मैं इस सिस्टम से नाराज हूं. मुझे इस पर गुस्सा है क्योंकि ये सिर्फ दिखावा करता है कि इसे हमारी फिक्र है पर असलियत इसके उलट है.
पिछले दिनों जयपुर में अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान बॉलीवुड के मशहूर फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली से ‘करणी सेना’ नाम के एक संगठन ने मारपीट की. संगठन के अनुसार भंसाली ने अपने फिल्म पद्मावती की स्क्रिप्ट लिखते समय ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की है.
वैसे ये भी दिलचस्प है कि इस संगठन ने न तो पद्मावती की स्क्रिप्ट पढ़ी है और न वे फिल्म देखने का दावा कर रहे हैं. इस बात से ही साबित हो जाता है कि देश में भीड़ के लिए फिल्मों से जुड़े किसी व्यक्ति को अपना शिकार बनाना कितना आसान है.
और फिर हमने देखा कैसे बॉलीवुड की ये फिल्म बिरादरी सिर्फ हैशटैग के रूप में भंसाली के साथ खड़ी हुई, उन्होंने इस घटना की ‘आलोचना’ भी की. हमेशा की तरह प्रशासन ने इस घटना पर लंबी चुप्पी साधी और फिर किसी घटना का नाम लिए बिना गुंडागर्दी और हिंसा की निंदा कर दी.
मैंने भी इस घटना पर अपना रोष व्यक्त किया पर शायद मेरे शब्दों का चुनाव इस घटना में शामिल हुए गुंडों की समझ जितना ही खराब था.
You violate my freedom, I will violate your rules. I will not rise for the national anthem before a film.
— Hansal Mehta (@mehtahansal) January 28, 2017
इस ट्वीट के बाद तो भंसाली की ही तरह वैसी ही एक भीड़ का निशाना मैं भी बना. ढेरों ट्वीट आने लगे, मुझे ट्रॉल किया जाने लगा. गालियां दी जाने लगीं, उस धर्म को कोसा गया जिसे मैं मानता तक नहीं हूं, उस देश को गालियां दी गईं मैं जहां का नागरिक नहीं हूं. नैतिकता और भारतीय संस्कृति के इन स्वघोषित ठेकेदारों ने मुझे हर उस बात का जिम्मेदार बताया जिसे ये लोग एंटी-नेशनल या देश विरोधी कह सकते थे.
वैसे संस्कृति की वकालत करने वाले इन लोगों की इस प्रतिक्रिया में इनकी ‘शिष्टाचार संस्कृति’ का कोई निशान नहीं मिला. उस एक ट्वीट के बाद उसे स्पष्ट करते हुए मेरे बाकी ट्वीट जाहिर तौर पर नजरअंदाज कर दिए गए. ऐसी भीड़ सिर्फ गुस्से को निकालने का जरिया ढूंढती है न कि किसी तार्किक बहस का.
इस लेख के जरिये मैं अपनी उस बात को और स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा, जिसे मैं ट्विटर की 140 शब्दों की सीमा में साफ नहीं कह सका था. मुझे लगता है कि अपनी बात साफ तौर पर रखना सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि उन सब लोगों के लिए भी जरूरी था जिन्हें मेरी ही तरह नकाब के पीछे छिपे इन कायर, बेनाम लोगों ने ढेरों गालियां देकर चुप करा दिया था.
ये लेख उन आवाजों के लिए भी है, जो आज भी इस बढ़ती हुई हिंसा और तर्कहीनता के दौर में समझदारी की उम्मीद रखते हैं, उनके लिए जो इसके खिलाफ खड़े होने के बजाय चुप्पी साध लेना बेहतर समझ लेते हैं. यह लेख सिर्फ मेरे विचार नहीं हैं बल्कि मेरे जैसे कई और भी इससे इत्तेफ़ाक रखते होंगे.
लोगों ने मुझे लेकर तो अपना फैसला सुना दिया पर मेरी बात तो पूरी सुनी ही नहीं गई. और शायद इस गाली-ब्रिगेड से मेरी असली परेशानी यही है. आप जैसे ही कोई आवाज उठाते हैं, ये तुरंत किसी जंग के सिपाही जैसे सक्रिय होते हैं और मिलकर आप पर टूट पड़ते हैं.
यहां मैं ये भी साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है, मैं हमेशा से इस पूरे सिस्टम के खिलाफ रहा हूं. मेरे लिए भाजपा, कांग्रेस (या ऐसे कोई भी दल) महज अवसरवादियों के किसी समूह को दिए गए नाम भर हैं, ये अवसरवादी जो जनता पर शासन करने, उसे संभालने के बजाय उसे नियंत्रित करना चाहते हैं.
और ये पूरा सिस्टम प्रगति और लोकतंत्र के नाम पर धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद और न जाने किस-किस कट्टरता की आड़ में हो रही गुंडागर्दी को मेरे संवैधानिक अधिकारों से ज्यादा महत्व देना चाहता है. मैं न केवल इस तरह के नियंत्रण का विरोध करता हूं बल्कि इसे ख़ारिज भी करता हूं.
