विशेष: भारतीय क्रिकेट टीम के ऑलराउंडर सलीम दुर्रानी की सरलता ऐसी थी कि आउट होने पर बिना अंपायर की तरफ देखे पवेलियन की तरफ़ चल देते थे. इसे लेकर कहा करते थे कि जब हमें पता लग गया है कि आउट हो गए हैं तो फिर किसी के फैसले का इंतज़ार क्यों करना.
सलीम दुर्रानी पर ‘आस्क फॉर ए सिक्स’ नाम की यह किताब बार-बार की गई कोशिशों के बावजूद कभी लिखी ही नहीं जा सकी. सलीम दुर्रानी यानी सलीम भाई तो किसी उछलती नदी की तरह थे, ठहराव नाम की चीज़ कहीं थी ही नहीं. गुफ़्तगू के दौरान भी सीधे बल्ले से खेलते-खेलते वह अचानक चौके-छक्के लगाने लगते थे. बातचीत का हर सिलसिला रम के दो पेग के साथ पूरा हो जाता था, फिर अगली मुलाक़ात कब और कहां होगी, कुछ पता नहीं.
मैदान में अपना पहला क़दम रखते ही वह क्रिकेट की दुनिया में धूमकेतु बन गए थे. उसके बाद, उनके साथ सलमा-सितारे जुड़ते गए और सलीम दुर्रानी उनके चाहने वालों के लिए ‘प्रिंस चार्मिंग’ बन गए.
मैंने उन्हें इंदौर में रणजी ट्रॉफी मैचों में खेलते देखा था. 1972-73 में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ सेंट्रल ज़ोन की तरफ से. इसी मैदान पर उनकी नाबाद 81 रन की आतिशी पारी भी देखी थी, जिसकी वजह से उन्हें आख़िरी बार टेस्ट मैचों में खेलने का मौक़ा मिला था. हालांकि, तब तक उनसे रूबरू होने का मौक़ा नहीं मिल पाया था. लेकिन, तब भी वह दिल के बहुत क़रीब लगते थे.
1980 में मुझे पुणे जाने का मौक़ा मिला. वहां भारत के पूर्व कप्तान (एक मैच में) और अपने समय के शीर्ष ऑलराउंडर चंदू बोर्डे से मुलाक़ात हुई. मैंने उनसे पूछा, ‘आपके साथ टीम में तीन बाएं हाथ के (लेफ्ट हैंडेड) ऑलराउंडर हुआ करते थे- रूसी सुरती, बापू नाडकर्णी और सलीम दुर्रानी… इन तीनों के बारे में आपकी क्या राय है?’
अपने पुराने साथियों के नाम सुनकर चंदू बोर्डे के चेहरे पर एक ख़ास चमक उभर आई थी. फिर वह पूरी गंभीरता से बोले, ‘वह तीनों बहुत बड़े खिलाड़ी रहे हैं. रूसी को मैं सबसे आक्रामक खिलाड़ी मानता हूं. बल्लेबाजी हो, गेंदबाजी हो या फील्डिंग… वह मैदान में चीते की तरह चुस्त दिखाई देता था. बापू एकदम डिफेंसिव (रक्षात्मक), बल्लेबाजी में अड़ गए तो आउट करना मुश्किल, उनकी गेंदबाजी पर रन बनाना असंभव और फील्डिंग में चट्टान की तरह. बापू जैसा डिफेंसिव खिलाड़ी दुनिया में ढूंढ़े से नहीं मिलेगा. सलीम को मैं दुनिया का सबसे स्टाइलिश खिलाड़ी मानता हूं. उसकी बल्लेबाजी, गेंदबाजी, फील्डिंग, चाल-ढाल… वह मैदान में जो कुछ करता था, सब स्टाइलिश लगता था.’
सलीम दुर्रानी से पहली बार रूबरू होने का मौक़ा जयपुर में मिला. बात 1987 की है. भारत-पाकिस्तान के बीच टेस्ट मैच खेला जाना था. सारे देश की निगाहें सुनील गावस्कर पर टिकी थीं. उम्मीद की जा रही थी कि वह वहीं अपने दस हज़ार रन का रिकॉर्ड पूरा कर लेंगे. इस ख़ास मौक़े पर नवभारत टाइम्स की तरफ़ से गावस्कर का इंटरव्यू करने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी.
वहां मेरी मुलाक़ात पीएम रूंगटा (भाईजी) यानी भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) के पूर्व अध्यक्ष से हुई. मैंने उनसे दुनिया-जहान के सवाल पूछे. गावस्कर के बारे में पूछा. फिर पूछा, ‘आपकी नज़र में भारत का सबसे बड़ा खिलाड़ी कौन है?’ उनका तुरंत जवाब था, ‘सलीम दुर्रानी.
मैंने हैरानी से पूछा, ‘सलीम दुर्रानी?’ उन्होंने उसी विश्वास से कहा, ‘जी, सलीम दुर्रानी.’ फिर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई.
उन्होंने कहा, ‘अगर सलीम के पास सन्नी (गावस्कर) की तरह डिसिप्लिन होता, कमिटमेंट होता, एप्लीकेशन होता, फोकस होता और मन में अच्छे से अच्छा खेलने की ज़िद होती, तो वह तो गैरी सोबर्स से भी बड़ा खिलाड़ी था. सलीम को किसी और ने नहीं मारा है, उसकी लापरवाही ने मारा है.’
भाईजी के लहजे में सलीम भाई के लिए प्यार ,सम्मान और नाराज़गी साफ़ झलक रही थी. भाईजी से ही पता लगा कि सलीम भाई जयपुर में ही हैं.
