रंजीत गुहा: जिन्होंने इतिहास को आम लोगों के अतीत का आख्यान बनाया

स्मृति शेष: इतिहासकार रंजीत गुहा नहीं रहे, पर उनकी तमाम कृतियां, लेख और व्याख्यान पढ़ने वालों को भारतीय इतिहास के बारे में नए सिरे से सोचने के औजार देते हैं और आगे भी देते रहेंगे.  

/
रंजीत गुहा. (फोटो साभार: ट्विटर/@iameshansharma_)

स्मृति शेष: इतिहासकार रंजीत गुहा नहीं रहे, पर उनकी तमाम कृतियां, लेख और व्याख्यान पढ़ने वालों को भारतीय इतिहास के बारे में नए सिरे से सोचने के औजार देते हैं और आगे भी देते रहेंगे.

रंजीत गुहा. (फोटो साभार: ट्विटर/@iameshansharma_)

हाशिए की आवाज़ों को भारतीय इतिहास लेखन में प्रमुखता से जगह दिलाने वाले, रोज़मर्रा के जीवन में होने वाले प्रतिरोधों के ऐतिहासिक महत्व को समझाने वाले सबाल्टर्न कलेक्टिव के संस्थापक और प्रसिद्ध इतिहासकार रंजीत गुहा (1923-2023) का 28 अप्रैल, 2023 को वियना (ऑस्ट्रिया) में निधन हो गया.

अस्सी के दशक में रंजीत गुहा द्वारा संपादित ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ ने भारतीय इतिहास लेखन को अभूतपूर्व ढंग से बदला. रंजीत गुहा इतिहास लेखन की एक नई प्रविधि, नई इतिहासदृष्टि लेकर आए और उन्होंने अतीत को देखने-समझने के हमारे नज़रिये को हमेशा के लिए बदल दिया. उन्होंने इतिहास को राजा, वायसराय या बड़े राष्ट्रीय नेताओं की जगह आम लोगों के जीवन और उनके अतीत का आख्यान बनाया.

जीवन-यात्रा

रंजीत गुहा का जन्म मई 1923 में पूर्वी बंगाल के बाकरगंज ज़िले में हुआ. उनके पिता राधिका रंजन गुहा एक वकील थे, जो आगे चलकर ढाका हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने. गांव के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई के बाद रंजीत गुहा कलकत्ता आए, जहां से उन्होंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. बारहवीं और उसके आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाख़िला लिया.

उन्हीं दिनों वे मार्क्सवाद के प्रभाव में आए और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए. आज़ादी से एक साल पूर्व उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से इतिहास में एमए किया. यहां उनके शिक्षकों में सुशोभन सरकार भी शामिल थे, जिनसे वे गहरे प्रभावित हुए.

उन्हीं दिनों रंजीत गुहा कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘स्वाधीनता’ और ‘पीपल्स वार’ से भी जुड़े रहे. दिसंबर 1947 में वे वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ डेमोक्रेटिक यूथ में भाग लेने पेरिस गए, तभी उन्होंने पूर्वी यूरोप, पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका का भी भ्रमण किया. इस दौरान दो सालों के लिए वे पोलैंड में भी रहे, जहां उन्होंने मार्था से विवाह किया, जो उनकी पहली पत्नी थीं.

यूरोप से लौटने के बाद कुछ समय के लिए उन्होंने कपड़ा मिल के श्रमिकों और मटियाबुर्ज और खिदिरपुर के मज़दूरों के बीच भी काम किया. पचास के दशक में उन्होंने कलकत्ता के अनेक कॉलेजों में अध्यापन किया. इसी दौरान 1956 में हंगरी पर सोवियत रूस के आक्रमण के विरोध में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता छोड़ दी.

तीन वर्ष बाद 1959 में वे इंग्लैंड गए, जहां अगले दो दशकों तक उन्होंने मैनचेस्टर और ससेक्स यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया. यहीं ससेक्स में उनकी मुलाक़ात मेखठिल्ड से हुई, जो उनकी दूसरी पत्नी बनीं. आगे चलकर उन्होंने आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में भी अध्यापन किया. बाद में वे ऑस्ट्रिया में बस गए, जहां उन्होंने आख़िरी सांस ली.

