क्रमागत उन्नति का सिद्धांत या थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन जीव विज्ञान को देखने का एक अनिवार्य लेंस है. इस विषय को समझने के लिए क्रमागत उन्नति को समझना बेहद ज़रूरी है.
मैं पिछले 11 साल से एक आईआईटी में पढ़ाता हूं. वैसे तो मैं एक केमिकल इंजीनियर हूं, पर पीएचडी के दौरान मेंरा रुझान जीव विज्ञान (बायोलॉजी) की ओर गया.
साल में एक बार मैं क्रमागत उन्नति यानी एवोल्यूशन पर एक पर्चा पढ़ाता हूं. अक्सर जब कक्षा में विद्यार्थियों से पूछता हूं कि उन्हें जीव विज्ञान से क्या शिकायत है, उन्हें वह विषय क्यों पसंद नहीं आता, तो जवाब आता है कि जीव विज्ञान में बहुत रटना पड़ता है. मैं यह शिकायत समझ सकता हूं. मैं इंजीनियरिंग में इसीलिए गया था क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं था कि जीव विज्ञान के विषय में कोई तर्क या संरचना नहीं थी- सिर्फ मुश्किल शब्दों को याद करना पड़ता था.
पर यह तब था जब मैंने डार्विन द्वारा प्रस्तावित ‘क्रमागत उन्नति’ का सिद्धांत नहीं पढ़ा था.
बीसवीं सदी के रूसी और अमेरिकी जीवन वैज्ञानिक दोबज़ेंस्की ने अपने एक 1973 के लेख में कुछ ऐसा लिखा जिससे मेरे विचार से जीव विज्ञान और क्रमागत उन्नति के बीच का एक रिश्ता स्थापित हो जाता है.
दोबज़ेंस्की अपने लेख का शीर्षक देते हैं- ‘हम जीव विज्ञान को सिर्फ तभी समझ सकते हैं, अगर उसे क्रमागत उन्नति की रोशनी में देखें.’
मेरे व्यक्तिगत अनुभव से यह बात बिल्कुल ठीक है.
इंसानी दिमाग रहस्यों को खोलना चाहता है, पहेलियां बूझना चाहता है, जटिल चीज़ें समझना चाहता है- ऐसा करने के लिए यह अनिवार्य है कि किसी विषय को जब पढ़ा जाए तो उसके तर्क तो समझा जाए, उसकी संरचना को महसूस किया जाए. एक बार दिमाग में यह तर्क और संरचना बैठ जाएं, तो बाकी चीज़ें अपने-आप समझ आने लगेंगी. अगर हम अपनी ऊर्जा सिर्फ तथ्य रटने में लगा देंगे तो किसी विषय कि ओर कभी आकर्षित नहीं हो सकते.
यह ऐसे भी समझा जा सकता है- जीव विज्ञान की अधिकांश शाखाएं ये बताती हैं कि कोशिकाओं की प्रक्रियाएं ‘क्या’ या ‘कैसे’ होती हैं. जैसे कि एक कोशिका के अंदर क्या-क्या है? ऐसे में हमें जो बारीकी बताई जा रही है, वह माननी ही पड़ती है. उसमें कोई विवाद या प्रश्न उठाने का दायरा नहीं है- जिसके अभाव में हमें केवल वह बारीकी रटनी पड़ती है.
अगर एक कोशिका की संरचना एक क्रमागत उन्नति की कक्षा में पढ़ाई जाए तो पूछा जाएगा कि ऐसा क्यों है कि एक कोशिका के अंदर यह सब है? क्या यह सब अनिवार्य है? क्या ऐसा भी कोई पुर्जा है जिसके बिना कोशिका का काम चल सकता है? ऐसे सवाल पूछकर हम एक विषय तो पढ़ने के ढंग को एक बिल्कुल अलग रूप दे रहे हैं.
‘क्रमागत उन्नति’ मूल रूप से एक अलग तरह की शाखा है. मेरे विचार से वह जीव विज्ञान को देखने का एक अनिवार्य लेंस है. विषय को समझने के अलावा क्रमागत उन्नति की व्यवहारिक उपयोगिता भी है.
जैसे, पिछले पचास साल में हमने देखा है कि बैक्टीरिया एंटीबायोटिक के खिलाफ लड़ना सीख गए हैं. क्रमागत उन्नति हमें यह पूछने की ताकत देती है कि ऐसा कैसे हुआ? क्या दोबारा हो सकता है? क्या हमारे एंटीबायोटिक काम करने में असफल हो जाएंगे?
या फिर, कोरोना महामारी का दौर ही देखिए, हमारे सामने वायरस क्रमागत उन्नति के सिद्धांत से बदलता गया और एक के बाद एक लहर लाता गया. अगर हमें क्रमागत उन्नति के बारे में नहीं पता तो हम उसके बदलाव को पढ़ने के प्रयास में खुद को खोया हुआ पाएंगे.
साल 2009 में ब्रिटिश लेखक और वैज्ञानिक रिचर्ड डॉकिन्स ने एक किताब लिखी. इस किताब के शीर्षक में वह क्रमागत उन्नति को ‘पृथ्वी पर सबसे नायाब प्रदर्शन‘ कहते हैं.
मेरे विचार से कोई विषय पढ़ने का अकेला मकसद उसकी सुंदरता को समझ पाना होता है. उसमें विशेषज्ञ बनना या उससे कोई व्यावहारिक फायदा निकालना- सब बाद में आता है. मुझे लगता है कि जीव विज्ञान की सुंदरता को समझने के लिए क्रमागत उन्नति समझना ज़रूरी है. जैसा कि डॉकिन्स कहते हैं- हमारे आसपास जीवन की विविधता की संरचना से बेहतरीन अजूबा कुछ नहीं है.
(लेखक आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं.)