राहुल गांधी का चीनी घुसपैठ और अडानी विवाद को उठाना भाजपा की सबसे बड़ी ताक़तों- राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार मुक्त छवि- पर चोट करता है. पहली बार है, जब भाजपा ने राहुल के हमलों के जवाब में ‘पप्पू’ कहकर मज़ाक नहीं बनाया. महीनेभर में राहुल को जिस तरह से घेरा गया, वह दिखाता है कि यह बौखलाई हुई है.
नई दिल्ली: लोकसभा सचिवालय ने जिस तत्परता से एक आपराधिक मानहानि के मामले में राहुल गांधी को दोषी करार दिए जाने के 24 घंटे के भीतर उनकी सदस्यता समाप्त करने की कार्रवाई की, उसने सिर्फ इस धारणा को दृढ़ किया है कि वायनाड के सांसद को दी गई सजा राजनीति से प्रेरित है.
संविधान का अनुच्छेद 103 साफतौर पर कहता है कि किसी सांसद की अयोग्यता का आदेश राष्ट्रपति द्वारा भारत के चुनाव आयोग से सलाह-मशविरे के बाद दिया जाएगा. सामान्य हालात में इस प्रक्रिया में शामिल औपचारिकताओं को पूरा करने मेंकई हफ्तों का न सही, कई दिनों का समय तो लगता है.
लेकिन राहुल गांधी का मामला खास है. भारत के सबसे बड़े विपक्षी दल के सबसे बड़े नेता को उस एकतरफा कार्रवाई का एहसास कराना जरूरी था, जो नरेंद्र मोदी सरकार की पहचान बन चुकी है.
कांग्रेस ने कहा है कि यह राहुल गांधी की दोषसिद्धि और अयोग्यता पर कोर्ट में लड़ाई लड़ेगी, लेकिन ऐसा लगता है कि इस घटनाक्रम ने एक लस्त-पस्त पार्टी में सड़क की लड़ाई लड़ने की ऊर्जा का संचार कर दिया है. इसमें कोई शक नहीं है कि 2024 के लोकसभा के चुनावी समर का नेतृत्व खुद राहुल गांधी ही करेंगे.
2014 के बाद कांग्रेस द्वारा चलाया गया सबसे बड़ा राजनीतिक कार्यक्रम भारत जोड़ो यात्रा था, जिसका नेतृत्व राहुल गांधी ने किया था. तब से वे काफी आक्रामक अंदाज में नजर आए हैं और वे मोदी सरकार की दो कमजोर नसों- राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार पर सतत तरीके से हमला कर रहे हैं.
अपने सभी भाषणों और संवादों में वे भारत की सीमा के भीतर लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में चीनी घुसपैठ को लेकर मोदी सरकार को घेर रहे हैं. इसी तरह से वे पिछले कुछ सालों में हुई अडानी समूह की नाटकीय बढ़ोतरी में कथित तौर पर सहयोग के लिए प्रधानमंत्री पर बरस रहे हैं. इसने कहीं न कहीं भाजपा को नाराज कर दिया है.
ये दोनों ही मुद्दे भाजपा की कमजोर नस हैं. 2014 से अब तक कभी भी नोटबंदी से लेकर जीएसटी के खराब क्रियान्वयन या यहां तक कि अभूतपूर्व महंगाई और बेरोजगारी जैसे मसलों ने भी भाजपा को परेशान नहीं किया है. मजेदार यह भी है कि हिंदुत्व और अधिनायकवाद की राह पर चलने वाली पार्टी होने के बावजूद यह खुद को एक भविष्य की ओर देखने वाली पार्टी के तौर पर पेश कर सकती है.
