ग्रेट निकोबार द्वीप में 72,000 करोड़ रुपये की मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना के लिए दी गई वन और पर्यावरण मंज़ूरी में हस्तक्षेप करने से राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने इनकार कर दिया है. परियोजना के विरोध में पर्यावरणविदों का कहना है कि यह स्थानीय समुदायों को प्रभावित करेगी और द्वीप की नाज़ुक पारिस्थितिकी एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाएगी.
कोच्चि: भारत की सर्वोच्च हरित अदालत राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने फैसला सुनाया है कि वह भारत के ग्रेट निकोबार द्वीप (अंडमान निकाबार द्वीप समूह में शामिल) में 72,000 करोड़ रुपये की मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना के लिए दी गई वन और पर्यावरण मंजूरी में ‘हस्तक्षेप’ नहीं करेगी.
गौरतलब है कि इस परियोजना के विरोध में पर्यावरण संरक्षणवादियों का कहना है कि यह स्वदेशी समुदायों को प्रभावित करेगी और द्वीप की नाजुक पारिस्थितिकी एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाएगी.
इस परियोजना में ग्रेट निकोबार द्वीप की 16,610 हेक्टेयर भूमि पर एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल (आईसीटीटी), एक ग्रीनफील्ड अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक टाउनशिप और 450 एमवीए गैस और सौर-आधारित बिजली संयंत्र आदि विकसित करना शामिल है.
इन विकास परियोजनाओं के निर्माण के लिए 130 वर्ग किलोमीटर जंगल को परिवर्तित करना भी शामिल है. यह द्वीप पर रहने वाले स्वदेशी शोम्पेन और निकोबारी समुदायों को भी प्रभावित करेगा.
एनजीटी ने कहा कि मौजूदा पर्यावरण मंजूरी दो महीने के लिए रोक दी गई है, जब तक कि उसके द्वारा नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) परियोजना की कुछ ‘अनुत्तरित कमियों’ को दूर करने के लिए उनका ‘पुनर्वालोकन’ नहीं कर लेती.
हालांकि, पर्यावरण कार्यकर्ता कई कारणों से हरित न्यायालय के रुख से निराश हैं, जिनमें यह तथ्य भी शामिल है कि एनजीटी की प्रस्तावित एचपीसी में वे सरकारी और अन्य प्रतिनिधि शामिल हैं, जो पहले ही परियोजना को समर्थन दे चुके हैं.
एक बड़ी परियोजना, विवाद और मंजूरी
बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के दक्षिणी भाग में स्थित ग्रेट निकोबार द्वीप पर मंजूर इस परियोजना ने कई बार विवाद खड़ा किया है.
जनवरी 2021 में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने वहां बंदरगाह की अनुमति देने के लिए पूरे गलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य को डिनोटिफाई कर दिया था.
द वायर साइंस ने जनवरी 2022 में परियोजना के लिए किए गए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) में कमियां बताई थीं और बताया था कि कैसे द्वीप की जैव विविधता के बारे में मौजूदा जानकारी को नजरअंदाज कर दिया गया.
3 अप्रैल के अपने आदेश में खंडपीठ ने मेगा परियोजना के लिए 130 वर्ग किलोमीटर जंगल के डायवर्जन के संबंध में एक व्यक्ति और एनजीओ द्वारा दायर अपीलों पर प्रतिक्रिया दी और कहा कि वन मंजूरी में लोगों (परियोजना से प्रभावित शोम्पेन और निकोबारी समुदाय) और जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया. हालांकि,पीठ ने परियोजना को दी गई वन और पर्यावरण मंजूरी में ‘हस्तक्षेप’ करने से इनकार कर दिया.
पीठ ने कहा, ‘इस परियोजना का न केवल द्वीप के आर्थिक विकास और रणनीतिक क्षेत्रों के लिए बहुत महत्व है, बल्कि रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी यह महत्वपूर्ण है.’ इसने आगे कहा कि परियोजना द्वीप में ‘अवसंरचनात्मक अंतर’ को पाटने में मदद करेगी और ‘ट्रांसशिपमेंट कार्गों पर भारी राशि बचाते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देगी’.
पीठ ने कहा कि हालांकि ‘वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से निपटने में वनों का बहुत महत्व है, लेकिन विकास को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.’ इसलिए वन मंजूरी में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिलता है.
पीठ ने परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी के संबंध में भी इसी तरह का रुख अपनाया.
पीठ के अनुसार, प्रतिवादी- केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय- द्वीप तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना 2019 (आईसीआरजेड 2019) और आदिवासी अधिकारों का ‘अनुपालन करने के लिए प्रतिबद्ध’ है.
पीठ ने कहा, ‘उन्होंने प्रतिपूरक वनीकरण और मैंग्रोव वृक्षारोपण की भी योजना बनाई है. इस प्रकार परियोजना ठीक है और पर्यावरणीय मंजूरी में हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है.’
पीठ ने कहा, विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए देश की जरूरत के बारे में जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करने वाले ‘अति तकनीकी दृष्टिकोण’ को अपनाने की जरूरत नहीं है.
साथ ही कहा, ‘हर विकासात्मक गतिविधि का पर्यावरण पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है, लेकिन अगर प्रभाव को कम किया जा सकता है और समाज को अधिक लाभ होता है तो ऐसी परियोजनाओं को बड़े सार्वजनिक हित में अनुमति दी जानी चाहिए.’
