अतीक़-अशरफ़ हत्या: सवाल क़ानून के राज का है

कुछ गैंगस्टरों की हत्या होगी और कुछ अन्य को आज संरक्षण मिलेगा, कल ज़रूरत पड़ने पर उनकी भी हत्या होगी. आम नागरिक को टीवी पर जय श्री राम के नारों के साथ हत्याओं का लाइव टेलीकास्ट दिखाया जाएगा ताकि वो 56 इंच छाती की तारीफ़ करे.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

आज कुछ गैंगस्टरों की हत्या होगी और कुछ अन्य को संरक्षण मिलेगा. कल ज़रूरत पड़ने पर उनकी भी हत्या होगी. आम नागरिक को टीवी पर जय श्री राम के नारों के साथ हत्याओं का लाइव टेलीकास्ट दिखाया जाएगा ताकि वो ‘कड़े फैसले लेने वाले’ की तारीफ़ कर सकें.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

अतीक और अशरफ़ के हत्यारों को कैसे पता चला:

  • कि उन दोनों को रात में मेडिकल चेक अप के लिए पुलिस कहां और कैसे ले जा रही है?
  • कि पुलिस की बंदोबस्ती- जो अन्य राज्यों में इन ही दोनों के लिए सख़्त थी, यूपी में आकर ढीली पड़ जाएगी?
  • कैसे पता चला कि वहां मीडिया मौजूद रहेगी, जिन्हें किसी घेरे में क़ैदियों से दूर नहीं रखा जाएगा- यानी दोनों क़ैदियों के पास पहुंचने के लिए मीडिया का भेस लेना काफ़ी है?

गैंगस्टर द्वारा गैंगस्टर की हत्या के मामले में इतने सवाल क्यों?

क्योंकि गैंगस्टर क़ानून तोड़ता है तो क़ानून के राज में उसे सज़ा मिल सकती है. पर जब क़ानून के रखवाले ही क़ानून तोड़ते हैं तब क़ानून राज नहीं, पुलिस राज रह जाता है. पुलिस राज में गैंगस्टर वर्दी पहनते हैं, राज करते हैं. पुलिस राज में पुलिस पर क़ानून की कोई लगाम नहीं है – यानी आम नागरिक बेलगाम पुलिस के सामने बिल्कुल असहाय हैं.

इसलिए इन सवालों के लिए पुलिस से जवाब मांगना- यह हर नागरिक के लिए आत्मसुरक्षा का कदम है.

हत्यारों को हीरो बनाना

फ़र्ज़ कीजिए कि हत्यारे हिंदू की बजाय मुस्लिम होते-  जय श्री राम नहीं, अल्लाह हू अकबर का नारा लगाते हुए पुलिस और मीडिया के सामने हथकड़ी पहने किसी हिंदू अपराधी पर गोली चलाए तो वही पुलिस और वही मीडिया क्या करती?

क्या इसमें कोई शक है कि पुलिस गोली चलाकर हत्यारों को मार गिराती; और मीडिया उन्हें आतंकवादी कहने में देर नहीं करती?

इन हत्यारों पर पुलिस ने गोली क्यों नहीं चलाई? जान लेने के लिए नहीं, पैर पर गोली चलाई होती तो हमलावर रुकने के लिए मजबूर होते.
मीडिया ने भी हत्यारों को आतंकवादी नहीं कहा, इसे ‘हिंदू आतंकवाद’  नहीं कहा. क्यों?

इसमें धर्म का सवाल हम और आप नहीं लाए. हत्या के समय जय श्री राम का नारा लगाकर हत्यारों ने ख़ुद धर्म की राजनीति की.

और हत्यारों की तरह भाजपा नेता भी इस हत्या को हिंदू धर्म से जोड़ा. कैलाश विजयवर्गीय ने गीता में कहे कृष्ण के शब्दों को याद किया- राक्षसों के संहार से धरती पर भार कम होता है. हत्यारों की तुलना अर्जुन ने की जा रही है- इसका हर हिंदू का धिक्कार होना चाहिए.

