नोटबंदी से लोगों को तमाम परेशानियां हुईं, फिर भी ज्यादातर लोग नरेंद्र मोदी सरकार के इस कदम से ख़ुश क्यों हैं?
नोटबंदी के बाद एक अजीब स्थिति पैदा हुई है– एक तरफ ज़्यादातर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि नोटबंदी ख़राब नीति है जिसे बुरी तरह से क्रियांवित किया गया. दूसरी तरफ ज़्यादातर ओपीनियन पोल बताते हैं कि सरकार के इस कदम से लोग ख़ुश हैं, जबकि वे खुद नोटबंदी से बुरी तरह से प्रभावित हैं. इस तरह का विरोधाभास काफ़ी हैरान करने वाला है.
इसे समझने के लिए हाल ही में आईआईटी दिल्ली के छात्र-छात्राओं ने छोटे कारोबार चलाने वाले 700 लोगों से उनकी बिक्री और कमाई पर नोटबंदी के प्रभाव का सर्वे किया. सर्वे में यह भी पूछा गया कि उनकी राय में नोटबंदी अच्छा कदम है या बुरा. कारोबारियों से मिले जवाबों के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष को छह श्रेणियों में बांटा गया है.
पहला, कुछ लोगों के जवाब से यह स्पष्ट नहीं कि इसका क्या मतलब निकाला जाए. ऐसे लोगों को लगता है कि नोटबंदी अच्छी है या बुरी पूछे जाने पर अपनी सही राय न बताई जाए. ये वे लोग हैं जो साथ में यह भी कहते हैं कि ‘अगले चुनाव में बताएंगे.’
दूसरा, कुछ लोगों में राजनीतिक निष्ठा नज़र आती है. ऐसे लोग इस कदम का राजनीतिक तौर पर समर्थन कर रहे हैं (जिन्हें ‘भक्त’ कहा जा रहा है). इनका कहना है कि अगर मोदी ने कहा है कि यह देश के लिए अच्छा है तो किसी दूसरे सवाल की गुंजाइश नहीं है.
तीसरा, कई कारोबारी नोटबंदी से ख़ुद बुरी तरह से प्रभावित हैं लेकिन इसका समर्थन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे अमीरों को नुकसान हुआ है. नोटबंदी से अमीरों का ग़ुरूर टूटा है. इस प्रक्रिया ने उन्हें ज़मीन पर उतारने का काम किया है और अमीरों को मजबूर किया है कि वह ग़रीबों से इंसान की तरह पेश आएं (जैसे कि जब उन्हें बड़े नोटों को बदलने की ज़रूरत पड़ रही थी).
चौथा, कुछ ऐसे लोग भी मिले जो इस पर ज़्यादा दिमाग़ नहीं लगाना चाहते और चूंकि ‘सब’ कह रहे हैं कि यह अच्छा कदम है इसलिए वे भी यही कह रहे हैं. उनका सोचना है कौन बहस करेगा, कहीं पिटाई ना हो जाए. जब उनसे पूछा जाता है कि नोटबंदी से आने वाले समय में क्या फायदा होगा तो उनके पास कोई तर्क नहीं होता. इसमें ऐसे लोग शामिल हैं, जिनकी इस मुद्दे में इतनी रुचि नहीं है. शायद इस वजह से कि उनकी ज़िंदगी में और दूसरे कठिन सवाल मौजूद हैं.
पांचवां, कुछ लोग इसकी निंदा करने से इसलिए हिचकिचाते हैं क्योंकि उनका मानना है कि नोटबंदी की निंदा करना, भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी लड़ाई का विरोध करने के समान है. उनके दिमाग़ में यह बात है कि अगर इसकी निंदा करेंगे तो यह ऐसा मानने के समान है कि उनके खुद के पास ‘काला धन’ था और नोटबंदी से उनका नुकसान हुआ है.
ज़रूर आपके साथ भी ऐसा हुआ होगा कि किसी ने कभी कहा कि ‘नोटबंदी से देश 10 साल पिछड़ गया है’ और आपके मन में ख़याल आया कि ‘कहीं इनके पास काला धन तो नहीं था, जो बर्बाद हो गया?’
छठा, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो नोटबंदी के बारे में रुचि ले रहे हैं. अख़बार में आए लेखों को ध्यान से पढ़ रहे हैं और जब इनसे पूछा गया कि नोटबंदी क्यों अच्छा कदम है तो उनके पास कई तर्क होते हैं.