लेकिन चीनी घुसपैठ और अडानी विवाद भाजपा की सबसे बड़ी ताकतों- राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार मुक्त दामन- पर चोट करता है. विपक्ष इन मुद्दों पर ऐसे समय में बात कर रहा है, जब प्रधानमंत्री को एक ऐसे ‘स्टेट्समैन’ के तौर पर पेश किया जा रहा है, जिनकी लोकप्रियता भारत की सीमाओं से बाहर है, जो ‘लोकतंत्र के जनक’ भारत का पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं और जो अंतरराष्ट्रीय संघर्षों और गतिरोधों का समाधान करने में सक्षम वैश्विक नेता हैं. इसमें निश्चित तौर पर लोकसभा चुनावों की भाजपा की तैयारियों को नुकसान पहुंचाने की क्षमता है.
लेकिन पिछले एक महीने के दौरान राहुल गांधी को जिस तरह से परेशान किया जा रहा है, वह भाजपा के एक दूसरे ही पहलू को दिखाता है. यह बौखलाई हुई सी दिख रही है.
सबसे पहले, अडानी विवाद और कथित तौर पर उन्हें फायदा पहुंचाने को लेकर लोकसभा में दिए गए उनके भाषण के कई अंशों को रिकॉर्ड से बाहर कर दिया गया. इसके बाद भाजपा ने इंग्लैंड में राहुल गांधी द्वारा की गई टिप्पणियों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और फिर उन टिप्पणियों के लिए उनसे माफी की मांग करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी.
इससे पहले शायद ही कभी संसद में विपक्ष का कोई सदस्य सत्ताधारी दल के इस तरह के हमले का शिकार हुआ है. गांधी को माफी मांगे बिना लोकसभा में बोलने भी नहीं दिया गया. यह सियासी रस्साकशी इस सीमा तक पहुंच गई कि सत्ताधारी पक्ष ने संसदीय कार्यवाही का सामान्य तरीके से चलने नहीं दिया और लगभग हर दिन संसद को बाधित किया गया जिसके कारण इसे बार-बार स्थगित करना पड़ा और आखिरकार बजट को बिना चर्चा के पारित कर दिया गया.
फिर सीजेएम कोर्ट की सजा आई जिसके बाद आनन-फानन में राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त कर दी गई. यह पहली मर्तबा है, जब राहुल गांधी के हमलों के जवाब में उनका ‘पप्पू’ कहकर मजाक नहीं बनाया गया. राहुल गांधी पर एकाग्र हमला और आखिरकार उनकी अयोग्यता, जबकि 16 विपक्षी पार्टियां अडानी समूह और मोदी सरकार की कथित मिलीभगत पर एक संयुक्त संसंदीय जांच (जेपीसी) की मांग कर रही थीं, यह दर्शाता है कि भगवा खेमे द्वारा राहुल गांधी को खारिज करने का अभियान भी उन्हें मोदी को गंभीर चुनौती देने वाले के तौर पर उभरने से रोकने की कोशिश का हिस्सा था.
अपने सभी भाषणों में मोदी ने कभी भी किसी दूसरे विपक्षी दल को नहीं सिर्फ कांग्रेस पर निशाना बनाया है. उन्हें यह बात भली-भांति मालूम है कि सिर्फ कांग्रेस ही है जिसका लोकसभा की 250 से ज्यादा सीटों पर भाजपा से सीधा मुकाबला है और सिर्फ यही भाजपा सरकार को गंभीर चुनौती दे सकती है.
राहुल गांधी को चुप कराने की कोशिश करके भाजपा ने भारत के लोकतंत्र के खतरे में होने और मोदी सरकार की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के चलते सार्वजनिक संस्थानों के कमजोर होने के राहुल गांधी के बयान को वैधता देने का काम किया है. जिस तरह से भाजपा राहुल गांधी के खिलाफ गैरआनुपतिक और असमय आक्रमण कर रही है, उसे देखते हुए आखिरकार यह कहा जा सकता है कि भारत जोड़ो यात्रा सफल रही.
राहुल गांधी को दी गई सजा और संसद सदस्यता से उनकी अयोग्यता को उनकी और उनकी पार्टी, दोनों के लिए ही एक छिपा हुआ वरदान कहा जा सकता है. आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में एक भावनात्मक और वास्तविक मसले पर अपना चुनाव अभियान चला सकती है और एक गंभीर विकल्प के तौर पर उभर सकती है.