स्थायी बंदोबस्त और किसानों के प्रतिरोध का इतिहास

रंजीत गुहा का लेखन जितना अंतर्दृष्टिपूर्ण और विचारोत्तेजक है, उतना ही सम्मोहक भी, अपने पाठकों को बांधकर रखने वाला. भूमि बंदोबस्तों के पीछे काम करने वाली वैचारिकी हो, या फिर किसानों के प्रतिरोध के विभिन्न पहलू हों, आंदोलनों में अफ़वाहों की भूमिका और उनके पीछे काम करने वाली मनोवृत्ति हो या फिर वर्चस्व और प्रभुत्व (हेजेमनी) की जंग हो – इन तमाम विषयों पर रंजीत गुहा ने बहुत बारीकी से लिखा.

वर्ष 1963 में उनकी पहली पुस्तक ‘ए रूल ऑफ प्रॉपर्टी फॉर बंगाल’ प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने स्थायी बंदोबस्त की वैचारिक पृष्ठभूमि के बारे में लिखा. पचास के दशक में इस पुस्तक के मूल विचार अपने आरंभिक रूप में बांग्ला पत्रिका ‘परिचय’ में छपे थे. बाद में, मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के फेलो के रूप में काम करते हुए रंजीत गुहा ने अपने इस विचार को पुस्तक का रूप दिया. उन्होंने दिखाया कि कॉर्नवालिस द्वारा 1793 में स्थायी बंदोबस्त को लागू किए जाने से दो दशक पहले से ही उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी, जिसमें अलेक्ज़ेंडर डो, हेनरी पटुलो, फिलिप फ्रांसिस और टॉमस लॉ आदि की प्रमुख भूमिका थी.

तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद ये सभी दो बातों को लेकर सहमत थे. पहला स्थायी बंदोबस्त को ईस्ट इंडिया कंपनी की पूर्ववर्ती कृषि नीति से बिल्कुल अलग होना चाहिए. दूसरा, भूमि के रूप में निजी संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित करने में स्थायी बंदोबस्त की आवश्यकता पर उन सभी के द्वारा दिया गया ज़ोर.

स्थायी बंदोबस्त के पीछे काम करने वाली विचारधारा के सूत्र रंजीत गुहा ने फ्रांस के फिज़ियोक्रेट विचारकों की स्थापनाओं में खोजे. इस किताब में उन्होंने स्थायी बंदोबस्त की पड़ताल करते हुए अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में उपनिवेशवादी विमर्श और औपनिवेशिक ज्ञान की निर्मिति का भी इतिहास लिखा.

इसके बीस वर्ष बाद किसानों के प्रतिरोध के इतिहास पर उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एलिमेंटरी आसपेक्ट्स ऑफ पीजेंट इन्सर्जेंसी’ (1983) प्रकाशित हुई. इस पुस्तक में रंजीत गुहा ने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के दौरान औपनिवेशिक भारत में हुए कृषकों के प्रतिरोध और उनके आंदोलनों का विश्लेषण करते हुए इन आंदोलनों में झलकने वाले बुनियादी विचारों, मूल्यों, संरचनाओं और मनोवृत्तियों का विचारोत्तेजक इतिहास लिखा.

रोज़मर्रा के जीवन में घटित होने वाले किसानों के प्रतिरोध का इतिहास लिखते हुए उन्होंने औपनिवेशिक दस्तावेज़ों को नए ढंग से पढ़ा और विश्लेषित किया. इस क्रम में, उन्होंने किसानों द्वारा किए जाने वाले सतर्क प्रतिरोध और सजग अनुकूलता को भी रेखांकित किया.

उनका कहना था कि किसानों को कृषक-विद्रोहों के निर्माता के रूप में देखते हुए ही हम कृषक-चेतना की निर्मिति का अध्ययन कर सकते हैं, अन्यथा नहीं. उनके अनुसार, किसानों के ये विद्रोह इस अर्थ में स्वतःस्फूर्त नहीं थे कि उन्हें बग़ैर सोचे-समझे अंजाम दिया गया. बल्कि सच्चाई इसके उलट थी. विद्रोही किसान इस बात से भली-भांति वाक़िफ़ थे कि वे क्या और क्यों कर रहे हैं और इसके क्या नतीजे हो सकते हैं.

‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का आरंभ और उसके बाद

आज से चार दशक पहले वर्ष 1982 में ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का पहला खंड प्रकाशित हुआ, जिसके संपादक रंजीत गुहा ख़ुद थे. पहले खंड में रंजीत गुहा के अलावा पार्थ चटर्जी, शाहिद अमीन, डेविड आर्नाल्ड, ज्ञानेंद्र पांडेय और डेविड हार्डिमान के लेख भी शामिल थे. आगे चलकर गौतम भद्र, स्टीफ़न हेनिंघम, अरविंद एन. दास, एनके चंद्रा, दीपेश चक्रवर्ती, सुमित सरकार, रामचंद्र गुहा, बर्नार्ड कॉन, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, तनिका सरकार, वीणा दास जैसे विद्वानों ने भी ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के विभिन्न खंडों में लेख लिखे.

उल्लेखनीय है कि ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के शुरुआती छह खंडों का संपादन रंजीत गुहा ने किया था, जो 1982 से लेकर 1989 के बीच प्रकाशित हुए.

पहले खंड की भूमिका में रंजीत गुहा ने ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के लक्ष्य को पारिभाषित करते हुए लिखा कि ‘इस श्रृंखला का उद्देश्य दक्षिण एशियाई अध्ययन के क्षेत्र में सबाल्टर्न विषयों पर सुव्यवस्थित और सुविचारित ढंग से परिचर्चा करना है.’ साथ ही, उनके अनुसार ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का लक्ष्य उस अभिजन पूर्वाग्रह को दूर करना भी था, जो दक्षिण एशियाई इतिहास से जुड़े शोधों और अकादमिक अध्ययनों में प्रायः दिखाई पड़ती है.

‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के अध्ययन के दायरे में दक्षिण एशियाई इतिहास और समाज के विविध पक्ष शामिल थे. ‘सबाल्टर्न’ शब्द के चयन ही नहीं इस पूरी परियोजना पर क्रांतिकारी इतालवी विचारक अंतोनियो ग्रामशी की गहरी छाप थी. भूमिका में रंजीत गुहा ने समान विचार रखने वाले अन्य विचारकों को सबाल्टर्न समूह से जुड़ने या सबाल्टर्न से जुड़े मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए भी आमंत्रित किया.

इसी खंड में औपनिवेशिक भारत के इतिहास लेखन के संदर्भ में सोलह बिंदुओं में रंजीत गुहा ने अपने विचार रखे, जो एक तरह से ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के घोषणापत्र सरीखे थे.

रंजीत गुहा ने लिखा कि भारतीय राष्ट्रवाद का इतिहास लेखन लंबे समय से अभिजात्यवाद के वर्चस्व में रहा है, जिसमें उपनिवेशवादी अभिजात्यवाद और बुर्जुआ-राष्ट्रवादी अभिजात्यवाद दोनों ही शामिल हैं. परस्पर विरोधी लगने वाले इन दोनों अभिजात्यवादों में एक बात साझा थी – उनका यह पूर्वाग्रह कि भारतीय राष्ट्र के निर्माण और राष्ट्रवादी चेतना के विकास की प्रक्रिया अभिजात्य वर्ग की देन है.

इतिहास लेखन के इन दो विचार-संप्रदायों के अपने महत्व के बावजूद, रंजीत गुहा ने पाया कि वे दोनों ही यह बताने या विश्लेषित करने में सक्षम नहीं थे कि इस राष्ट्रवाद के विकास और उसकी निर्मिति में लोगों ने अभिजनों के प्रभाव से इतर स्वतंत्र रूप से क्या भूमिका निभाई है. इस संदर्भ में इन दोनों विचार-संप्रदायों की संकीर्णता और उनकी सीमा को रंजीत गुहा ने पूरी स्पष्टता के साथ लक्षित किया.

उनके अनुसार, इतिहास लेखन की इन दोनों धाराओं में आम लोगों की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं थी. स्पष्ट है कि आम लोगों की राजनीति का यह दायरा न तो अभिजन राजनीति से उत्पन्न हुआ था और न ही वह उस पर निर्भर था. आम लोगों, किसानों द्वारा चलाए गए इन आंदोलनों में सक्रिय विचारधाराओं में उनके सामाजिक संगठन और दृष्टिकोणों की विविधता झलकती थी.