चिंताजनक यह है कि पूछने से पता चलता है कि दरअसल ये तर्क नहीं, कुतर्क हैं. गलत सूचना के आधार पर उन्होंने राय बनाई है. जैसे- उनका मानना है कि 500 और हज़ार रुपये के नोट हटा देने से काला धन ख़त्म हो जाएगा क्योंकि सारा काला धन नकद में रखा जाता है.
ऐसे लोगों को तथ्य, आंकड़े और अपने तर्क देने पर, वे ध्यान से सुनते हैं. अगर उन्हें बताया जाए कि आयकर विभाग के छापे में केवल छह प्रतिशत नकद मिला बाकी काला धन सोने और चांदी के ज़ेवरों के रूप में था तो वो अपनी धारणाओं पर सवाल उठाते हैं.
साधारण नागरिक अगर यह माने कि काला धन नकद में ही होता है, जिसे लोग अपनी अलमारी और तकियों में छिपाकर रखते हैं तो इसे समझा जा सकता है. लेकिन सरकारी तंत्र ऐसी बहकी बातें करे, यह समझना मुश्किल है.
बीते साल अपने आठ नवंबर के भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘ऐसा कौन सा ईमानदार नागरिक होगा जो सरकारी अफसरों के बिस्तर के नीचे मिले करोड़ों रुपये? या बोरियों से मिले नोटों जैसी ख़बरों से दुखी नहीं होता होगा.’
इस मामले में सरकार जान-बूझकर लोगों को बहका रही है. पहले ही दिन से सरकारी कहानी में खोट रही है. लोगों में यह भरोसा विकसित किया जा रहा है कि एक बार 500 और 1000 रुपये के नोट हटा देने से काला धन ख़त्म हो जाएगा. (जैसे- अपने भाषण में भी उन्होंने कहा था, काला धन ख़त्म करने के लिए हमने 500 और 1000 रुपये के नोट ख़त्म करने का निर्णय लिया है.)
‘नकद मतलब काला धन’ प्रधानमंत्री ने इस झूठी अवधारणा पर ज़ोर दिया है. जैसे- नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा किए गए धन को ख़राब यानी काला बताया गया. जापान में उन्होंने कहा, ‘अब वो बेटे भी जो अपनी मांओं को वृद्धाश्रम में छोड़ आए थे उनके खातों में ढाई लाख रुपये जमा कर रहे हैं.’
इस दौरान ग़लत दावे भी किए गए, जैसे- ज़्यादा नकद का भ्रष्टाचार से सीधा लिंक है और ग़लत तरीके से कमाए गए पैसों से महंगाई बढ़ती है. न उन्हें और न ही उनके सलाहकारों को यह अनुमान था कि इतनी बड़ी नकदी बाज़ार से हटा देने से देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचेगा.
लोगों में ग़लतफ़हमी पैदा करना कि नोटबंदी की निंदा करना भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी लड़ाई का विरोध करने के समान है, को सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के भाषणों से जोड़ा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर जब विपक्ष ने नोटबंदी पर जायज़ सवाल उठाए तो प्रधानमंत्री ने कहा,‘मैं देख रहा हूं कि सार्वजनिक जीवन में कुछ लोग भ्रष्टाचार और काले धन के समर्थन में भाषण दे रहे हैं.’
इसके अलावा नोटबंदी के संबंध में जब ग़लत तथ्य पकड़े जाने लगे तो सरकार बड़ी चतुराई से इसके लाभ गिनाने की कोशिश करने लगी. उदाहरण के तौर पर, नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि काफ़ी सारे नोट वापस नहीं आएंगे लेकिन जब लगभग सारे नोट बैंक में जमा हो गए तो कहा गया कि इससे आयकर विभाग को जांच करने में मदद मिलेगी.
सच तो यह है कि चाहे आयकर विभाग का छापा हो या फिर ‘लेस कैश’ हो, इनके लिए नोटबंदी की ज़रूरत नहीं थी.
अंत में तथ्य और लोगों की अवधारणाओं के बीच फ़र्क का कारण है सफल सरकारी प्रोपगेंडा और कमज़ोर विपक्ष. एक तरह से देखा जाए तो कहानी बदलने पर उन्हें विवश किया गया और यह तथ्यों की जीत है.
(रितिका खेड़ा आईआईटी दिल्ली में पढ़ाती हैं)
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए क्लिक करें