दूसरे दिन मैं सलीम भाई से मिलने पहुंचा. सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे. सलीम भाई नहा-धोकर तैयार थे, तरोताज़ा. स्मार्ट… हमेशा की तरह शर्ट का कॉलर खड़ा हुआ. सिर्फ़ हाथ में बल्ले की कमी थी. वह बहुत प्यार से मिले. वह धीमे लहजे में बात करते थे. बातचीत चलती रही… रम का गिलास ख़ाली होता रहा, भरता रहा. हवा में सिगरेट के छल्ले तैरते रहे और ऑमलेट की प्लेट गर्म होने के लिए आती-जाती रही.
मैंने उन्हें भाईजी के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया. सलीम भाई धीरे से बोले, ‘सबके पास सब कुछ नहीं होता. जो सन्नी के पास है वह मेरे पास नहीं था, जो मेरे पास था वह सन्नी के पास नहीं है.’ फिर चेहरे पर और ज़्यादा चमक के साथ बोले, ‘भाई, ज़िंदगी सिर्फ़ क्रिकेट तो नहीं है. क्रिकेट के अलावा भी ज़िंदगी बहुत हसीन है.’
क़रीब एक घंटे बाद जब बाहर निकला तो काफ़ी देर तक सलीम दुर्रानी की जादुई शख़्सियत मुझ पर हावी रही और उनके बारे में कहे गए चंदू बोर्डे के शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे. इसी के साथ सलीम भाई के साथ मुलाक़ातों का खाता खुला, जिनका कुछ हिस्सा यहां साझा कर रहा हूं.
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दिल्ली में खोई रक़म और कमाए प्रशंसक
यह 1989 की बात रही होगी. चारों तरफ़ सलीम दुर्रानी बेनेफिट मैच की धूम थी. फ़िरोज़शाह कोटला मैदान पर ‘भारत इलेवन’ और ‘पाकिस्तान इलेवन’ के बीच एकदिवसीय मैच खेला जाना था. मैच से दो दिन पहले दिल्ली एवं ज़िला क्रिकेट संघ (डीडीसीए) की तरफ़ से प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी गई थी. सलीम भाई भी वहां मौजूद थे. जब सलीम भाई की बारी आई तो उन्होंने मीडिया को एक चिट्ठी दिखाई. चिट्ठी डीडीसीए की तरफ़ से सलीम भाई को लिखी गई थी, जिसमें लिखा था कि मैच के लिए स्टेडियम में अतिरिक्त कुर्सियां लगवानी होंगी, जिसके लिए सलीम भाई को डिपॉजिट के रूप में डेढ़ लाख रुपये का चेक डीडीसीए को देना होगा.
सलीम भाई का सवाल था कि अगर मेरे पास डेढ़ लाख रुपये होते, तो मैं बेनेफिट मैच ही क्यों कराता?
फिर उन्होंने अपने बैग से टिकटों का बंडल निकाला और बताया कि मुझे यह टिकट दिए गए हैं और कहा गया है कि मैं टिकट बेचकर अपने हिस्से की रकम ले लूं. सलीम भाई का दूसरा सवाल था कि परसों मैच खेला जाना है, अब मैं कहां जाऊं और यह टिकट किसे बेचूं?
सलीम भाई सुंदर नगर के होटल जुकासो इन में ठहरे हुए थे. मैं जब सुबह आठ बजे उनसे मिलने पहुंचा तो उनके सामने रम का गिलास और ऑमलेट की प्लेट रखी थी. इसी बीच कोई खन्ना साहब भी उनसे मिलने आए हुए थे.
मैंने सलीम भाई से पूरा मामला समझा और वहां से उठ गया. बाहर आकर मैं सोच रहा था कि अगर उनकी जगह कोई और खिलाड़ी होता तो वह इस वक़्त बेनेफिट मैच की कामयाबी के लिए हाथ-पांव मार रहा होता, लेकिन ऐसे क़ीमती क्षणों में भी सलीम भाई से रम का दामन नहीं छूट रहा था.
दिल्ली के तमाम अख़बारों में सलीम भाई की प्रेस कॉन्फ्रेंस की ख़बरें छप चुकी थीं. मैच की सुबह नवभारत टाइम्स में मेरी लिखी ख़बर छपी, जिसका शीर्षक था- ‘सलीम दुर्रानी बेनेफिट मैच में एक लाख की आमदनी डेढ़ लाख का खर्च.’ फिर यह भी पता लगा कि कोई खन्ना जी उनकी मदद के लिए आगे आ गए थे और उन्होंने डेढ़ लाख रुपये का चेक डीडीसीए के पास जमा करवा दिया है.
अज़हरुद्दीन की कप्तानी में पूरी भारतीय टीम और जावेद मियांदाद की कप्तानी में पाकिस्तानी टीम आमने-सामने थी. ज़ाहिर है कि स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था. अखबारों में छपे सलीम भाई के बयान डीडीसीए के अफ़सरों को चुभ गए थे. सलीम भाई पर बयान वापस लेने का दबाव डाला गया. उन्होंने माफ़ी मांगते हुए प्रेस नोट जारी किया. तमाम मीडिया को सलीम भाई से हमदर्दी थी, उनकी मजबूरी का एहसास था, उनका वह बयान ज्यों का त्यों छाप दिया गया.
कोई आठ-दस दिन बाद सलीम भाई मुझसे मिलने दफ़्तर आए. चेहरा उनका लटका हुआ था. वजह पूछी तो उनकी कहानी सुन कर मैं हैरान रह गया. सलीम भाई ने बताया, ‘मेरा तो कोई बैंक एकाउंट था नहीं, इसलिए खन्ना साहब के दिए डेढ़ लाख रुपये और मुझे बेनेफिट मैच के जो एक लाख रुपये रुपये मिले थे, यानी कुल ढाई लाख रुपये का चेक हमने खन्ना साहब के नाम पर बनवा लिया था. सोचा था कि बाद में हिसाब कर लेंगे, लेकिन चेक लेने के बाद खन्ना साहब ने मेरा फ़ोन उठाना ही बंद कर दिया.’
