बीते वर्ष हनुमान जयंती-रामनवमी रैलियों में भड़की हिंसा में एक डरावनी समानता पाई गई: रिपोर्ट

बीते वर्ष अप्रैल में रामनवमी और हनुमान जयंती पर देश के विभिन्न राज्यों में सांप्रदायिक झड़प के मामले देखे गए थे. इस संबंध में ‘सिटीजंस एंड लॉयर्स इनिशिएटिव’ द्वारा द्वारा तैयार एक रिपोर्ट बताती है कि इन घटनाओं में समानताएं पाई गई हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा को अंजाम देने के लिए कैसे धार्मिक आयोजनों का इस्तेमाल किया गया.

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Raniganj: Police personnel patrol after a clashes and incidents of arson over Ram Navami procession at Raniganj in Burdwan district on Monday. PTI Photo (PTI3_26_2018_000115B)

बीते वर्ष अप्रैल में रामनवमी और हनुमान जयंती पर देश के विभिन्न राज्यों में सांप्रदायिक झड़प के मामले देखे गए थे. इस संबंध में ‘सिटीजंस एंड लॉयर्स इनिशिएटिव’ द्वारा द्वारा तैयार एक रिपोर्ट बताती है कि इन घटनाओं में समानताएं पाई गई हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा को अंजाम देने के लिए कैसे धार्मिक आयोजनों का इस्तेमाल किया गया.

वर्ष 2022 में रामनवमी जुलूस के दौरान हुए सांप्रदायिक टकराव की एक तस्वीर. (फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: अप्रैल 2022 में रामनवमी और हनुमान जयंती के दौरान सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में तेज उछाल पर ‘सिटीजंस एंड लॉयर्स इनिशिएटिव’ की एक विस्तृत रिपोर्ट में इस मामले में समानताएं पाई गई हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा को अंजाम देने के लिए कैसे धार्मिक आयोजनों का इस्तेमाल किया गया है. इन त्योहारों के अवसर पर मुस्लिम पूजा स्थलों या उनके घरों को निशाना बनाया गया था.

174 पन्नों की इस रिपोर्ट का शीर्षक ‘रूट्स ऑफ रैथ: वेपनाइजिंग रिलिजियस प्रोसेशंस’ है, जिसमें ‘उकसाने की प्रकृति’, ‘बहुसंख्यकों को लामबंद करने की रणनीति’ और ‘सामूहिक सजा के रूप में प्रशासनिक प्रतिक्रिया’ समेत व्यवस्थागत हिंसा के विभिन्न पहलुओं पर बात की गई है.

रिपोर्ट की प्रस्तावना को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन एफ. नरीमन और आरंभ एवं भूमिका को वरिष्ठ अधिवक्ता चंद्र उदय सिंह ने लिखा है, जिनमें कहा गया है कि पहले के दंगों से खासा सबक मिलने बावजूद राज्यों में धार्मिक जुलूस सबसे भीड़भाड़ वाले और संवेदनशील इलाकों से गुजरने की अनुमति दी गई.

रिपोर्ट शनिवार (25 मार्च) को जारी की गई.

सिंह ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है कि अप्रैल 2022 में भारत ने नौ राज्यों में सांप्रदयिक हिंसा देखी गई, साथ ही तीन अन्य राज्य मे उकसावे की घटनाएं और निम्न श्रेणी की हिंसा हुई. उन सभी में, हिंसा का उत्प्रेरक एक ही था: रामनवमी और हनुमान जयंती को मनाने वाले धार्मिक जुलूस, जिसके बाद मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों, व्यवसायों और पूजा स्थलों पर लक्षित हमले हुए.

रिपोर्ट मे बताया गया है कि संबंधित राज्यों – जिनमें मध्य प्रदेश, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान, झारखंड, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गोवा और पश्चिम बंगाल शामिल थे – में ऐसी घटनाओं में कम से कम 100 लोग घायल हुए थे.

