कर्नाटक चुनाव परिणाम: पार्टी में विकेंद्रीकरण कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुआ है

मोदी-शाह की जोड़ी राज्य स्तर पर पार्टी संगठनों पर कड़ा नियंत्रण चाहती है और सभी मुख्यमंत्रियों को अपने अधीन रखना चाहती है. हालांकि, हाल के चुनावों में कांग्रेस ने विकेंद्रीकरण को अपनाते हुए राज्य के नेताओं को आगे रखा है.

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कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान डीके शिवकुमार और सिद्धरमैया. (फोटो साभार: फेसबुक/@Siddaramaiah.Official)

मोदी-शाह की जोड़ी राज्य स्तर पर पार्टी संगठनों पर कड़ा नियंत्रण चाहती है और सभी मुख्यमंत्रियों को अपने अधीन रखना चाहती है. हालांकि, हाल के चुनावों में कांग्रेस ने विकेंद्रीकरण को अपनाते हुए राज्य के नेताओं को आगे रखा है.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान डीके शिवकुमार और सिद्धरमैया. (फोटो साभार: फेसबुक/@Siddaramaiah.Official)

कुछ गंभीर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जिस तरह भाजपा पार्टी संगठन के प्रबंधन, विशेष रूप से राज्य चुनावों की रणनीति बनाने के संदर्भ में केंद्रीकरण को मूल में रख रही है, यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा 1970 और 1980 के दशक की कांग्रेस में होता था.

कर्नाटक के चुनावों ने विशेष रूप से इस उलटफेर की मिसाल पेश की, जिसमें भाजपा के राज्य नेतृत्व को मोदी-शाह की जोड़ी ने व्यवस्थित रूप से कम आंका, वहीं कांग्रेस ने राज्य के अपने नेताओं को चुनाव के लगभग सभी पहलुओं को प्रबंधित करने की पूरी आजादी दी, जिसमें नई दिल्ली बहुत कम हस्तक्षेप था.

द वायर  सहित पांच ऑनलाइन समाचार संगठनों द्वारा चुनाव परिणामों पर आयोजित लाइव चर्चा में भाग लेने वाले प्रसिद्ध राजनीतिक वैज्ञानिक और कर्नाटक के जानकार जेम्स मैनर ने कहा कि कांग्रेस (पढ़ें- गांधी परिवार) ने अतीत में मुख्यमंत्री पद के एकतरफा दावेदारों को थोपकर बहुत बड़ी गलतियां की थीं, जिससे राज्य नेतृत्व कमजोर हो रहा था. उनका कहना था कि कांग्रेस ने अपनी गलतियों से सीखा है और कर्नाटक चुनाव के नतीजे संभवतः उसी का प्रतिबिंब हैं.

दूसरी ओर, भाजपा ने यह सुनिश्चित किया है कि राज्य स्तर पर कोई भी शक्तिशाली नेता न उभरे, जैसा कि 2019 के बाद हुए अधिकांश विधानसभा चुनावों में देखा गया है, चाहे वह महाराष्ट्र हो, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश या झारखंड. इस फेहरिस्त में योगी आदित्यनाथ एकमात्र अपवाद नजर आते हैं, जो विभिन्न कारणों, जिन्हें यहां विस्तार से बताने की ज़रूरत नहीं लगती, के चलते शक्ति के एक स्वतंत्र केंद्र के रूप में उभर रहे हैं.

बड़ी बात यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी राज्य स्तर पर पार्टी संगठनों पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहती है और सभी मुख्यमंत्रियों को अपने अधीन करना चाहती है.

यह केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और अब कर्नाटक जैसे राज्यों में चुनावों के विकेंद्रीकृत होने के तरीके के ठीक उलट है. बेशक, कभी-कभी, इस तरह के विकेंद्रीकरण के कारण कई शक्ति केंद्र उभरने के चलते चीजें अराजक हो जाती हैं. ऐसा मध्य प्रदेश में देखा गया था और वर्तमान में राजस्थान में देखा जा रहा है. छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री पद के एक से बढ़कर एक मुखर दावेदार रहे हैं.

राज्य के नेताओं द्वारा ऐसा दावा इंदिरा गांधी के समय में नहीं सुना गया था, जब राज्य के नेता सार्वजनिक रूप से कुछ बोलने से डरते थे. यहां तक कि राजीव गांधी में भी राज्य स्तर के नेताओं को चुप करा देने, यहां तक कि अपमान करने की प्रवृत्ति थी.

इसमें अब आंशिक तौर पर बदलाव आता देखा जा रहा है क्योंकि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद गांधी परिवार की अपने बलबूते पर मतदाताओं को खींचने की क्षमता में गिरावट आई है. लेकिन वे अब भी उस शक्ति के रूप में काम कर रहे हैं जो बीते कुछ सालों में विभिन्न राज्यों में कई वरिष्ठ नेताओं द्वारा साथ छोड़े जाने के बावजूद पार्टी को साथ जोड़े हुए है.

गांधी परिवार ने यह समझ लिया है कि कांग्रेस अब केवल अधिक विकेंद्रीकृत प्रारूप में पुनर्जीवित हो सकती है. एक तरह उन्होंने अब राज्य के मजबूत नेताओं के साथ नया समझौता किया है. कुछ साल पहले मैंने कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा (अब दिवंगत) से पूछा था कि राहुल गांधी केरल नेतृत्व के लिए इतना सम्मान क्यों दिखाते हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस के केंद्रीय निर्णय लेने में भी केरल का असमान प्रभाव है. वोरा ने कहा था कि केरल कांग्रेस एक बढ़िया, विकेंद्रीकृत पार्टी मशीनरी है जो खुद अपने मामले संभालती, अपना फंड खुद जुटाती है, चुनाव लड़ती है और कांग्रेस को समग्र रूप से मजबूत करने में मदद करती है.

कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश भी वोरा की नई विकेंद्रीकृत कांग्रेस की परिभाषा में अच्छी तरह से फिट हो सकते हैं. अगर पार्टी 2024 में भाजपा को हराने की उम्मीद कर रही है, तो यह बात मोदी-शाह की जोड़ी के मुकाबले कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत बनी रहनी चाहिए.

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