मैंने पूछा, ‘आप खन्ना साहब को कब से जानते हैं?’
उनका जवाब था, ‘उसी दिन से जब आप मुझसे होटल जुकासो में मिलने आए थे, तभी खन्ना भी आए हुए थे. वह मुझे ग्रेटर कैलाश अपने घर ले गए. बहुत बड़ी कोठी थी. अपने परिवार से मिलवाया. ख़ूब ख़ातिर की. अपनी चेक बुक से डेढ़ लाख का चेक काटा और मुझे फ़िरोज़शाह कोटला स्टेडियम तक छोड़ा, जहां मैंने वह चेक जमा करा दिया.’
समस्या यह थी कि सलीम भाई को न तो खन्ना साहब का पूरा नाम मालूम था और न ही उनके घर का पता. मैंने डीडीसीए में बात की तो टका-सा जवाब मिल गया, ‘हमारी तरफ़ से सलीम दुर्रानी का हिसाब क्लियर हो चुका है.’
तस्वीर बड़ी दर्दनाक थी. सलीम भाई जैसे शख़्स के लिए वह रक़म किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थी. उनके पास अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का वह आख़िरी मौक़ा था. लेकिन क्या किया जा सकता था, उन्होंने ख़ुद ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली थी. क्रिकेट की भाषा में कहें तो वह ‘हिट विकेट’ हो चुके थे.
लेकिन, डूबते को तिनके का सहारा. सलीम भाई को चंद बिल्डर मिल गए. उन लोगों ने सलीम भाई को डूबी हुई रक़म वापस दिलवाने का सपना दिखाया. इसमें कोई शक नहीं कि वह सब सलीम भाई के दीवाने थे. उनके ठहरने, खाने-पीने का इंतज़ाम करते थे. उनकी पार्टियां करते थे, उनका सम्मान करते थे. फिर सलीम भाई के साथ खिंची तस्वीरें लेकर अख़बारों के चक्कर लगाते थे. वह चाहते थे किसी भी तरह सलीम भाई के साथ अख़बार में उनकी तस्वीर छप जाए.
पता नहीं सलीम भाई को कुछ मिला या नहीं, लेकिन दिल्ली में उन्हें मेज़बानों की एक टीम ज़रूर मिल गई थी.
सलीम भाई का ख़ुदादाद हुनर
उसके बाद उनसे मुलाक़ात का सिलसिला टूट गया. बरसों बाद यानी 1999 में वह एक दिन प्रेस क्लब में पाए गए. मैं उन दिनों ज़ी न्यूज़ में था. इंटरव्यू की बात तय हुई. अगले ही दिन फ़िरोज़शाह कोटला स्टेडियम में हम मिले. बातचीत काफ़ी लंबी और दिलचस्प रही.
दिक़्क़त यह थी कि सलीम भाई के ज़माने में टीवी था नहीं और इतना तवील इंटरव्यू चलाने के किए उनके फुटेज की दरकार थी. यह ख़याल आया कि सलीम भाई के बैटिंग और बॉलिंग करते हुए कुछ शॉट्स ले लिए जाएं.
उस समय मैदान पर रणजी ट्रॉफी का कोई मैच चल रहा था. मैं एक अदद क्रिकेट बैट की तलाश में वैलिंगडन पवेलियन पहुंचा. वहां पूर्व टेस्ट विकेट कीपर सुरेंदर खन्ना और पूर्व टेस्ट मेडियम फास्ट बॉलर राजेंद्रपाल, पूर्व रणजी ट्रॉफी खिलाड़ी गुलशन राय के साथ और कई लोग बैठे थे. वहां कई क्रिकेट बैट भी रखे थे. क्योंकि उन सबमें सुरेंदर खन्ना ही मुझे जानते थे इसलिए मैंने उनसे गुज़ारिश के अंदाज़ में पूछा कि अगर आपकी इजाज़त हो तो मैं दस मिनट के लिए एक बैट ले लूं. लेकिन उन्होंने निहायत बदतमीज़ी से कहा, ‘नहीं…कोई बैट-वैट नहीं मिलेगा.’
मैं उस झटके से उबरूं उससे पहले ही गुलशन राय ने पूछा, ‘आपको बैट क्यों चाहिए?’ जब उन्हें बताया कि सलीम दुर्रानी का इंटरव्यू चल रहा है, उनके खेलते हुए कुछ एक्शन शॉट लेना चाहता हूं.’
सलीम भाई का नाम सुनते ही गुलशन राय की बांछें खिल गईं. वह बोले, ‘अरे वाह! सलीम आया है. सलीम के लिए जो बैट चाहिए, जितने बैट चाहिए सब ले जाइए. और सुनिए, सलीम से कहना बार बंद होने वाला है, मैं उसके लिए रम के दो पेग रखवा रहा हूं.’
शूटिंग के बाद हम लोग गुलशन राय के पास जाकर बैठ गए. थोड़ी देर बाद वहां एक नौजवान आया, जिसने सलीम भाई के पांव छुए और कहा, ‘मुझे फिजिकल फिटनेस के टिप दीजिए.’ सलीम भाई ने निहायत सादगी से कहा, ‘तुम ग़लत जगह आ गए हो. मैं न तो कभी दौड़ा-भागा, न कभी एक्सरसाइज़ की…’
मैं भी हैरान था. इसके बावजूद उन्होंने लंबी-लंबी पारियां खेलीं, लंबे बॉलिंग स्पेल किए और हमेशा बेहतरीन फील्डर माने गए. यानी उनके पास जो टैलेंट था वो ख़ुदादाद था- नेचुरल गिफ़्ट.