रूट्स ऑफ रैथ रिपोर्ट का कवर.

रिपोर्ट में हर राज्य के लिए एक अध्याय समर्पित है और बताया गया है कि गुजरात, झारखंड और मध्य प्रदेश में एक-एक मौत हुईं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे कुछ राज्यों में ‘उकसाने के समान प्रयास देखे गए लेकिन निम्न-श्रेणी की हिंसा के साथ.’

सिंह ने लिखा है कि ‘राज्य प्रायोजित हिंसा ने दंगा प्रभावित क्षेत्रों में मुस्लिम परिवारों के विस्थापन का संकट भी पैदा किया, या तो उनके घर तोड़कर उन्हें बेघर कर दिया गया या फिर आगे सरकारी उत्पीड़न होने के डर से वे अपना घर छोड़कर भागने को मजबूर हो गए.’

घटनाओं के बीच ‘समानताओं’ में जाने पर और कैसे हिंसा भड़काई गई, इस संबंध में रिपोर्ट कहती है कि इस रिपोर्ट में शामिल सभी राज्यों में अप्रैल 2022 में रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूसों के बीच स्पष्ट और डरावने पैटर्न हैं. सभी में भगवाधारी पुरुष सामान्य से बड़े जमावड़े में एकजुट हुए, जिनके पास तलवारें, त्रिशूल और (कुछ मामलों में) बंदूक/पिस्तौल भी थे. वे जान-बूझकर ऐसे रास्तों पर निकले जो बड़ी मस्जिदों और मुस्लिम बहुल इलाकों में थे और हिंदू राष्ट्र बनाने के उकसाऊ नारे लगा रहे थे.

रिपोर्ट कहती है, ‘इनमें से कई जुलूस में ट्रकों में बड़े-बड़े डीजे पर तेज आवाज में मुस्लिम विरोधी संगीत बजाया जा रहा था.’

स्वतंत्रता-पूर्व भारत में भी इसी तरह की हिंसा देखी गई थी

यह रिपोर्ट स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता के बाद के भारत में सांप्रदायिक हिंसा का विस्तृत विवरण भी देती है, जो धार्मिक जुलूसों के ऐसे ही उकसावों के कारण हुई थीं.

रिपोर्ट की ‘भूमिका’ में वरिष्ठ अधिवक्ता चंद्र उदय सिंह ने लिखा है, ‘यह 1860 से होता हुआ प्रतीत होता है, जब थॉमस मैकाले के भारतीय दंड संहिता को लागू किया गया था. दंगा भड़काने के इरादे से उकसाने के लिए धारा 153 में छह महीने की कैद और उकसावे के कारण दंगा होने की स्थिति में एक साल की सजा का प्रावधान था.’

सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मार्गों पर जुलूसों के कारण विभिन्न दंगे हुए

सिंह पाते हैं कि ‘आजादी के बाद हमने भारत के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न राजनीतिक शासनों के तहत कई सांप्रदायिक दंगों का सामना किया है. इनमें से अधिकांश का कारण जुलूस निकालने वालों द्वारा जान-बूझकर सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मार्गों को चुनना और ऐसी मांगों से निपटने में पुलिस की कायरता या यहां तक कि ऐसे मार्गों की अनुमति देने में उनकी मिलीभगत और अनदेखी हैं.’

रिपोर्ट में इस तरह के दंगों के उदाहरणों का उल्लेख भी किया गया है. दक्षिण-पश्चिम महाराष्ट्र में सोलापुर के दंगों के मामले में एक जांच आयोग की 17 सितंबर, 1967 की रिपोर्ट में बताया गया, ‘1925 और 1927 में ‘रथ यात्रा’ के अवसर पर 1927 और 1966 में ‘गणपति विसर्जन जुलूस’ के संबंध में सांप्रदायिक उपद्रव हुआ और 1939 में आर्य समाज सत्याग्रह द्वारा निकाले गए एक जुलूस के दौरान आपत्तिजनक नारे लगाने के चलते चाकू मारने के 18 मामले सामने आए.’

