बीते कुछ समय से भाजपा, आरएसएस तथा उनके द्वारा पोषित-समर्थित अन्य संगठन सनातन शब्द के प्रयोग पर ज़ोर देते नज़र आ रहे हैं. क्या वे हिंदुत्व शब्द से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? सांप्रदायिक और दमनकारी हिंदुत्व की राजनीति के कारण भाजपा और संघ की बदरंग हुई छवि क्या सनातन शब्द से उजली हो जाएगी?
पिछले 4-5 महीने से भाजपा और आरएसएस हिंदू के स्थान पर सनातन शब्द का प्रयोग कर रहे हैं. साथ ही भाजपा-संघ पोषित-समर्थित अन्य हिंदुत्ववादी संगठन, धार्मिक संत और गोदी मीडिया के एंकर भी सनातन का जाप करने लगे हैं. इतना औचक और एक साथ घटित होने वाला यह विमर्श क्या महज संयोग हो सकता है?
जाहिर तौर पर, नहीं. तब यह सवाल पूछना लाजमी है कि हिंदुत्व या हिंदू धर्म के स्थान पर सनातन शब्द के प्रयोग के मायने क्या हैं? क्या आरएसएस और भाजपा हिंदुत्व शब्द से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? इसके पीछे क्या कोई सोची- समझी चाल है? हिंदुत्व के जरिये दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों में जो खौफ पैदा किया गया था, क्या शब्द बदलने मात्र से इसका दाग मिट जाएगा? सांप्रदायिक और दमनकारी हिंदुत्व की राजनीति के कारण भाजपा और आरएसएस की बदरंग हुई छवि क्या सनातन शब्द से उजली हो जाएगी?
दरअसल, सनातन शब्द के जरिये संघ और भाजपा हिंदुत्व पर होने वाले सवालों को भुलाना चाहते हैं. इसलिए इसके प्रयोग के कई कारण हैं. इसका पहला कारण हिंदू शब्द है. हिंदू शब्द का इतिहास भारत में मुसलमानों के आगमन से जुड़ता है. वस्तुत: हिंदू फारसी भाषा का शब्द है. हिंदू शब्द की व्युत्पत्ति और उसकी जाति (नेशनलिटी) के बारे में उद्धृत करते हुए हिंदुत्व के आलोचक इसे विदेशी ही नहीं बल्कि मुसलमानों से भी जोड़ते हैं. ऐसे में हिंदुत्ववादियों का मुसलमानों के खिलाफ खड़ा नैरेटिव भोथरा हो जाता है.
प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति, इतिहास और एक अर्थवत्ता होती है. सनातन संस्कृति का मतलब है, प्राचीन आर्य या वैदिक संस्कृति. आज इस शब्द प्रयोग के मायने है; सनातन संस्कृति की वापसी.
वैदिक संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था की वीभत्सता और द्विजों का सांस्कृतिक वर्चस्व निहित है. संघ सनातन शब्द के जरिये जातिगत चेतना के उभार को कुंद करना चाहता है. इसके स्थान पर वर्ण व्यवस्था को मजबूत करना चाहता है. इसका मकसद, पिछले तीन दशक में मजबूत हुई जाति आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति को अप्रासंगिक बनाना भी है.
लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण आंबेडकरवादी विचारधारा है. 20वीं सदी अगर गांधी और नेहरू की थी, तो 21वीं शताब्दी डॉ.भीमराव आंबेडकर की है. आंबेडकरवादी, आज हिंदुत्व का सबसे मजबूती से मुकाबला कर रहे हैं. हिंदुत्व के मुकाबले प्रतिरोध की सबसे निर्भीक और बुलंद आवाज आंबेडकरवाद है.