नौजवान के जाने के बाद सलीम भाई ने बताया, ‘टेस्ट मैचों के दौरान भी हमारी रातें रम और सिगरेट के साथ ही गुज़रती थीं. 1973 में इंग्लैंड के खिलाफ़ कलकत्ता में टेस्ट मैच चल रहा था. मैं पहली इनिंग में चार रन बनाकर आउट हो गया था. अगले दिन फिर बैटिंग करनी थी. मेरे कमरे में मेरे अज़ीज़ दोस्त वामन जानी भी थे. रम का दौर चल रहा था. कर्नल हेमू अधिकारी टीम के मैनेजर थे. वे फ़ौजी थे इसलिए उन्हें डिसिप्लिन बहुत प्यारा था, फिर मुझ पर उनकी ख़ास ‘मेहरबानी’ रहा करती थी. देर रात आकर मेरा कमरा चेक करते रहते थे. क़रीब रात बारह बजे कमरे की घंटा बजी. जो देखा तो सामने कर्नल साहब खड़े थे. उनकी आंखों से चिंगारियां बरस रही थीं. उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली और बोले, ‘सलीम, तुम्हें पता है… सुबह तुम्हें बैटिंग करनी है?’
मैंने उनसे माफ़ी मांगी और कहा,’ कर्नल साहब मैं कल आपको कम से कम पचास रन दे दूंगा.’ और दूसरे दिन वाकई सलीम भाई ने कर्नल साहब से किया वादा पूरा किया और पचास रनों की शानदार पारी खेली.
बातचीत चल ही रही थी कि कुछ देर बाद सलीम भाई ने बेहद दबी ज़बान में पूछा, ‘भाई, इस इंटरव्यू के कुछ पैसे मिलेंगे?’
उस ज़माने में न्यूज़ चैनलों में इंटरव्यू के लिए पैसे देने का रिवाज़ था ही नहीं. फिर भी मैंने उन्हें अगले दिन लंच के लिए प्रेस क्लब बुला लिया. घर से चलते वक़्त मैंने पांच-पांच सौ के दो नोट भी लिफ़ाफ़े में रख लिए. सलीम भाई वक़्त पर पहुंचे. मैंने वह लिफ़ाफ़ा उन्हें भेंट कर दिया, जिसे उन्होंने बिना देखे जेब में रख लिया.
कुछ देर बाद उनके दोस्त इंदर मलिक भी अपने दो बच्चों के साथ पहुंच गए. बच्चों ने आते ही सलीम भाई के पांव छुए. सलीम भाई ने जेब से लिफ़ाफ़ा निकाला और पांच सौ रुपये का एक-एक नोट दोनों बच्चों को थमा दिया. यानी सलीम भाई ‘बैक टू ज़ीरो.’ मैं ख़ामोशी से यह देख रहा था. कुछ देर बाद मैंने इंदर मलिक के ज़रिये बच्चों से वह रुपये वापस मंगवाए और दूसरे लिफ़ाफ़े में रखकर सलीम भाई के सुपुर्द कर दिए.
लोगों के दिल में रहने वाले सलीम
सलीम भाई का प्रेस क्लब से पहले से रिश्ता बन गया था. लेकिन जब हमारी टीम ने क्लब मैनेजमेंट की बागडोर संभाली तो क्लब सलीम भाई का घर बन गया. जब चाहते थे,आते. खाते-पीते, गपशप करते और मस्त रहते.
हमारी अपनी पत्रकार बिरादरी में भी भांति-भांति के लोग पाए जाते थे. कुछ फ़राग़ दिल जो दिल खोलकर सलीम भाई की मेहमाननवाज़ी करते. चंद मुफ़्तखोर ऐसे भी थे जिन्हें सलीम भाई में भी धनपशु दिखाई देता था. सलीम भाई की टेबल पर जब इस तरह के मुफ़्तखोरों का दरबार सज जाता था, तो उनकी सिट्टी-मिट्टी गुम हो जाती थी. तब उनकी परेशान नज़रें मुझे तलाश कर रही होती थीं और मैं वेटर को इशारा करके उनका बिल अपने पास मंगवा लेता था.
क्रिकेट की दुनिया को अलविदा कहने के तीस-पैंतीस साल बाद भी उनकी फैन फॉलोइंग ग़ज़ब की थी. ऐसे ही एक दिन तीसरे पहर को उन्होंने कहा, ‘भाई…वसंत कुंज जाना है, ऑटो नहीं मिल रहा है.’ मैं उनका इशारा समझ गया. शास्त्री भवन के क़रीब हम ऑटो का इंतज़ार करते रहे. सलीम भाई का बजट साठ रुपये का था. इससे ज़्यादा के लिए वह तैयार नहीं थे. उनकी इज़्ज़त रखने के ख़ातिर मैं भी उससे आगे बढ़ नहीं सकता था. काफ़ी देर बाद एक ऑटो आकर रुका. मैंने उससे पूछा, ‘वसंत कुंज जाओगे?’
वह राज़ी हो गया. तब मैंने उससे सलीम भाई की तरफ़ इशारा करके पूछा, ‘इन्हें जानते हो…यह कौन हैं?’ उसने ग़ौर से देखा तो उसका चेहरा ख़ुशी से खिल गया. बोला , ‘अरे!यह तो सलीम दुर्रानी साहब हैं.’
मैंने कहा, ‘इन्हें वसंत कुंज जाना है, बोलो क्या लोगे?’ वह ख़ुशी-ख़ुशी बोला, ‘मैं इनसे कुछ नहीं लूंगा. यह जहां चाहेंगे पहुंचा दूंगा. सलीम दुर्रानी साहब मेरी गाड़ी में बैठ गए, मेरे तो भाग्य खुल गए.’