उसी तरह भाजपा और संघ के अन्य नेताओं ने ‘पाप पुण्य के हिसाब’ और ‘धर्म की रक्षा’ की बातें की.

भाजपा नेता, राज्य के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कह सकते हैं कि इस मामले में सही-ग़लत अदालत में तय होने का इंतज़ार करिए. पर यूपी में क़ानून राज टुकड़े-टुकड़े हो गया है- ऐसे में अदालत का इंतज़ार होगा?

या पुलिस भी इन हत्यारों की ‘एनकाउंटर’ में हत्या कर देगी- मुर्दा बोल नहीं सकते, और इन्होंने बोला तो कहीं सत्यपाल मलिक से प्रेरणा न ले लें? भाजपा नेता तो हत्या का चुनावी फ़ायदा उठाने में देर तो नहीं कर रहे हैं.

पुलिस हिरासत में हत्या

इस प्रकरण पर द फ़ेडरल पर नीलू व्यास के साथ चर्चा में मेरे साथ एक नामी वकील मनु शर्मा और पूर्व पुलिस अधिकारी यशोवर्धन आज़ाद मौजूद थे. दोनों ने कहा कि इस प्रकरण को पुलिस हिरासत में मौत नहीं कहा जा सकता है.

मनु शर्मा जी ने तो कह डाला कि अगर अतीकऔर अशरफ़ की हत्या कस्टोडियल डेथ यानी पुलिस हिरासत में मौत माना गया तो क्या राजीव गांधी की हत्या को भी कस्टोडियल डेथ माना जाएगा? उनके अनुसार, पुलिस यातना के चलते होने वाली मौतों को ही कस्टोडियल डेथ माना जाता है.

किसी वकील के पास क़ानून की बेसिक जानकारी न हो तो क्या कहा जाए? राजीव गांधी क़ैदी नहीं थे, आरोपी नहीं थे, उनके हाथों पर हथकड़ी नहीं थी, उन्हें पुलिस सुरक्षा मिली थी; वे पुलिस हिरासत में नहीं थे.

यूपी, भारत और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और नियमावलियों में और भारत के सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य अदालतों के अनेकानेक फ़ैसलों में पुलिस को क़ैदी की सुरक्षा और देखरेख की ज़िम्मेदारी दी गई है. पुलिस ने आपको गिरफ़्तार किया है, तो जब तक आप उनकी हिरासत में है, उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे आपका देखरेख करे.

हिरासत के लिए अंग्रेज़ी शब्द ‘कस्टडी’ है, जिसका मतलब है कि ‘गार्डियनशिप’, देखरेख. अगर आप पुलिस की कस्टडी में हैं तो पुलिस आपकी गार्डियन है- आपकी सुरक्षा ही नहीं, आपके देखरेख के लिए ज़िम्मेदार.

दिल्ली हाईकोर्ट के फरवरी 2023 के इस फ़ैसले में माना गया कि पुलिस हिरासत में क़ैदी के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना पुलिस की जिम्मेदारी है, जिसमें जान और सम्मान का अधिकार शामिल हैं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय की वेबसाइट में पुलिस हिरासत के नियमों को लेकर साफ़ लिखा है कि क़ैदी की पूरी सुरक्षा के लिए पुलिस ज़िम्मेदार है.

यूनाइटेड नेशंस के जनरल असेंबली रेज़ोल्यूशन (General Assembly resolution 43/173) में किसी भी तरह के डिटेंशन या हिरासत में किसी भी तरह के क़ैदी की सुरक्षा के लिए सिद्धांतों को गिनाया गया है.