आज आंबेडकरवाद भारत की सरहदों को लांघकर विकसित दुनिया के देशों में अपना परचम लहरा रहा है. यह विचार दलितों- वंचितों की सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी, बहुजन अस्मिता तथा उनकी प्रखर बौद्धिकता का प्रतीक बन गया है. ‘जय भीम’ के नारे की गूंज यूएनओ तक पहुंच चुकी है.
सोशल मीडिया के जरिये भारत में दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर विकसित देशों में रहने वाले आंबेडकरवादी निरंतर विरोध दर्ज करते हैं. इसके जरिये हिंदुत्व के आक्रमण और उसकी अमानवीयता का पर्दाफाश करते हैं. इन प्रदर्शनों के जरिये भारत की दक्षिणपंथी हिंदूवादी सत्ता का दलित वंचित विरोधी अमानवीय चेहरा बेनकाब होता है. इन तमाम प्रदर्शनों में बाबासाहेब आंबेडकर की हिंदुत्व संबंधी चेतावनी और आलोचनाओं को बार-बार दोहराया जाता है.
दरअसल, आंबेडकर ने बहुत स्पष्ट तौर पर हिंदू राष्ट्र के विचार को खारिज करते हुए देश को आगाह किया था. उन्होंने 1940 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘अगर भारत में हिंदू राष्ट्र स्थापित होता है तो यह दलित वंचितों के लिए बहुत बड़ी आपदा साबित होगा. हिंदू कुछ भी कहें लेकिन हिंदुत्व समता, न्याय और बंधुत्व में विश्वास नहीं करता. इसलिए इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए.’
उन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘पाकिस्तान: द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में भी इस विचार को दोहराया. अंग्रेजी राज से इसकी तुलना करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा था कि ‘दलितों के लिहाज से हिंदू भारत, अंग्रेजी भारत से अधिक क्रूर साबित होगा.’
1940 तक आंबेडकर जाति के सवाल पर गांधी से बार-बार टकराते रहे. दोनों नायकों के बीच संवाद-विवाद निरंतर चलता रहा. परस्पर सम्मान भाव में लिपटे दोनों बौद्धिक और स्वतंत्रता प्रेमी एक दूसरे से प्रभावित भी होते हैं. गांधी के भीतर आंबेडकर की झलकियां दिखने लगती हैं. आंबेडकर भी गांधी को उनके अर्थ में समझने लगते हैं. इसके बाद आंबेडकर आने वाले वक्त के सबसे बड़े खतरे यानी हिंदू राष्ट्रवाद से रूबरू होते हैं.
संविधान निर्माण के समय भी वे इस खतरे का सामना कर रहे थे. आरएसएस और हिंदू महासभा ने खुलकर आंबेडकर और नवनिर्मित संविधान की खोटे शब्दों में निंदा की. संविधान पर विदेशी प्रभाव होने और मनुस्मृति को अनदेखा करने के आरोप लगाए गए. उनके लिए ‘एक अछूत द्वारा लिखा गया संविधान अस्वीकार्य’ था.
कानून मंत्री के तौर पर हिंदू कोड बिल पेश करते समय राम राज्य परिषद के करपात्री द्वारा डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया गया. इन हालात का सामना करते हुए आंबेडकर दलितों की आजादी के लिए नए रास्ते का संधान करते हैं.
13 अक्टूबर 1935 को येवला (नासिक) में किए गए ऐलान को पूरा करने के लिए वे आगे बढ़ते हैं. 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की धम्मभूमि में अपने 380,000 अनुयायियों के साथ बाबा साहब ने हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया. कर्मकांड विहीन, अनीश्वरवादी बिना किसी दैवीय किताब वाले बौद्ध धर्म को बाबा साहब इसलिए भी स्वीकारते हैं, क्योंकि इसमें व्यक्ति और उसके विवेक को महत्ता प्राप्त है.
बौद्ध धर्म समाज में समता, न्याय और बंधुत्व को स्थापित करता है. इससे बढ़कर एक कारण यह भी था कि हिंदुत्व बनाम बुद्धिज्म के संघर्ष का अपना इतिहास है. भारत में एक मात्र बौद्ध धर्म है जिसने जाति और असमानता के खिलाफ संघर्ष में कभी हार नहीं मानी.