सलीम भाई का पुश्तैनी घर जामनगर था. जामनगर से उनकी उड़ान मुंबई, जयपुर और दिल्ली तक महदूद थी. जैसा कि उन्होंने बताया था कि मुंबई में उनके सबसे बड़े ख़ैरख्वाह राजसिंह डूंगरपुर हुआ करते थे, लेकिन उनकी बेशतर शामें दिलीप सरदेसाई के घर गुज़रती थीं.
जयपुर में पूर्व रणजी ट्रॉफी खिलाड़ी शमशेर खोखर उनके लिए तन, मन, धन से समर्पित थे. पूरे राजस्थान में तो उनकी ज़िम्मेदारी होती ही थी, ज़रूरत पड़ने पर शमशेर दिल्ली में भी उनकी आवभगत के लिए पेशपेश रहते थे और अक्सर दिल्ली में भी साये की तरह उनके साथ पाए जाते थे. वैसे दिल्ली में इंदर मलिक उनके सबसे बड़े सिपहसालार थे. सही मायनों में इंदर मलिक का घर ही उनका ठिकाना हुआ करता था.
हक़ीक़त यह थी कि घर के बाहर उन्हें, उनसे प्यार करने वाला, उन्हें अपना समझने वाला एक मेज़बान दरकार होता था, फिर चाहे वह कोई भी हो.
यह वही दौर था जब सलीम भाई के साथ ज़िंदगी से भरपूर शामें गुज़रने लगीं थीं. कभी राजस्थान भवन, कभी ग्रेटर कैलाश का कोई गेस्ट हाउस, कभी न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी. और प्रेस क्लब तो था ही. सलीम भाई पूरे मूड में होते और ज़िंदगी की किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगते.
पसंदीदा मैदानों से रिश्ते
सलीम ने फर्स्ट क्लास क्रिकेट का सफ़र सौराष्ट्र की टीम से शुरू किया था. उसके बाद पेशेवर खिलाड़ी के रूप में राजस्थान चले गए और ताउम्र के लिए वहीं के होकर रह गए. टेस्ट मैचों में सलीम भाई के क़दमों के निशान भारत और वेस्टइंडीज़ तक सीमित रहे. ज़ाहिर है वेस्टइंडीज़ में तो उनका पसंदीदा मैदान पोर्ट ऑफ स्पेन ही था, जहां उन्होंने अपने जीवन का पहला और एकमात्र शतक बनाया. वहीं, उन्होंने लगातार दो गेंदों पर गैरी सोबर्स और क्लाइव लॉयड के विकेट लेकर भारत को जीत की राह दिखाई थी.
लेकिन जब भारत में अपने पसंदीदा क्रिकेट मैदान के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘ईडन गार्डंस, चेपॉक, ग्रीन पार्क, लेकिन ब्रेबोर्न मुझे अपने घर जैसा लगता था.’
चेपॉक और ईडन गार्डंस इसलिए कि 1962 में इन मैदानों पर इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेले गए दो टेस्ट मैचों में उन्होंने 18 विकेट लिए थे. फिर ग्रीन पार्क और ईडन गार्डंस वह जगहें थीं जहां, ‘नो दुर्रानी नो मैच’ के नारे बुलंद होते थे. जब रिकॉर्ड बुक पर नज़र डाली, तो पाया कि मुंबई के ब्रेबोर्न मैदान से तो उनका दिल-ओ-जान का रिश्ता था.
उन्होंने 1960 में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अपना पहला टेस्ट यहीं खेला था. दसवें नंबर पर बैटिंग करने आए और अपने ज़माने के महान ऑस्ट्रेलियाई तेज़ गेंदबाज़ रै लिंडवाल की पहली गेंद पर चौका मारकर टेस्ट मैचों में खाता खोला. 18 रन बनाकर आउट हुए तो भी, महान ऑस्ट्रेलियाई लेग स्पिनर और कप्तान रिची बेनो की गेंद पर.
1961 में उन्हें इसी मैदान पर अपने करिअर का दूसरा टेस्ट खेलने का मौक़ा. करिअर का पहला विकेट लिया इंग्लैंड के कप्तान टेड डेक्स्टर का. वही डेक्स्टर उन्हें ससैक्स लीग में खेलने के लिए इंग्लैंड ले गए. वहां सलीम भाई को कभी कोई मकान किराए पर नहीं लेना पड़ा, वह हमेशा डेक्स्टर के साथ उनके घर पर रहे.
उसी मैच में दस चौकों और दो छक्कों से सजी अपनी 71 रनों की पारी से वह क्रिकेट की दुनिया के आंख के तारे बन गए. 1964 में इसी मैदान पर इंग्लैंड के खिलाफ़ उन्होंने भारत में अपना सबसे बड़ा टेस्ट स्कोर 90 रन बनाया.
1973 में इसी मैदान पर इंग्लैंड के ख़िलाफ़ अपना आख़िरी टेस्ट खेला. पहली पारी में 73 और दूसरी पारी में 37 रन बनाए, जिनमें दर्शकों की मांग पर विभिन्न दिशों में लगाए गए तीन छक्के शामिल थे.
किसी एक खिलाड़ी के किसी एक मैदान से इतने गहरे रिश्तों की, दुनिया में बहुत कम मिसालें होंगी.
दुर्रानी का कप्तानों से ‘अनूठा’ रिश्ता
एक दफ़ा सलीम भाई ने बताया, ‘भाई जानते हैं, टेस्ट मैचों में मैं जिस-जिस टीम के ख़िलाफ़ खेला, मैंने उस टीम के कप्तान का विकेट लिया, ऐसा भी हुआ कि कुछ खिलाड़ियों के मैंने विकेट लिए, वह बाद में कप्तान बन गए.’
