भाजपा का भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दा धीरे-धीरे दरक रहा है और 2024 तक आते-आते स्थिति और बिगड़ सकती है. संक्षेप में कहें, तो अगर कांग्रेस कर्नाटक में अच्छी जीत दर्ज करने में कामयाब रहती है, तो 2024 के चुनावी समर के शुरू होने से पहले कर्नाटक राष्ट्रीय विपक्ष के लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर दूरगामी असर पड़ेगा. अगर कांग्रेस कर्नाटक में जीत हासिल करने में कामयाब रहती है, तो यह न सिर्फ पार्टी में एक नया जोश भरेगी, बल्कि विपक्षी एकता की राह भी तैयार करेगी. हालिया महीनों में विपक्षी एकता की कवायदें तेज होती दिखाई दी हैं. राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त किए जाने के बाद समूच विपक्ष ने एक स्वर में इसकी निंदा की. इसी तरह से जाति जनगणना के मसले पर कई क्षेत्रीय दलों के नेता एक साथ दिखाई दिए हैं.
कर्नाटक पहले से ही यह संकेत दे रहा है कि धार्मिक मठों से संचालित होने वाली स्थानीय जाति आधारित संस्कृति, हिंदुत्ववादी शक्तियों को आसानी से घुसपैठ करने देने के लिए तैयार नहीं हैं. लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों से संबंध रखने वाले शक्तिशाली मठ राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह साफ तौर पर दिखाया है कि वे हिंदुत्ववादी विचारधारा का उस तरह से समर्थन नहीं करते हैं.
इसका सबूत यह है कि जब भाजपा ने इतिहास में फेरबदल करने के अपने विचार के तहत यह प्रचारित करना शुरू कि टीपू सुल्तान वास्तव में दो वोक्कालिगा विद्रोहियों द्वारा मारे गए थे, न कि जैसा कि इतिहास बताता है अंग्रेजों के हाथों, तब एक शीर्ष वोक्कालिगा मठ के प्रमुख ने इतिहास को इस तरह से बदलने की भाजपा की कोशिश को खारिज कर दिया. एक भाजपा विधायक को इस विषय पर एक फिल्म प्रोजेक्ट को बंद करने का ऐलान करना पड़ा. ऐसा लगता है कि मठ प्रमुख ने भाजपा से कहा कि मुस्लिम और वोक्कालिगा सदियों से सौहार्द से रहते आए हैं और वे झूठे इतिहास के जरिये इस सौहार्द को बिगाड़ना नहीं चाहते हैं.
12वीं सदी के ब्राह्मण विरोधी समाज सुधार आंदोलनों से उपजे लिंगायत मठ भी हिंदुत्व को लेकर सशंकित हैं, हालांकि बीएस येदियुरप्पा, जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी जैसे लोकप्रिय लिंगायत नेताओं के साथ सत्ता में उनका दखल रहा है. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने शेट्टार और सावदी का इस बार पत्ता काट दिया, लेकिन वह आज भी अनिच्छा के बावजूद लिंगायत वोटों के लिए येदियुरप्पा पर आश्रित है. इसका मकसद आने वाले समय में लिंगायत नेताओं पर नकेल कसने और राज्य में एक ऐसे नेतृत्व का विकास करना है, जो अनिवार्य रूप से लिंगायतों पर निर्भर रहने की जगह एक व्यापक हिंदुत्व वोट बैंक का विकास कर सके.
येदियुरप्पा और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच स्थायी तनातनी की जड़ यही है. येदियुरप्पा भी मुस्लिम समुदाय के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने में दृढ़ यकीन करते हैं और वे भाजपा के आक्रामक बहुसंख्यकवादी रणनीति का समर्थन नहीं करते हैं. इसलिए यहां हिंदुत्व स्थानीय जाति या धार्मिक संस्कृतियों, जिनका प्रादुर्भाव ब्राह्मणवाद विरोध पर आधारित सामाजिक सुधार आंदोलनों से हुआ है, के खिलाफ खड़ा होता रहता है.
निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा इस सामाजिक इतिहास को बदलना चाहती है, लेकिन अभी तक उन्हें उनके प्रयासों का फल नहीं मिला है. ओल्ड मैसूर, चिकमंगलूर, हासन, शिवामोगा और हुबली की यात्रा के दौरान हिजाब, लव जिहाद, समान नागरिक संहिता या एनआरसी जैसे हिंदुत्ववादी मुद्दे कहीं सुनाई नहीं दिए, जिन्हें भाजपा ने अपने घोषणापत्र में शामिल किया है. जनता के बीच ये मुद्दे नहीं हैं. यहां तक कि राजनीतिज्ञ भी इसके बारे में बात नहीं कर रहे थे.
निश्चित तौर पर तटीय कर्नाटक (मेंगलुरू-उडुपी का इलाका) में हिंदुत्ववाद राजनीति ने अपनी पैठ बनाई है, लेकिन शेष कर्नाटक अभी भी साफ तौर पर स्थानीय जाति संस्कृतियों से निर्देशित होता है. यह एक तरह से विपक्ष की जाति जनगणना की तीव्र होती मांग के अनुकूल है.
अगर कांग्रेस सरकार विरोधी मजबूत लहर का फायदा उठाने में कामयाब रहती है, तो यह विपक्ष को हिंदुत्व की काट के तौर पर राजनीति के प्रति ज्यादा तार्किक और समानतामूलक जाति आधारित रणनीति को अपनाने के लिए प्रेरित करेगा. खासकर तब जब आरक्षण की नीति के दायरे में सभी जातियां आ जाएंगी.
कर्नाटक के चुनाव में महत्वपूर्ण एक मुद्दा, जो केंद्र में भी भाजपा की छवि को प्रभावित करता है, वह है राज्य में भ्रष्टाचार का स्तर. भ्रष्टाचार हर समय, हर जगह एक मुद्दा है, लेकिन कर्नाटक में भ्रष्टाचार जिस स्तर पर है, जिसने ‘40 परसेंट सरकार’ के नारे को जन्म दिया, वह निश्चित तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की छवि को नुकसान पहुंचाएगा. जैसा कि सिद्दारमैया ने कहा, ‘मोदी जी के न खाऊंगा, न खाने दूंगा के वादे का क्या हुआ?’ मोदी राज्य पूरी ताकत लगाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने एक बार भी ‘40 परसेंट सरकार’ के आरोप का जवाब देने की कोशिश नहीं की है.
भाजपा का भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दा धीरे-धीरे दरक रहा है और 2024 तक आते-आते स्थिति और बिगड़ सकती है. संक्षेप में कहें, तो अगर कांग्रेस कर्नाटक में अच्छी जीत दर्ज करने में कामयाब रहती है, तो 2024 के चुनावी समर के शुरू होने से पहले कर्नाटक राष्ट्रीय विपक्ष के लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है.
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