संघ और भाजपा द्वारा संचालित आज की रामनवमी में आस्था नहीं बल्कि आक्रोश है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा ने पहले राम का नाम लेकर, उनकी जन्मभूमि को आधार बनाकर अपनी पकड़ मजबूत की, और फिर राजनीतिक सत्ता पाई. अब रामनवमी उसी सत्ता का शक्ति-प्रदर्शन मात्र बनकर रह गई है.

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(फाइल फोटो: शोम बासु)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा ने पहले राम का नाम लेकर, उनकी जन्मभूमि को आधार बनाकर अपनी पकड़ मजबूत की, और फिर राजनीतिक सत्ता पाई. अब रामनवमी उसी सत्ता का शक्ति-प्रदर्शन मात्र बनकर रह गई है.

(फाइल फोटो: शोम बासु)

रामनवमी फिर आई है. हर साल की तरह. रामनवमी यानी राम के जन्म का दिन. तात्पर्य यह कि ऐसा नहीं है कि रामनवमी की तिथि को राम ने जन्म लिया था और आज रामनवमी है तो उस की वर्षगांठ (जैसे सामान्य लोग दसवीं या पचासवीं वर्षगांठ मनाते हैं.) मनाई जा रही है बल्कि रामनवमी के दिन राम जन्म लेते हैं. ऐसा इसलिए कि पारंपरिक हिंदू मान्यता यह कहती है यह दिन राम का जन्मदिन (यानी त्रेता युग की कोई तारीख) नहीं है बल्कि राम इसी दिन (हर साल) जन्म लेते हैं. और यह हर वर्ष रामनवमी के दिन होता है. श्रीकृष्ण के जन्म से संबंधित ‘जन्माष्टमी’ में भी यही बात है.

वैसे तो ये दोनों ‘व्रत’ हैं लेकिन ‘पर्व’ के रूप में मनाए जाते हैं इसलिए इन दोनों व्रतों में उल्लास का स्वाभाविक वातावरण जुड़ा हुआ है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से रामनवमी को एक विचित्र तरह के पर्व में बदल दिया गया है. पिछले कुछ वर्षों से रामनवमी के दिन या उसकी पूर्व-संध्या पर किए जा रहे क्रियाकलापों पर विचार किया जाए तो यह लगता है कि यह पर्व धीरे-धीरे आस्था, उल्लास, भक्ति एवं सामाजिक साझेदारी से दूर होता हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के शक्ति-प्रदर्शन में बदल गया है.

रामनवमी एक तरह से ऐसा मापक-यंत्र हो गया है जिस से हम यह जान सकते हैं कि हिंदू समाज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की गिरफ़्त कितनी मजबूत होती जा रही है!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदा से यह इच्छा रही है कि उसे हिंदू धर्म तथा हिंदू समाज का एकमात्र प्रतिनिधि मान लिया जाए और वह जो बताए या करे उसे ही हिंदू धर्म एवं हिंदू समाज का सर्व-स्वीकृत मत समझा जाए. इसके लिए ‘संघ’ की क्रियाएं बहुत पुरानी हैं यानी अपने स्थापना-समय (1925) से ही वह ऐसी गतिविधियां चलाता रहा है लेकिन इस प्रक्रिया में तेजी ‘रामजन्मभूमि आंदोलन’ (1989) के समय से आई.

फिर 2014 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय स्तर पर सरकार बनने के बाद अचानक ही बड़ी तेजी से ‘संघ’ ने अपना विस्तार करना शुरू किया. गांव-गांव तक बल्कि कहना चाहिए कि घर-घर तक ‘संघ’ ने पहुंच बनानी शुरू की. इसके लिए इंटरनेट का जबरदस्त इस्तेमाल किया गया. ‘वीडियो’, ‘मीम्स’, ‘रील्स’ जैसे अद्यतन माध्यमों का भरपूर सहारा लिया गया और अब भी लिया जा रहा है.

इन सबसे यह स्पष्ट है कि पहले राम का नाम लेकर और उनकी जन्मभूमि को आधार बनाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पकड़ मजबूत की, फिर राजनीतिक सत्ता प्राप्त की और अब रामनवमी उसी सत्ता का शक्ति-प्रदर्शन मात्र बनकर रह गई है. यह सब बहुत महीन तरीक़े से हुआ या किया जाता है. तात्पर्य यह कि संघ तथा भारतीय जनता पार्टी साधारण हिंदू जनता को यह समझाने में पूरी तरह कामयाब हो चुके हैं कि ‘हिंदुत्व’ ही असली ‘हिंदू धर्म’ है.