और मैंने गौर किया तो इसे सच भी पाया. 1961 में उन्होंने सबसे पहला विकेट इंग्लैंड के कप्तान टेड डेक्स्टर का लिया. 1963 में उन्होंने वेस्टइंडीज़ के कप्तान और क्रिकेट के शहंशाह फ्रैंक वॉरेल का विकेट लिया. उसके बाद भारत दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के कप्तान बॉबी सिंपसन का विकेट लिया. 1971 में वेस्टइंडीज़ के दौरे पर उन्होंने कप्तान गैरी सोबर्स का विकेट लिया.
उन्होंने वेस्टइंडीज़ के क्लाइव लॉयड, इंग्लैंड के माइक स्मिथ और टोनी ग्रेग के विकेट लिए, जो बाद में अपने-अपने देशों की टीमों के कप्तान बने. ऑस्ट्रेलियाई कप्तान रिची बेनो और इंग्लैंड के कप्तान टोनी लुइस के साथ वे खेले ज़रूर लेकिन उन्हें उनके ख़िलाफ़ कभी बॉलिंग का मौक़ा नहीं मिल पाया. एकमात्र न्यूज़ीलैंड के कप्तान ज़ॉन रीड रहे, जिनका विकेट सलीम भाई नहीं ले सके.
तलियारख़ां की बेशक़ीमती तारीफ़
भारत में स्पोर्ट्स कमेंट्री के जन्मदाता एएफएस बॉबी तलियारख़ां, जिन्होंने 1934 में पहले बार रेडियो पर मुंबई में खेले गए एक क्रिकेट मैच की कमेंट्री की थी. उन्हें भारत में स्पोर्ट्स कमेंट्री का ‘बाबा आदम’ माना जा सकता है. तलियारख़ां क्रिकेट के माहिर माने जाते थे. टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘ए डेज़ कमेंट्री’ के शीर्षक से उनका कॉलम भी छपता था, जिसका अंतिम वाक्य हमेशा इस सवाल पर ख़त्म होता था- ‘डू यू गेट मी?’
बॉबी तालियारख़ां निहायत बेबाक और मुंहफट कमेंटेटर थे. वह किसी की परवाह नहीं करते थे, इसीलिए उनकी ज़बान और क़लम से निकला हर शब्द बेहद वज़नी होता था. सलीम भाई के बारे में बॉबी तालियारख़ां की दो बातों को कभी भुलाया नहीं जा सकता. 1965 और 1970 के दरमियां सलीम भाई टेस्ट टीम से बाहर थे और टीम भी अच्छा नहीं कर पा रही थी तब बॉबी तलियारख़ां ने लिखा था, ‘आउट ऑफ फॉर्म सलीम दुर्रानी इस फार बेटर दैन सो मैनी प्लेयर्स इन फॉर्म.’ (फॉर्म में न रहने पर भी सलीम दुर्रानी फॉर्म वाले कई खिलाड़ियों से कहीं बेहतर हैं.)
और जब 1971-72 में सेंटर ज़ोन ने पहली बार दिलीप ट्रॉफी जीती, तो बॉबी तलियारख़ां ने उसका पूरा क्रेडिट सलीम भाई को देते हुए अपने कॉलम का शीर्षक दिया था, ‘दिलीप ट्रॉफी: दुर्रानी ट्रॉफी.’
तलियारख़ां की तरफ़ से सलीम भाई के लिए करिअर का यह सबसे क़ीमती तोहफ़ा था.
वो यारियां, वो महफ़िलें
हैदराबाद के एमएल जयसिम्हा अपने ज़माने के सबसे ज़िंदादिल और हरदिल अज़ीज़ क्रिकेट खिलाड़ी माने जाते थे. जब मोईनउद्दोला गोल्ड कप क्रिकेट टूर्नामेंट खेलने देश की आठ प्रमुख टीमें हैदराबाद पहंचती थीं, तो इस बहाने वहां पूरी टेस्ट टीम जमा हो जाती थी.
जयसिम्हा का नाम सुनते ही सलीम भाई चहकने लगे, बोले, ‘भाई! जय भाई खिलाड़ी तो बड़े थे ही, इंसान भी बहुत प्यारे थे. मैच खेलने के लिए हमें एक दिन के डेढ़ सौ रुपये मिलते थे, इतने ही पैसे जय भाई को मिलते थे. लेकिन वह उससे दोगुने-तिगुने पैसे हम लोगों पर लुटा देते थे. टाइगर पटौदी, अब्बास अली बेग, चंदू बोर्डे, हनुमंत सिंह, दिलीप सरदेसाई, आबिद अली… सभी खिलाड़ी हर शाम जय भाई के घर जमा होते, देर रात तक खाना-पीना, गाना-बजाना चलता. चंदू (बोर्डे) तबला बजाते और मैं गीत-ग़ज़लें सुनाता.’
हमने भी ज़िद की आज कुछ हो जाए. उन्होंने कोशिश की, कुछ गुनगुनाया लेकिन गले ने साथ नहीं दिया.
सलीम भाई यादों में खो गए, ‘… असली मज़ा तो राजस्थान में आता था. उदयपुर, जयपुर, डूंगरपुर और बांसवाड़ा- हर शादी, हर फंक्शन में मुझे ख़ासतौर से बुलाया जाता और हर महफ़िल में मेरे गीत-ग़ज़लें सुनी जातीं. राजमहलों में मेरा नाम ‘सलीम’ के बजाय ‘मिट्ठू’ पड़ गया था…’
साफ़दिली की फितरत
सलीम भाई मुंह से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी. ख़ब्बू खिलाड़ी एकनाथ सोलकर अपने ज़माने में दुनिया के बेहतरीन फील्डर माने जाते थे. उन्हें ‘पॉकेट साइज़ सोबर्स’ भी कहा जाता था. जब सलीम भाई से सोलकर के बारे में पूछा तो वह बोले, ‘ऐक्की (एकनाथ) बहुत बड़ा खिलाड़ी था, लेकिन जितना वह डिज़र्व करता था.. उतना उसे मिला नहीं.’