बाबा साहब आंबेडकर ने आने वाले वक्त में होने वाले हिंदुत्व के आक्रमण की आहट को सुन लिया था. इसलिए हिंदुत्व के मुकाबले उन्होंने अपने समाज को बौद्ध धर्म का रास्ता दिखाया. लेकिन दुर्योग से दलित वंचित समाज लंबे समय तक हिंदुत्व के खतरे को न भांप सका और न ही बाबा साहब के दिखाए रास्ते की ओर बढ़ सका. धीरे-धीरे झूठ, फरेब, नफरत और हिंसा के सहारे हिंदुत्व की राजनीति लोकतंत्र की गर्दन पर सवार होकर सत्ता तक जा पहुंची.
2019 की दूसरी बड़ी चुनावी सफलता के बाद हिंदुत्व का आक्रमण और अधिक तीव्र हुआ. इसके समानांतर दलित वंचित बहुजन समाज बाबा साहब के विचारों, बौद्ध धर्मांतरण और 22 प्रतिज्ञाओं की ओर बढ़ चला. ये प्रतिज्ञाएं सीधे तौर पर हिंदू धर्म के प्रतीकों को खारिज करती हैं.
आंबेडकरवाद के बढ़ते सांस्कृतिक जागरण से घबराकर हिंदुत्ववादियों ने अपने वर्चस्व और शोषण तंत्र को बचाए रखने के लिए सनातन शब्द को पुनर्जीवित किया है. संघ की यह रणनीति उसके इतिहास का पुनरावृति है.
जिस तरह पहले वेदों, स्मृतियों, पुराणों और भागवत के जरिये समता, न्याय और बंधुत्व की वकालत करने वाले विचारों को खामोश कर दिया गया दिया और असमानता, अन्याय और शोषण पर आधारित वर्ण व्यवस्था को बनाए रखा गया. ब्राह्मणों के नेतृत्व में द्विजों का वर्चस्व जारी रहा. दरअसल, यही सनातनता है; द्विजों का सांस्कृतिक-आर्थिक वर्चस्व और शूद्रों, दलितों, स्त्रियों की गुलामी.
किंचित पालि ग्रंथों में बौद्ध धर्म को भी सनातन कहा गया है. पुष्यमित्र शुंग काल में बौद्धों का कत्लेआम किया गया. उनके मठों, विहारों और पुस्तकालयों को उजाड़ दिया गया. इससे भी बौद्ध धर्म नष्ट नहीं हुआ तो उसका समाहार कर लिया गया.
बौद्ध धर्म की क्रांति की धार को कुंद करने के लिए तथागत बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार घोषित कर दिया गया. इसी के साथ पचास से अधिक देशों में फैला 10 फीसदी आबादी वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय बौद्ध धर्म अपनी जन्मस्थली से लगभग गायब हो गया.
बाबा साहब के धर्मांतरण के समय बौद्ध धर्म के परंपरागत अनुयायी पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों (पश्चिम बंगाल, असम, सिक्किम, मिजोरम और त्रिपुरा) और ऊंची हिमालय चोटियों (जम्मू कश्मीर का लद्दाख, हिमालय प्रदेश और उत्तरी यूपी) में अत्यंत छोटी आबादी में सिमटे हुए थे. आज भी बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्या एक फीसद से नीचे है. लेकिन दलित-पिछड़े बौद्ध धर्म और आंबेडकरवाद के जरिये जिस तरह हिंदुत्व के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं, उससे आरएसएस बेचैन है. इसीलिए उसने अपने सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श को बदलने के लिए सर्वत्र सनातन शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया है. लेकिन संघ क्या अपने मंसूबों में कामयाब हो पाएगा?
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)