‘अनुत्तरित खामियों’ को दूर करना
हालांकि, जस्टिस (सेवानिवृत्त) आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि ग्रेट निकोबार द्वीप पर नियोजित मेगा परियोजना के साथ तीन ‘अनुत्तरित खामियां’ थीं.
पीठ ने कहा कि सबसे पहले प्रभावित होने वाली 20,668 कोरल (प्रवाल) कॉलोनियों में से परियोजना प्रस्तावक- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकीकृत विकास निगम – ने केवल 16,150 को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया और शेष 4,518 कोरल कॉलोनियों के लिए खतरों का उल्लेख नहीं किया. आईसीआरजेड 2019 के अनुसार कोरल को नष्ट करने वाली कोई भी विकासात्मक गतिविधि प्रतिबंधित है.
पीठ ने कहा, दूसरा कि परियोजना के लिए किया गया पर्यावरण प्रभाव आकलन केवल एक सीजन के लिए किया गया, जबकि इसे तीन सीजन में किया जाना चाहिए था.
तीसरा, परियोजना क्षेत्र का एक हिस्सा तटीय विनियमन क्षेत्र के भीतर है, जहां कोई भी निर्माण – बंदरगाह छोड़कर – निषिद्ध है.
पीठ ने कहा, इसलिए ये कारक परियोजना को दी गई पर्यावरण मंजूरी का ‘पुनर्वालोकन’ करने के लिए कहते हैं.
पीठ ने ऐसा करने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का प्रस्ताव रखा. समिति की अध्यक्षता सचिव (वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) करेंगे और सदस्यों में मुख्य सचिव (अंडमान और निकोबार), नीति आयोग के उपाध्यक्ष द्वारा नामित एक व्यक्ति, शिपिंग मंत्रालय के सचिव द्वारा नामित एक व्यक्ति और भारतीय वन्यजीव संस्थान के निदेशक शामिल होंगे.
समिति को दो महीने में अपनी सिफारिशें देनी हैं. पीठ के अनुसार, इस दौरान परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी रोक दी जाएगी.
हितों का टकराव और बहुत कुछ
हालांकि, समिति के सदस्यों का गठन हितों के टकराव की ओर इशारा करता है, क्योंकि सूची में सरकार और अन्य प्रतिनिधि शामिल हैं, जो पहले ही परियोजना को समर्थन दे चुके हैं.
उदाहरण के लिए, समिति के अध्यक्ष वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव हैं. जबकि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय सुनवाई में एक प्रतिवादी है और परियोजना पर आगे बढ़ने की मंजूरी के संबंध में अपने रुख का पहले ही बचाव कर चुका है.
समिति के सदस्यों में एक नीति आयोग के उपाध्यक्ष द्वारा नामित एक व्यक्ति होगा. संयोग से, संपूर्ण परियोजना का विचार नीति आयोग के ही ‘अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में ग्रेट निकोबार द्वीप के समग्र विकास’ के लिए ‘विजन डॉक्यूमेंट’ से उपजा है.
द वायर साइंस ने इस संबंध में 2021 में रिपोर्ट की थी. नीति आयोग ने बाद में एक आरटीआई के जवाब में इस तरह के विजन डॉक्यूमेंट के अस्तित्व से इनकार किया था.
समिति का एक अन्य सदस्य भारतीय प्राणी सर्वेक्षण (जेडएसआई) से होना है. 3 अप्रैल को सुनवाई के दौरान जेडएसआई की निदेशक धृति बनर्जी ने समझाया था कि कोरल को संरक्षित किया जा सकता है और पर्यावरणीय प्रभाव का प्रबंधन किया जा सकता है.
वैज्ञानिक मनीष चांडी कहते हैं कि हितों का गंभीर संघर्ष स्पष्ट है. मनीष ने द्वीपों में स्थानीय समुदायों और प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संबंधों का अध्ययन किया है और वे 2011 से 2019 तक जनजातीय कल्याण विभाग के अनुसंधान और सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में काम कर चुके हैं.
उन्होंने द वायर से बातचीत में समिति पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि गठित समिति पूरी तरह से विवेकपूर्ण, वैज्ञानिक और तार्किक मूल्यांकन के सिद्धांत के खिलाफ है.
चांडी ने टिप्पणी की कि यह भी आश्चर्यजनक है कि कैसे एनजीटी ने परियोजना के लिए वन और पर्यावरण मंजूरी दोनों को दरकिनार कर दिया है.
उन्होंने स्थानीय समुदायों के संबंध में कहा, ‘उन्होंने सदियों तक इसका प्रबंधन किया है. उन्हें विस्थापित किया जा रहा है.’
उन्होंने एनजीटी पर सवाल उठाते हुए कहा कि कैसे उसने पेड़ों की कटाई और उसके बाद होने वाले कटाव से होने वाली भारी क्षति पर विचार किए बिना कोरल के प्रत्यारोपण पर सवाल किया.
चंडी के मुताबिक, कोरल रीफ हाल ही में सुनामी के बाद वापस ठीक हुए हैं और इस परियोजना के लिए उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा.
पंकज सेखसरिया, जिन्होंने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को व्यापक रूप से लिपिबद्ध किया है, ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि एनजीटी यह समझने में पूरी तरह से विफल रहा है कि इस परियोजना से होने वाला पारिस्थितिक नुकसान बहुत बड़ा होगा.
उन्होंने कहा कि यह आदेश परियोजना समर्थकों के इस परियोजना पर आगे बढ़ने को उचित ठहराने वाला है.
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