यूपी के जेल मैन्युअल को भी देख लीजिएः

  • नियम 138 में लिखा है कि क़ैदी को हथकड़ी लगाना मना है, जब तक किसी मजिस्ट्रेट ने इसकी इजाज़त न दी हो.
  • नियम 147 में लिखा है कि जेल से क़ैदी को कहीं भी के जाते समय उनकी ‘सेफ कस्टडी’ – सुरक्षित हिरासत की ज़िम्मेदारी संबंधित पुलिस पलटन और उसके शीर्ष अधिकारी की है जी की हैः

‘बंदी को सुपुर्द किए जाने के समय से लेकर प्रभारी अधिकारी के एस्कॉर्ट से लेकर बंदी के जेल वापस लौटने तक, उसकी सुरक्षित अभिरक्षा की जिम्मेदारी कमान अधिकारी और एस्कॉर्ट की होगी और वह जिम्मेदारी तब तक समाप्त नहीं होगी, जब तक कि जेलर एस्कॉर्ट के कमांडिंग अधिकारी द्वारा रखे गए विवरणात्मक रोल पर इस आशय का एक प्रमाण पत्र नहीं देता है कि कैदी सुरक्षा में जेल में वापस आ गया है या नहीं आया तो उसका क्या कारण है.

(From the time of the delivery of the prisoner to the charge of the officer in command of the escort until the return of the prisoner to the jail, the responsibility for his safe custody shall rest with the officer in command and of the escort and that responsibility shall not terminate until the Jailor endorses upon the descriptive roll retained by the officer in command of the escort a certificate to the effect that the prisoner has returned in security to the jail or has not returned owing to good and sufficient cause.)

पुलिस की बेवक़ूफ़ी- या कुछ और?

क़ानून को लेकर बहस नहीं हो सकती- पुलिस किसी क़ैदी को लॉकअप से मेडिकल के लिए ले जा रही हो, तो उस क़ैदी की सुरक्षा पूरी तरह से पुलिस की ज़िम्मेदारी है. ऊपर दिए गए सभी नियमों में साफ़ लिखा है कि पुलिस की जवाबदेही है कि क़ैदी के पास ऐसा कोई सामान न हो जिसका इस्तेमाल करके वह आत्महत्या कर पाए.

पर क़ानून की बात से अलग भी हमारे पास अपनी अक़्ल है.

पुलिस दो क़ैदियों को हथकड़ियां लगाकर मेडिकल के लिए को ले जा रही थी; ऐसे रास्ते से जिसमें मीडिया को क़ैदियों के नज़दीक आने और उनसे बातचीत करने की इजाज़त दी गई; मीडियाकर्मियों की कोई तलाशी नहीं ली गई; पुलिसकर्मी ने हत्यारों को पीछे से पकड़ लिया जैसे वह किसी नशे में धुत किसी यार-दोस्त को सड़क पर मारपीट करने से रोक रहा हो; और पुलिस की बांहों में हत्यारा दो हथकड़ियां पहने हुए आरोपियों पर गोली चलाता रहा.

पुलिस की एक लापरवाही समझ में आती, पर एक ही काम में इतनी सिलसिलेवार ग़लतियां हों तो सवाल उठता है कि यह लापरवाही है, या पूरी परवाह और तैयारी से किया हुआ काम है?

इस पूरे प्रकरण में राज्य सरकार और मुख्यमंत्री को किसी भी जवाबदेही से बचाने में लगे कुछ लोग समझा रहे हैं कि यह सब पुलिस की बेवक़ूफ़ी और लापरवाही है और इस मौक़े का फ़ायदा हत्यारों ने उठा लिया.

हत्यारों को पता था कि पुलिस ने ‘मेडिकल’ के लिए ले जाने का क्या समय तय किया है; यह भी पता था कि वहां मीडिया रहेगी, मीडिया वालों की तलाशी नहीं होगी, मीडिया और क़ैदियों के बीच कोई दूरी या बैरियर नहीं होगा. इसलिए वे मीडियाकर्मी के भेस में हाथ में माइक लिए हुए आए. सब कुछ होने के बाद जय श्री राम का नारा लगाना भी तैयारी और राजनीतिक मक़सद की ओर इशारा करता है.

यह मौक़ापरस्ती नहीं ठंडे दिमाग़ से, सोच-समझकर तैयारी के साथ की गई हत्या है- और जानकारी के बिना तैयारी नहीं हो सकती. जानकारी पुलिस व्यवस्था के भीतर से ही मिल सकती थी. बिना राजनीतिक सत्ता के इशारे से पुलिस के भीतर से जानकारी देने की हिम्मत किसी को होती?