ऊपर यह संकेत किया गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी महीन तरीक़े से काम करते हैं. रामनवमी के उदाहरण से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है. बिहार के गया जैसे शहर में यदि रेलवे स्टेशन पर देवी का मंदिर है तो उस पर रामनवमी का भगवा झंडा लगा दिया जाता है.

एक महीन तरीक़ा तो यही हो गया कि रामनवमी के झंडे, जिसे ‘महावीरी झंडा’ कहा जाता है और जो लाल हुआ करता था, उसे बड़ी ही सफाई से ‘भगवा’ में बदल दिया गया. ज़ाहिर है कि देवी के मंदिर पर रामनवमी के झंडे का कोई तुक नहीं है. और यह ऐसा नहीं है कि यह एक व्यक्ति या संस्था की बेवकूफ़ी का परिणाम है.

ऐसी ही स्थिति रामनवमी के समय गांव के ‘देवी-स्थान’ में भी दिखाई देती है. वहां भी देवी मंदिर के ऊपर रामनवमी का ‘भगवा झंडा’ लगा दिया जाता है. इतना ही नहीं पिछले दो वर्षों से पटना-गया जैसे शहर के हिंदू-बहुल मुहल्लों में लगभग हर घर पर यह ‘भगवा झंडा’ लगाया जाना शुरू किया गया है. बाज़ार को भगवा झंडों से पाट दिया जाता है.

फिर इसके बाद तलवारों की व्यापक बिक्री शुरू की गई. कोई भी आस्थावान हिंदू यह समझ सकता है कि राम से जिस शस्त्र की पहचान जुड़ी है वह धनुष-बाण है न कि तलवार! यहां हिंदी के रामभक्त कवि तुलसीदास के जीवन से जुड़ी किंवदंती याद की जा सकती है कि जब वे कृष्ण भक्त कवि नंददास से मिलने वृंदावन गए तो वहां स्वभावतः कृष्ण की मूर्ति थी. तब कृष्ण-मूर्ति के सामने तुलसीदास ने यह दोहा कहा:

का बरणों छबि आज कौ, भले बने हो नाथ.
तुलसी मस्तक तब नवै, धनुष बान ल्यौ हाथ.

कहा जाता है कि फिर कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति में बदल गई थी. यहां यह भी ठहरकर विचार किया जा सकता है कि संघ और भारतीय जनता पार्टी ने हिंदू धर्म के अनेक देवी-देवताओं में से राम को ही अपने हितों की पूर्ति के लिए क्यों चुना?

इसका उत्तर वाल्मीकि की रामकथा पढ़ने से मिल सकता है. वाल्मीकि रामायण में रामकथा से जुड़े ऐसे कई ऐसे प्रसंग हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के क्रिया-कलापों को वैचारिक आधार प्रदान करते हैं. उदाहरण के लिए राम  की स्थापना के लिए हैं, राम ब्राह्मणों और गो की रक्षा के लिए हैं. अकारण ही कई राक्षसों की हत्या कर देते हैं जिसे सही ठहराने के लिए उस की  ‘मुक्ति’ या ‘मोक्ष’ का प्रसंग जोड़ दिया जाता है.

इन सभी बातों को कुछ नवीन प्रसंगों की उद्भावना कर तुलसीदास ने अपने ‘रामचरितमानस’ में अपनी सशक्त कवित्व-शक्ति के सहारे लोकभाषा अवधी में प्रस्तुत किया जिस का प्रचार वाल्मीकि के रामायण से भी अधिक हुआ. इन सबके साथ यह ‘महीन’ बात भी ध्यान में रखने की है कि संघ और भारतीय जनता पार्टी ने राम का वही हिस्सा लिया है जो उसे उस के हितों की पूर्ति के लिए सहयोगी लगे.

