यंत आवश्यक है साथ ही लोगों को संविधान की व्यापक और गहरी समझ होना चाहिए. जब तक यह नहीं होगा, लोगों में संवैधानिक मूल्यों का विकास नहीं होगा, उन्हें अपने मूल अधिकार और कर्तव्य से हम वाकिफ नहीं करवाएंगे, तब तक हमारे विकास और सामाजिक परिवर्तन का कोई अर्थ नहीं है.’

बहरहाल ये किताबें सिर्फ अकादमिक जगत के लिए नहीं, बल्कि युवाओं, कानून के विद्यार्थियों, शासन प्रशासन एवं मीडिया से जुड़े लोगों और समुदाय के लोगों के लिए हैं, जिससे संविधान पर एक अच्छी समझ बनाई जा सकती है.

सभी किताबों में बहुत सरल तरीके से हर बात को विस्तार और बारीकी से समझाया गया है. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में जब तक संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात कर लोकतंत्र को सही मायनों में हम नहीं सीखेंगे, तब तक हर आदमी में विकास नहीं हो सकता और तब तक हम देश में स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा जमीनी स्तर पर नहीं देख पाएंगे.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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