साथ ही, इनमें अभिजन वर्चस्व का प्रतिरोध भी अनिवार्य रूप से शामिल था. यही नहीं इन आंदोलनों की राजनीति, उनके मुहावरे और मूल्य भी अभिजन राजनीति से बिल्कुल जुदा थे.

भारतीय इतिहास लेखन और इतिहास-दर्शन की पड़ताल  

वर्ष 1987 में सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ द्वारा आयोजित सखाराम गणेश देउसकर व्याख्यानमाला के अंतर्गत उन्होंने उन्नीसवीं सदी में बंगाल में हो रहे इतिहास लेखन विशेष रूप से बंकिमचंद्र चटर्जी के इतिहास लेखन पर व्याख्यान दिया, जो ‘एन इंडियन हिस्टोरियोग्राफी ऑफ इंडिया’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.

उसी दौरान उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय विचारधाराओं व उनकी संरचना तथा संगठन और भारतीय राष्ट्रवाद के विभिन्न आयामों और उसकी विफलताओं पर भी गहराई से विचार किया. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मेरिल कॉलेज में एलुमनी प्रोफेसर के रूप में उन्होंने इन्हीं विषयों पर व्याख्यान दिए, जो बाद में पुस्तक रूप में ‘ए डिसिप्लिनरी आसपेक्ट ऑफ इंडियन नेशनलिज़्म’ शीर्षक से प्रकाशित हुए.

इसी प्रकार वर्ष 2000 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इटालियन एकेडमी फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ के आमंत्रण पर उन्होंने इतिहास लेखन और इतिहासदर्शन पर केंद्रित व्याख्यान दिए, जो ‘हिस्ट्री एट द लिमिट ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ शीर्षक से प्रकाशित हुए.

रंजीत गुहा के अनुसार, उपनिवेशवादियों ने भारत का इतिहास लिखते हुए भारतीय अतीत को मनमाने ढंग से रचा-गढ़ा. आश्चर्य नहीं कि उपनिवेशवादी नज़रिये से लिखे गए इस इतिहास का इस्तेमाल औपनिवेशिक राज्य ने अपने पक्ष में किया. रंजीत गुहा ने भारतीयों का आह्वान किया कि वे अपने इतिहास लेखन के ज़रिये भारतीय अतीत को उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त कराएं.

राजनीतिविज्ञानी पार्थ चटर्जी ने रंजीत गुहा के प्रकाशित लेखों और भाषणों का एकाग्र संकलन ‘द स्माल वॉइस ऑफ हिस्ट्री’ शीर्षक से संपादित किया. बांग्ला साहित्य और साहित्यकारों में भी रंजीत गुहा की गहरी रुचि रही. उनके गंभीर लेखन में जगह-जगह दिखने वाला मारकता की हद तक उनका व्यंग्यात्मक लहजा और उनका सहज हास्य-बोध उनकी इस साहित्यिक अभिरुचि का ही नतीजा था.

रंजीत गुहा की ये तमाम कृतियां, उनके लेख और व्याख्यान पाठकों को भारतीय इतिहास के बारे में नए सिरे-से सोचने के औजार देते हैं और आगे भी देते रहेंगे. उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए स्रोतों की विविधता और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को पढ़ने और उनके विश्लेषण की उनकी पद्धति ने भी इतिहासकारों को नई राह दिखाने का काम किया. उन्होंने सौ साल लंबा और सार्थक जीवन जिया. निश्चय ही उनका निधन भारतीय इतिहास लेखन के एक युग का अवसान है. मगर उनकी कृतियां, उनके विचार और सबाल्टर्न इतिहास के रूप में की गई उनकी पहल उन्हें आनी वाली पीढ़ियों का प्रेरणास्रोत बनाए रखेगी.

इतिहास की परिधि पर रख दिए गए हाशिए के समुदायों को इतिहास में उनका स्थान दिलाने वाले सबाल्टर्न इतिहासकार रंजीत गुहा को सलाम!

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)