मैं इस सिस्टम से नाराज हूं. मुझे इस पर गुस्सा है क्योंकि ये सिर्फ दिखावा करता है कि इसे हमारी यानी जनता की फिक्र है पर असलियत ऐसी नहीं है. बोलने की आजादी, विरोध करने की आजादी, अपनी बात कहने की आजादी… ये मेरी उतनी ही हैं जितनी ये सिस्टम मुझे देना चाहता है.
और अगर मेरी या मेरे किसी साथी कलाकार की इस स्वतंत्रता पर कोई हमला होता है तो मुझे गुस्सा आना स्वाभाविक है. जब तक किसी लोकतंत्र में मेरे संवैधानिक अधिकारों का ध्यान रखा जा रहा है, मुझे लेफ्ट, राइट, सेंटर या ऐसी किसी भी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है.
लगातार किसी न किसी कट्टर समूह द्वारा कलाकारों से बद्तमीज़ी का विरोध करने के लिए जब मैंने कहा कि मैं सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजने पर खड़ा नहीं होऊंगा तब मेरा मजाक बनाया गया, ट्रॉलिंग की गई, मेरे परिवार, धर्म, देशभक्ति और न जाने किन-किन बातों पर मुझे गालियां दी गईं.
उन गालियों के पीछे कोई नाम नहीं है, कोई चेहरा नहीं है. मेरा इस बात को कहने का आशय क्या था, ये किसी ने समझा ही नहीं, समझना तो दूर किसी ने जानने की कोशिश तक नहीं की. मेरा यह बयान प्रतीकात्मक था. अगर यह सिस्टम मेरे मूलभूत अधिकार के हनन को (अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही) समर्थन देगा तो मैं भी इसके द्वारा मुझ पर थोपे जा रहे नियमों को न मानकर अपना विरोध दर्ज कराऊंगा.
आप सोच सकते है कि इससे होगा क्या? मुझे लगता है कि मेरे नियम न मानने से सिस्टम चलाने वाले तबके में रोष पैदा होगा और उस रोष के बहाने से ही सही उनका ध्यान हमारी परेशानियों की ओर तो जाएगा, जिसे वो कब से जान-बूझकर नजरअंदाज करते आ रहे हैं.
अगर यह सिस्टम मेरे मन में अपने प्रति यकीन नहीं ला सकता तो मेरे लिए उसकी बात न मानने का ही विकल्प बचता है. मैं समझता हूं कि यह बहुत सुखद स्थिति तो नहीं है पर अगर मुझे मेरे संवैधानिक अधिकार ही नहीं मिल रहे हैं तो वो स्थिति इस बात से भी ज्यादा तकलीफदेह है.
17 साल पहले जब खुद को शिवसेना से संबद्ध बताने वाले गुंडों ने मुझ पर हमला किया था, (उन्हें मेरी फिल्म ‘दिल पे मत ले यार’ के किसी डायलॉग पर आपत्ति थी, मैं आज तक नहीं जानता कि वो कौन-सा डायलॉग था) तब वे जबर्दस्ती मेरे दफ्तर में घुसे, वहां तोड़-फोड़ की, मेरे चेहरे पर कालिख पोती, तब न ही ये सिस्टम मेरे साथ खड़ा हुआ न बॉलीवुड से कोई और.
मैं उन पर आरोप नहीं लगा रहा हूं. उनकी गलती नहीं है. उस वक्त ट्विटर नहीं था, हैशटैग नहीं थे, आखिर कैसे वो मुझे सपोर्ट करते! किसी के पास अपने कंप्यूटर या मोबाइल स्क्रीन के सामने आराम से बैठे-बैठे मुझे सपोर्ट करने (या गाली देने) का कोई विकल्प ही नहीं था. हालांकि मुझे लगता है कि अगर वो विकल्प होता भी तो ये मसला भी एक हैशटैग भर बनकर रह जाता, मेरा कालिख लगा चेहरा लोगों की टाइमलाइन और टैबलॉयड पर छा जाता!
तबसे अब तक बहुत कम ही बदलाव आए हैं. हां, मेरी सोच जरूर बदली है. अब मुझे लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री से किसी समर्थन की उम्मीद रखना ही बेमानी है. लोग हमें ‘फिल्म फ्रैटरनिटी’ कहते हैं. फ्रैटरनिटी यानी बिरादरी, बंधुत्व पर मुझे लगता है कि खुद को बंधुता जैसे शब्द के साथ जोड़ना ठीक नहीं होगा. हम सिर्फ जश्न मनाने के लिए ही साथ आते हैं, दुख या परेशानी बांटने के नहीं.