मतलब यह कि राम का भी उग्र रूप ही लिया गया न कि उनकी करुणा, उदारता या शांति से जुड़ा कोई रूप. इसीलिए ‘रामजन्मभूमि आंदोलन’ के समय से आज तक राम के जो चित्र संघ और भाजपा के कार्यक्रमों में दिखाई देते हैं उन में राम उग्र रूप में धनुष-बाण संधान करते दिखाई पड़ते है. स्पष्ट है कि राम का उग्र रूप चित्रों पर और जनता को उग्रता-प्रदर्शन के लिए तलवारों की बिक्री!

तलवारों की बिक्री के बाद सबसे अधिक इंटरनेट और ‘वीडियो’, ‘मीम्स’, ‘रील्स’ एवं संगीत का इस्तेमाल किया जाता है. उदाहरण के लिए ‘भगवाधारी’ गाना जो इधर कुछ वर्षों से रामनवमी में सर्वाधिक बजता है उस की पंक्तियां देखिए:

श्रीराम जी का परचम लहरा के
आए हैं भगवाधारी
अरे दुश्मन की लंका लगा के
आए हैं भगवाधारी!

गाने की आरंभिक दो पंक्तियों से स्पष्ट है कि ये राम केवल और केवल संघ एवं भाजपा के राम हैं जिस का पारंपरिक राम से कोई लेना-देना नहीं है. यही ‘महीन’ तरीक़ा है. इसमें हो यही रहा है कि राम का नाम लेकर धीरे-से ‘भगवाधारी’ शब्द तथा विचार को पैवस्त कर दिया जा रहा है ताकि अपने हितों के अनुरूप जनता की चेतना निर्मित हो सके.

इतना नहीं आसानी से यह भी समझा जा सकता है कि ‘टेक’ की तरह दोहराई जाने वाली ये पंक्तियां अपनी व्यंजना में किस तरह का अर्थ प्रकट कर रही हैं! ‘दुश्मन की लंका’ का यहां तात्पर्य बतलाने की आवश्यकता ही नहीं है. सुनने वाले को यह साफ़ समझ में आता है. वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का एक धड़ा हिंदी को अरबी-फ़ारसी शब्दों से मुक्त कराने की मुहिम चलाता रहता है लेकिन ऊपर के गाने में ‘परचम’ शब्द, जो फ़ारसी है, से कोई दिक़्क़त उन को नहीं है क्योंकि यह उन के हितों की पूर्ति में सहयोगी है.

भाषा को लेकर इतना ज़हर फैलाया जा रहा है कि एक ‘मीम्स’ में देखा गया कि सवाल यह पूछा जा रहा है कि ‘‘गुनाहों का देवता’ क्यों होता है, ‘गुनाहों का ख़ुदा’ क्यों नहीं होता और ‘हवस का पुजारी’ क्यों होता है ‘हवस का मौलाना’ क्यों नहीं होता?’

रामनवमी के दिन पूरी तैयारी से ‘शोभायात्रा’ निकाली जाती है. ‘शोभायात्रा’ में तेज गति से सड़क को रौंदते हुए मोटरसाइकिल के जत्थे गुजरते हैं. ‘शोभायात्रा’ भी जिन ‘समितियों’ या ‘संघ’ के ‘बैनर’ तले निकाली जाती है उन के नाम में आप को ‘हिंदू’, ‘जागरण’ आदि शब्द अवश्य मिलेंगे. ‘शोभायात्रा’ के दौरान मुसलमानों के मोहल्लों के सामने आक्रामक गाने देर तक बजाए जाते हैं. रामनवमी का पर्व यहां उल्लास या निमंत्रण का नहीं बल्कि ‘चिढ़ाने’ में बदल जाता है.

इन सभी प्रक्रियाओं से साफ-साफ पता चलता है कि संघ और भाजपा द्वारा संचालित आज की रामनवमी में आस्था नहीं बल्कि आक्रोश है. भक्ति या श्रद्धा नहीं शक्ति-प्रदर्शन है. करुणा नहीं क्रोध है.

सीधे-सीधे कहा जाए तो कहा जा सकता है कि आज की रामनवमी हिंदू धर्म एवं समाज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के क़ब्ज़े का प्रमाण है. दुखद यही है कि हिंदू अपने धर्म और समाज को संघ और भाजपा के क़ब्ज़े में छटपटाते महसूस नहीं कर रहे बल्कि उन्हें यह ‘विजय-रथ’ की तरह लग रहा है. वस्तुतः हिंदू धर्म और समाज के लिए यह पराजय की घड़ी है.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)