नई दिल्ली के जहांगीरपुरी में अप्रैल 2022 में हनुमान जयंती जुलूस के दौरान दो समुदायों के बीच हुई झड़प के बाद तैनात सुरक्षाकर्मी. (फोटो: पीटीआई)

इसी तरह ‘मई 1970 में भिवंडी, जलगांव और महाड में सांप्रदायिक अशांति की जांच करने बने जांच आयोग’ ने कहा था कि भिवंडी में दंगे ‘विशाल शिव जयंती जुलूस में लाठियों से लैस लगभग 10,000 लोगों के शामिल होने का प्रत्यक्ष परिणाम थे, जिसमें निजामपुरा जामा मस्जिद से गुजरने वाले मार्ग पर निकलने के लिए जोर दिया गया.’

इन सांप्रदायिक दंगों में 78 लोगों की जान चली गई थी, जिनमें से 59 मुसलमान थे. इसी तरह जलगांव में हुई हिंसा में 43 लोगों की जान गई, जिनमें से 42 मुसलमान थे; जबकि महाड में किसी की जान नहीं गई.

‘मस्जिदों के सामने रुकना, भड़काऊ और मुस्लिम विरोधी नारे लगाना’ 

बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश डीपी मदोन ने पाया था, ‘1963 भिवंडी के सांप्रदायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण वर्ष था, क्योंकि उस समय हिंदुओं ने जुलूस निकालना शुरू किया था, जो मस्जिद के पास से गुजरते समय संगीत बजाना बंद नहीं करते थे.’

उन्होंने पाया था, ‘1964 वह वर्ष था जब शिव जयंती जुलूस ने मस्जिदों के सामने रुकने, भड़काऊ और मुस्लिम विरोधी नारे लगाने और अत्यधिक ‘गुलाल’ फेंकने की प्रथा शुरू की गई थी.’

जस्टिस मदोन ने पाया था, ‘भिवंडी अशांति का तत्काल या निकटवर्ती कारण 7 मई 1970 को भिवंडी में निकाले गए शिव जयंती जुलूस में शामिल लोगों का मुस्लिमों को भड़काने के लिए जान-बूझकर किया गया दुर्व्यवहार था.’

रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी तरह 1979 में जमशेदपुर हिंसा से पहले, आरएसएस/विहिप ने 1978 में साबिरनगर के रास्ते रामनवमी का जुलूस निकालने पर जोर दिया था, जो भीड़भाड़ वाला मुस्लिम इलाका था.

इस दौरान वहां पत्थरबाजी हुई, जिसके बाद जुलूस में शामिल 15,000 लोगों द्वारा दंगा और आगजनी की गई. जिसके कारण पूरे जमशेदपुर में आग भड़क गई और 108 लोगों की मौत हुई, जिनमें 79 मुस्लिम और 25 हिंदू शामिल थे.

1989 की कोटा और भागलपुर हिंसा से सबक नहीं लिया

रिपोर्ट में उल्लेख है कि ऐसा ही कुछ राजस्थान के कोटा में 1989 में अनंत चतुर्दशी के दौरान निकले गणेश विसर्जन जुलूस के दौरान देखा गया, जिसे जान-बूझकर एक भीड़भाड़ वाले मुस्लिम इलाके से निकाला गया और एक बड़ी मस्जिद के पास रोका गया. जहां जुलूस में शामिल लोगों ने सांप्रदायिक नारे लगाए और मुस्लिमों को गालियां दीं.

इसके बाद हुई हिंसा में 16 मुस्लिम और 4 हिंदू मारे गए, जबकि हजारों मुस्लिम रेहड़ी-पटरी वालों और व्यापारियों के कारोबार जला दिए गए.