यूपी में कानून के राज का इतिहास

यूपी में क़ानून राज शुरू से कमज़ोर था. पर योगी प्रदेश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने 2017 में पद संभालने के साथ ‘ठोक दिए जाएंगे’ का नारा देकर खुलेआम क़ानून के राज की धज्जियां उड़ाने के लिए पुलिस को उकसाया. इसके बाद इन्होंने ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ भी चलवाया जिसमें पुलिस से कहा गया कि जिन्हें वे अपराधी समझे उनके घुटने में गोली चलाकर उनको हमेशा के लिए लंगड़ा कर दिया जाए.

‘लव जिहाद’, ‘दंगाई’ आदि कहकर वे इशारा करते हैं कि अपराधी कुछ ख़ास समुदायों से ही आते हैं; और उन समुदायों को सबक़ सिखाना ही ‘न्याय’ है. जब पुलिस से कहा जाता है कि बस आरोपी की हत्या कर दो, उसे एनकाउंटर कह दो, क़ानून, नियम, अदालत आदि की चिंता मत करो तो पुलिस का मनमानापन सिर चढ़ता है.

और अगर पुलिस को क़ानून का डर न रहे तो वे सबसे बड़े गैंगस्टर बन जाते हैं. जो गैंगस्टर की हत्या कर सकता है वह कल आपकी भी हत्या कर सकता है अगर आप की पुलिस को ज़रूरत है किसी राजनीतिक कहानी में विलेन के रोल के लिए.

सरकारी गैंगस्टर राज गैंगस्टरों को भी हिंदू मुस्लिम में बांट सकता है- और उन्हें भी समय-समय पर किसी कहानी में पात्र बनाया जा सकता है. किसी नेता की हत्या करवानी है- लो गैंगस्टर तैयार मिल सकता है. वह  गैंगस्टर मुसलमान है तो कहा जा सकता है कि वह राज्य के शीर्ष नेता की हत्या करने आया आतंकवादी है और उसका ‘एनकाउंटर’ करवा दिया जा सकता है. ऐसे एनकाउंटर चुनाव में काम आ सकते हैं- आतंकवाद का नाश करने वाली 56 इंच की छाती वाली छवि गढ़ने के लिए!

गुजरात में सोहराबुद्दीन शेख की ‘एनकाउंटर’ में मौत के बाद नरेंद्र मोदी (जो उस समय सूबे के सीएम थे) चुनावी भाषण में हुंकार लगाते दिखे थे कि ऐसे अपराधी के साथ क्या करना चाहिए- और जवाब आया ‘मार देना चाहिए.’

मोदी इशारा कर रहे थे सोहराबुद्दीन ‘अपराधी’ या ‘आतंकवादी’ था इसलिए उसकी हत्या जायज़ है. पर सोहराबुद्दीन के साथ उनकी पत्नी कौसर बी की भी हत्या कर दी गई. कौसर बी ने तो कोई अपराध नहीं किया था- पुलिस ने जब सोहराबुद्दीन को अगवा किया तो उन्होंने कौसर बी को भी साथ में अगवा कर दिया. फिर कैसे ज़िंदा रहने देते? उसकी भी हत्या हो गई.

सोहराबुद्दीन के साथ कौसर बी को भी पुलिस ने उठा लिया है, इस बात का गवाह सोहराबुद्दीन का मित्र तुलसीराम प्रजापति था. उन्होंने अदालत से कहा कि मेरी भी हत्या होगी- और आखिर में ऐसा ही हुआ.

कुछ गैंगस्टरों की हत्या होगी और कुछ अन्य को आज संरक्षण मिलेगा, कल ज़रूरत पड़ने पर उनकी भी हत्या होगी. आम नागरिक को टीवी पर जय श्री राम के नारों के साथ हत्याओं का लाइव टेलीकास्ट दिखाया जाएगा ताकि वो 56 इंच छाती की तारीफ़ करे.

पर जहां गैंगस्टर की पुलिस द्वारा हत्या सामान्य हो जाए वहां आम नागरिक भी कौसर बी की तरह बच नहीं पाएंगे. ऐसा न हो, पर अगर कभी आपकी या आपकी संतान की बारी आएगी, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)