ऐसे ही जब पोर्ट ऑफ स्पेन टेस्ट की बात चली तो सलीम भाई ने बड़े दिलचस्प अंदाज़ में बताया, ‘जब गैरी (सोबर्स) बैटिंग करने आ रहा था, तो मैंने जय भाई (जयसिम्हा) से कहा कि वह अजित (वाडेकर) से कहें कि गैरी अभी नया-नया आ रहा है तो मुझसे ‘अगेंस्ट द एयर’ बॉलिंग करवाए क्योंकि मेरी बॉल ऑफ द एयर बहुत तेज़ जाती थी. अजित ने जय भाई की सलाह मानकर बॉल मुझे सौंप दी. मैंने गैरी को पहली तीन गेंदें लेग स्पिन खिलाईं जो उसके लिए ऑफ स्पिन थीं. उसने मिडिल ऑफ द बैट खेलीं और काफ़ी रिलेक्स हो गया. मैंने गैरी को रिलेक्स देखकर चौथी गेंद आर्मर फेंकी. गैरी समझ नहीं पाया और बोल्ड हो गया. उसके बाद क्लाइव (लॉयड) आया. भाई! उसका विकेट मेरे खाते में लिखा ज़रूर है लेकिन वह विकेट मेरा है नहीं. क्लाइव ने फुल ब्लेड डेड स्वीप मारा था. अजित शॉर्ट लेग में बेहद नज़दीक खड़ा था, उसने क्या कैच पकड़ा था! आउट ऑफ द वर्ल्ड! उस विकेट का क्रेडिट पूरी तरह अजित को जाता है.’
मैंने पहली बार देखा कि कोई खिलाड़ी अपनी इतनी बड़ी कामयाबी का सेहरा किसी और सिर बांध रहा था. उनका दिल-ओ-दिमाग़ किसी बच्चे की तरह साफ़ था. कहीं कोई उलझन नहीं थी.
यह 2009 की बात है. हम लोग सलीम भाई के साथ प्रेस क्लब में बैठे थे. मैं लोगों को बता रहा था कि पहला अर्जुन अवॉर्ड भी सलीम भाई को ही मिला था.
तभी सलीम भाई ने मेरे कान में फुसफुसाकर पूछा, ‘भाई, वह अवॉर्ड मुझे मिल सकता है?’ मैंने हैरानी से पूछा, ‘अवॉर्ड आपको मिला नहीं?’
वह बोले, ‘तब मैं वेस्टइंडीज़ के टूर पर था.’ ‘लेकिन उसके बाद पचास साल से तो आप भारत में ही हैं?’ सलीम भाई के पास कोई जवाब नहीं था.
ख़ैर, फिर स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया से संपर्क किया गया. उनकी तरफ से भव्य आयोजन किया गया, लोगों ने सलीम भाई के साथ तस्वीरें खिंचवाईं, ऑटोग्रॉफ लिए गए. और इस तरह पूरे सम्मान के साथ अर्जुन अवॉर्ड के ऐलान के कोई पचास साल बाद अवॉर्ड सलीम भाई के पास पहुंचा.
उनकी ज़िंदगी में उनके स्ट्रोक्स की तरह सब कुछ स्मूथ- सहज और सरल था.
सलीम भाई ने बताया, ‘1973 मद्रास टेस्ट में गावस्कर, चेतन चैहान और अजित वाडेकर जल्दी-जल्दी आउट हो गए. मैं और टाइगर (पटौदी) इनिंग्स को संभालने की कोशिश कर रहे थे. शुरुआत में ही मैंने इंग्लैड के ऑफ स्पिनर पेट पोकॉक की बॉल पर छक्का मार दिया. टाइगर मेरे पास आए और बोले- छक्का लगाने की क्या जरूऱत थी. मेरा सिंपल जवाब था- बॉल मेरी रीच में थी तो मार दिया.’
वह जब भी आउट होते, बिना अंपायर की तरफ़ देखे पवेलियन की तरफ़ चल देते थे. उनका मानना था कि जब हमें पता लग गया है कि हम आउट हो गए हैं तो फिर किसी के फ़ैसले का इंतज़ार क्यों करना.
इसी तरह व अपने ख़िलाफ़ अख़बारों में छपी किसी ख़बर की परवाह नहीं करते थे. उनके मन में बिल्कुल साफ़ था कि वह मीडिया के लिए नहीं, पब्लिक के लिए खेलते हैं.
इसके साथ ही उनमें शरारत भी खूब थी और इस शगल में उनके पार्टनर हुआ करते थे दिलीप सरदेसाई. 1963 के वेस्टइंडीज़ के टूर पर ओपनिंग बैट्समैन विजय मेहरा भी टीम में थे.
सलीम भाई ने बताया, ‘हम जिस शहर में होते विजय जब भी बाज़ार जाता, दो-चार शर्ट ख़रीद लाता. शर्ट बड़े ख़ूबसूरत होते थे. टूर ख़त्म होते होते विजय के पूरे दो सूटकेस शर्ट्स से भर गए. सभी खिलाड़ियों की नज़रें उन शर्टों पर थीं. एक दिन दिलीप ने और मैंने विजय को डराया कि तुम्हारे दोनों सूटकेस कस्टम वाले ज़ब्त कर लेंगे. तुम्हारी मेहनत भी जाएगी और पैसा भी डूब जाएगा. विजय परेशान हो गया, बोला- अब क्या करें? हमने उसे सलाह दी कि ऐसा करो कि दो-दो शर्ट टीम के सभी खिलाड़ियों के पास रखवा दो. बॉम्बे पहुंचकर वापस ले लेना. विजय ने हमारी सलाह मानकर सभी खिलाड़ियों के पास दो-दो शर्ट्स रखवा दीं. बॉम्बे पहुंचने के बाद विजय शर्ट्स वापसी का इंतज़ार करता रह गया और सब खिलाड़ी अपने अपने घरों की तरफ़ रवाना हो गए.’