पश्चिम बंगाल के बर्धवान जिले के रानीगंज में मार्च 2018 में रामनवमी के जुलूस को लेकर हुई झड़प और आगजनी की घटनाओं के बाद गश्त करते पुलिस के जवान. (फाइल फोटो: पीटीआई)

राजस्थान आयोग के एक जज की अध्यक्षता में गठित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसके लिए जुलूस में शामिल लोगों को जिम्मेदार ठहराया था, जिनके उकसावे पर मुस्लिम समुदाय ने भी प्रतिक्रिया दी.

रिपोर्ट 1989 की भागलपुर हिंसा का भी जिक्र करती है जो रामशिला जुलूस के बाद हुई थी. इसमें कहा गया है कि जुलूस को अनुमति प्राप्त मार्ग के बजाय भीड़भाड़ वाले मुस्लिम इलाके ततरपुर से ले जाया गया, जिसमें राम मंदिर निर्माण के लिए ईंटें (शिला) ले जाई गईं.

हिंसा में 900 मुसलमानों की जान जाने का दावा किया गया. हिंसा के बाद पटना हाईकोर्ट के तीन सेवानिवृत्त जजों के जांच आयोग ने पाया कि भागलपुर में 1989 से करीब एक साल पहले से ही रामशिला जुलूस को लेकर तनाव था, फिर भी पुलिस और प्रशासन ने तय मार्ग से इतर ततरपुर से जुलूस निकालने की अनुमति दी.

‘चुनावी लोकतंत्र के रूप में नीचे जाता भारत’

रिपोर्ट की प्रस्तावना में जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी (वी-डेम) 2023 की वार्षिक रिपोर्ट के हवाले से भारत में लोकतंत्र की स्थिति की बात की है.

उनका कहना है, ‘जब भारत की बात आती है तो रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 1972 से वर्ष 2020 की अवधि में – वर्ष 1975 और 1976 को छोड़कर, जब देश में आपातकाल घोषित किया गया था – और वर्ष 2015 और 2020 में भारत चुनावी लोकतंत्रों (Electoral Democracies) के दूसरे समूह से संबंधित था. गौरतलब है कि हाल के वर्षों में भारत चुनावी निरंकुशता के तीसरे समूह में फिसल गया है.’

उन्होंने कहा, ‘एक अन्य ग्राफ से पता चलता है कि जहां तक लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल है, वर्ष 2012 से 2022 तक वे निरंतर नीचे की ओर जा रहे हैं. साथ ही अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक से पता चलता है कि इन वर्षों के दौरान सोचने और लिखने की स्वतंत्रता में भारी गिरावट आई है.’

पुलिस को संवेदनशील बनाने की ज़रूरत

रिपोर्ट में साथ ही कहा गया है कि पुलिस को संवेदनशील बनाने की जरूरत है और उन्हें बताने की जरूरत है कि भारत में रहने वाले मुसलमान भी भारतीय हैं.

जस्टिस नरीमन कहते हैं कि यह पता चलता है कि इस देश के नौ राज्यों में, अप्रैल 2022 में रामनवमी और हनुमान जयंती समारोह के दौरान गुंडागर्दी और हिंसा की व्यापक घटनाएं हुई थीं.

भारत के संविधान की प्रस्तावना और मौलिक कर्तव्यों के अध्याय की बात करते हुए वे कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि भारत के सभी राज्यों में पुलिस बल को नागिरकों के इन संवैधानिक मूल्यों और मौलिक कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील बनाना प्राथमिक महत्व का काम है. ऐसा उन्हें पहले यह बताकर किया जा सकता है कि भारत में रहने वाले मुसलमान भारतीय हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘एक बार जब सभी राज्यों में पुलिस बल में इस बुनियादी तथ्य को समाहित कर दिया जाए, तो चीजें बहुत बेहतर हो सकती हैं. साथ ही, सभी राज्यों में पुलिस के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए.’

आप रूट्स ऑफ रैथ  नामक पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं.

Routes of Wrath Report 2023 by Taniya Roy

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.