हम अपनी दुर्दशा का रोना तो रोते हैं पर इसकी असलियत जानना नहीं चाहते. दुश्मन के साथ रहते हुए सोचते हैं कि वो हमें नुकसान न पहुंचाए. हमारी फिल्मों की तरह ही हम सुविधाजनक और सरल ज़िंदगी चाहते हैं. हम समस्याओं की गंभीरता समझने के बजाय हर जगह एडजस्ट होकर संतुष्टि महसूस करने लगते हैं.
मैं ये लेख शिकायत के तौर पर नहीं लिख रहा हूं न ही मैं चाहूंगा कि ये किसी तरह निराशा पर खत्म हो. मैंने 17 साल पहले यही गलती की, मैं लगभग एक दशक तक बिना किसी सशक्त आवाज या विवेक की फिल्में बनाता रहा. अब मैं फिर ऐसा नहीं होने दूंगा. ये सिस्टम अब मेरी या मेरी किसी फिल्म की आवाज नहीं दबा सकता.
मैं बिना किसी डर या पक्षपात के अपनी फिल्मों या सोशल मीडिया की मदद से अपनी बात रखता रहूंगा. इस लेख को लिखने के बाद मुझे उम्मीद है कि हम जैसे कईयों के प्रतिरोध की ये आवाजें कभी तो उन सभी की आवाज बनेगी जो चाहते हैं कि संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए उनकी स्वतंत्रता को उचित सम्मान दिया जाए.
मुझे ये भी उम्मीद है कि हमारा ये विरोध हैशटैग से आगे बढ़ेगा, इस पर सिस्टम चला रहे लोगों का ध्यान जाएगा और शायद कोई एक्शन भी लिया जाएगा. इसके साथ मेरी एक उम्मीद ये भी है कि जो हमें नियंत्रित करने की कोशिश करना चाहते हैं, वे शायद समाज के लिए खतरा बनते जा रहे इन लोगों को काबू करने की कोशिश करेंगे.
मैं आशा करता हूं कि कहीं न कहीं से फिर एक नई शुरुआत होगी. मेरा विश्वास है कि इस उन्माद से भरे दौर में भी बहुत से समझदार, संवेदनशील लोग बचे हुए हैं, जो आखिरकार जीतेंगे.
और मैं अपने उन ढेरों अनाम ‘फैन्स’ को कोई प्रतिक्रिया दिए बिना कैसे इस लेख को खत्म कर सकता हूं, जो लगातार ट्विटर पर मुझसे जवाब-तलब कर चुके हैं. किसी ने मुझे कहा कि मुझमें हिम्मत है तो मोहम्मद साहब पर फिल्म बनाकर दिखाऊं. मेरा उन्हें जवाब है कि अगर कोई अच्छी और दमदार स्क्रिप्ट हुई तो मैं जरूर इस विषय पर भी फिल्म बनाऊंगा.
मैं गलत को गलत कहने में कभी नहीं हिचकता भले ही वो किसी भी धर्म, जाति, रंग या राजनीतिक विचारधारा से ताल्लुक रखता हो. किसी ने मुझसे कहा कि मुझे हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चले जाना चाहिए. बिल्कुल, मैं बिल्कुल वहां जाना चाहूंगा. मुझे वहां का खाना बहुत पसंद है, वहां का संगीत बहुत पसंद है.
मैं वहां के कलाकारों को जितना पसंद करता हूं, मुझे इन कुंठित नफरत फैलाने लोगों से उतनी ही नापसंदगी है. मैं जितना प्यार हिंदुस्तान को करता हूं उतना ही पाकिस्तान को करता हूं. मैं इस्लाम की उतनी ही इज्जत करता हूं, जितनी अपने धर्म की और मुझे धर्म के नाम पर नफरत बो रहे कट्टरपंथियों से नफरत है भले ही ये किसी भी धर्म या देश के हों.
इसके अलावा जिन लोगों ने मुझे नीचा दिखने की नीयत से चुन-चुनकर नई-नई गालियां दी हैं, उनसे मैं बस यही कहूंगा कि उन्हें अपना ये टैलेंट, अपनी ये रचनात्मकता किसी और बेहतर काम में लगानी चाहिए.
रुकिए! पिक्चर अभी बाकी है…
लेख खत्म करने के बाद मुझे पता चला कि संजय लीला भंसाली प्रोडक्शन और उस ‘सेना’ के बीच शायद कोई समझौता हो गया है. समझौता किस तरह का है इसके बारे में तो कोई खास जानकारी नहीं है पर इससे एक बात तो साफ हो गई है कि फिर एक बार एक और फिल्मकार को धौंस देकर अपनी बात मनवाई गई है.
एक ऐसा निर्देशक जिसे पिछले ही साल पद्मश्री से नवाज़ा गया था, उसकी इज़्जत यूं उछाली गई. अगली बार ऐसा होने तक चाहे तो हम इसकी आलोचना कर सकते हैं, भंसाली से हमदर्दी रख सकते हैं या फिर इस पर बिना ध्यान दिए इसे जाने देने का भी विकल्प सामने है!