राहुल गांधी को दी गई गैर आनुपातिक सजा ने पार्टी को एक हथियार थमाने का काम किया है. कांग्रेस को अब मतदाताओं को उत्साहित और आकर्षित करने और एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरने के लिए बस एक वैकल्पिक राजनीतिक और आर्थिक नजरिया पेश करने की जरूरत है.
गांधी की अयोग्यता पर कांग्रेस को ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, वायएसआर रेड्डी समेत कई विपक्षी दलों के नेताओं का बिना शर्त समर्थन मिला है. ये सारे दल केंद्र के राजनीतिक दबाव का सामना कर रहे हैं. विभिन्न मसलों पर विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने के लिए यह कांग्रेस के पास सुनहरा अवसर है. ये पार्टियां भले चुनावों में एक संयुक्त मोर्चा न बना पाएं, लेकिन बढ़ रहे अधिनायकवाद, महंगाई, बेरोजगारी, विपक्षी नेताओं को निशाना बनाए जाने और सामाजिक सौहार्द का बिगड़ने जैसे मसले विपक्षी दलों को एक नैरेटिव तैयार करने में मददगार साबित हो सकते हैं.
ऐसी संभावनाओं से पूरी तरह से वाकिफ भाजपा ने पहले ही यह कहना शुरू कर दिया है कि कोलार में दिया गया राहुल गांधी का भाषण जिसमें उन्होंने ललित मोदी, नीरव मोदी पहला हमला किया था और उनकी तुलना प्रधानमंत्री से की थी, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदायों का अपमान करने वाला था- और उस बयान के लिए उन्हें दी गई सजा बिल्कुल वाजिब है. किसी और ने नहीं, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राहुल गांधी को संसद की सदस्यता से अयोग्य किए जाने के दिन यह नैरेटिव पेश किया, जब विभिन्न तबकों से राहुल गांधी को सहानुभूति और समर्थन मिल रहा था.
राहुल गांधी इस समय निश्चित तौर पर कमजोर प्रतिद्वंद्वी (अंडरडॉग) हैं. उनकी संसद सदस्यता खत्म करने की कार्रवाई यह दिखाती है कि मोदी सरकार चुनावों में जीत हासिल करने और भगवा प्रभुत्व कायम करने के अपने एजेंडा के तहत संस्थाओं और सबको समान अवसर का रत्ती भर भी सम्मान नहीं करती है.
यह संदेश कि किसी भी विरोध का अपराधीकरण किया जाएगा और यह मायने नहीं रखता है कि यह विरोध एक पत्रकार द्वारा किया जा रहा है, किसी छात्र द्वारा या यहां तक कि देश के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक नेताओं में से एक के द्वारा- अब शीशे की तरह साफ हो गया है. मतभेदों के बावजूद विपक्षी पार्टियों द्वारा राहुल गांधी को दिया गया समर्थन भारत के मौजूदा राजनीतिक ध्रुवीकरण को पुख्ता तरीके से स्थापित करता है.
राहुल गांधी के ट्वीट्स और बयानों को देखें तो उन्होंने लड़ने का जज्बा दिखाया है. उनकी पार्टी के नेताओं ने भी दबाव के सामने न झुककर ऐसे ही साहस का इजहार किया है. राहुल गांधी खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं, जिन्हें सत्ता से कोई खास प्यार नहीं है- एक साधु जैसे कोई अनासक्त नेता, जो भारत की विविधता और इसके लोगों की रक्षा करने की लड़ाई लड़ एकता है.
पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अपना नैतिक संकल्प दिखाया है. यह सही समय है जब वे अपने व्यक्तित्व के इस पक्ष को लोगों तक लेकर जाएं, इस संभावना को नजरअंदाज करते हुए कि उन्हें अगला लोकसभा चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जा सकता है.
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