ख़ुद्दारी का एहसास
सलीम भाई में आत्मसम्मान यानी ख़ुद्दारी कूट-कूट के भरी थी. वह हर हाल में अपनी मुट्ठी को सख़्ती से बंद रखने की कला जानते थे. वह इस बात के लिए भी हमेशा चौकस रहते थे कि कहीं कोई उनकी शोहरत, नाम का नाज़यज़ इस्तेमाल न कर ले. इसके लिए वह नुक़सान उठाने के लिए भी तैयार रहते थे.
एक बार दिल्ली में उनके सबसे बड़े ख़ैरख़्वाह इंदर मलिक उनके साथ प्रेस क्लब आए. सलीम भाई के साथ रहकर वह अपने आपको सम्मानित तो महसूस करते ही होंगे, यह बात भी समझी जा रही थी कि वह बिल्डर थे, तो वह सलीम भाई के नाम का कुछ-कुछ फ़ायदा ज़रूर उठाना चाहते होंगे.
उस रोज़ हम लोग प्रेस क्लब के लॉन में बैठे थे. इंदर मलिक ने बात शुरू की, ‘मैं रेस्टोरेंट और बार का लाइसेंस ले रहा हूं. जगह मेरे पास है. उस रेस्टोरेंट का नाम ‘सलीम दुर्रानी रेस्टोरेंट’ रखा जाएगा. मैं चाहता हूं कि उसकी पूरी ज़िम्मेदारी सलीम भाई संभालें, लेकिन यह मान नहीं रहे हैं. ज़रा आप ही इन्हें समझाइए.’
मैंने सलीम भाई की तरफ़ देखा. सलीम भाई ने रम की एक हल्की से चुस्की ली, सिगरेट का छोटा-सा कश लगाया फिर मुस्कुरा कर बोले- भाई, आप मुझे समझाने के बजाय इन्हें समझाइए. मैं अपने बीवी-बच्चों का ख़याल नहीं रख पाया, अपने घर-बार, अपने ख़ानदान, अपनी ज़िंदगी को नहीं संभाल पाया, तो मैं होटल कैसे संभाल पाउंगा?’
सलीम भाई ने तेज़ी से स्पिन होती गेंद पर निहायत नफ़ीस लेट कट लगाया… और गेंद सीमा पार. क्योंकि उनकी ज़िंदगी में टेढ़ा-मेढ़ा कुछ था ही नहीं. वो तो स्ट्रेट एंड मिडिल ऑफ द बैट से खेलने के आदी थे.
इन सबके बीच एक सच यह भी था कि वे अपनी पत्नी सरिता और बेटी के बारे में बात करने से हमेशा कतराते थे. सरिता से बरसों पहले उनका अलगाव हो चुका था. वह उन दोनों की बेटी को लेकर घर से गईं, तो कभी वापस नहीं लौटीं.
एक दूसरी बात, जिसका ज़िक्र उन्हें ख़ामोश कर देता था, वो थी उनकी फिल्म. जब भी फिल्म ‘चरित्र‘ और परवीन बाबी का ज़िक्र आता वे चुप हो जाते या सिर्फ़ इतना कहते, ‘बीआर इशारा दोस्त थे, उन्होंने कहा फिल्म में एक्टिंग कर लो, मैंने कहा चलो कर लेते हैं.’
‘सलीम दुर्रानी… वी वॉन्ट सिक्स’
सलीम भाई में कुछ कमियां नहीं होती तो वह भी आकाश में चांद की तरह चमक रहे होते. सबसे बड़ी कमी यह रही कि उनकी पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाई थी. इसलिए वह माइक पर जाने से कतराते थे. लिखने के ऑफर मिलते, वह लिखने की कोशिश करते लेकिन हफ़्तों बाद भी वह लेख पूरा नहीं हो पाता. कमेंट्री बॉक्स में बैठते तो खिलाड़ियों के नाम उन्हें धोखा दे जाते. याददाश्त साथ नहीं देती.
उस दिन हम लोग न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के गेस्ट हाउस की छत पर बैठे थे. मार्च का महीना था. मौसम सुहाना था. रात ढल रही थी. मैंने सलीम भाई से मैने पूछा, ‘आप जब पीछे पलटकर देखते हैं तो सबसे ज़्यादा क्या याद आता है?’
सलीम भाई पल भर के लिए कहीं खो गए, फिर बोले, ‘सोते-जागते, आज भी मेरे कानों में स्टेडियम से उठती वही आवाज़ें गूंजती रहती हैं- ‘सलीम दुर्रानी… छक्का’ ‘वी वॉन्ट सिक्स’ … ख़्वाबों में भी मैं वहीं देखता हूं और अक्सर छक्का लगने के बाद स्टेडियम से उठने वाले शोर से ही मेरी आंख खुल जाती है.’
फिर वे उठे. छत की दीवार के क़रीब पहुंचकर दूर-दूर तक फैली बस्तियों पर निगाह डाली. ऐसा लग रहा था कि जैसे उनकी नज़रों में कोई ख़्वाहिश हो, लोगों से गुज़ारिश हो- ‘आस्क फॉर ऐ सिक्स, ‘आस्क फॉर ऐ सिक्स…’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)