पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक भारतीय उपमहाद्वीप में आए दिन किसी न किसी की आहत भावनाओं की बात होती रहती है और उसकी स्वाभाविक प्रतिकिया के तौर पर उत्पाती समूहों द्वारा इसका बदला लेने के लिए की गई हिंसा की ख़बर आती रहती है, लेकिन सवाल है कि आख़िर किसकी भावनाएं आहत होती हैं?
आए दिन किसी न किसी की आहत भावनाओं की- फिर चाहे किसी फेसबुक पोस्ट से उपजा बवाल हो या किसी का वक्तव्य हो या किसी रचना में खास समुदाय विशेष को लेकर की गई कुछ बातें हों- बात होती रहती है और गोया उसकी स्वाभाविक प्रतिकिया के तौर पर उत्पाती समूहों द्वारा इसका बदला लेने के लिए की गई हिंसात्मक कार्रवाइयों की ख़बर आती रहती है, जिनमें अक्सर कानून के रखवाले कहने वाले लोगों के निर्विकार मौन या तटस्थता की खबरें भी सुर्खियां बनती हैं.
लेकिन पिछले कुछ समय से इसी से जुड़ा एक सवाल अधिक मौजूं होता दिख रहा है और जो कहीं-कहीं दबी जुबान से ही सही उठ रहा है, सुदूर कराची से होते हुए पटियाला तक या उत्तराखंड के गांव से होता हुआ यह सवाल बांग्लादेश में पहुंचता दिखा है. सवाल यही है कि आखिर किसकी भावनाएं आहत होती हैं?
पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की अहमदिया जमात में इसे इन दिनों बख़ूबी सुन सकते हैं, जहां इस अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े एक जाने-माने और काबिल वकील पर ईशनिंदा के आरोप लगाए गए हैं और जिसकी परिणति मौत या लंबे कारावास में होने की संभावना है. मामला उस शिकायत से जुड़ा है जिसके तहत एक सहयोगी वकील ने उन पर आरोप लगाए हैं कि किसी मामले की पेशी के वक्त शपथपत्र दाखिल करते हुए उन्होंने अपने नाम के साथ ‘सैयद’ जोड़ा था, जिसकी वजह से शिकायतकर्ता की भावनाएं आहत हो गईं.
बगल के मुल्क के समाजी सियासी हाल को हमदर्दी के साथ देखने वाले लोग बता सकते हैं कि विगत चार दशक से अधिक समय- जबसे मिर्जा कादियानी द्वारा स्थापित इस संप्रदाय को गैर-इस्लामिक घोषित किया गया, इसे जबरदस्त धार्मिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है.
वैसी ही आवाज़ें चंद रोज़ पहले सूबा पंजाब के पटियाला से भी सुनाई दी, जब गुरुद्वारे में शाम के वक्त़ अकेली बैठी पैंतालीस साल की एक महिला को देखकर वहां दर्शन के लिए गए दूसरे शख्स ने उस पर बाकायदा गोली चला दी और उस महिला ने वहीं दम तोड़ दिया. पता चला कि हत्यारे की भावनाएं यह देख कर ‘आहत’ हो गई थीं, जब कथित तौर पर यह देखा कि वह महिला शराब का सेवन कर रही है.
गौर करने वाली बात है कि न शराब पीना अपने आप में गैर कानूनी है और अगर कोई चीज़ गैर कानूनी है तो आप उसकी शिकायत कर सकते है, और फिर अदालत उसमें फैसला दे सकती है. जाहिर है ऐसा कुछ नहीं हुआ.
रेखांकित करने वाली बात यह थी कि धर्म के अलंबरदारों ने भी मृतक महिला के प्रति कोई सहानुभूति नहीं प्रगट की, न यह सवाल पूछा कि आखिर किसी प्रार्थनास्थल के अंदर ऐसे हथियार कैसे आसानी से जा सकते हैं, उन्होंने गोया हत्या को औचित्य प्रदान करते हुए महिला के व्यवहार को सूबे में बेअदबी की घटनाओं के संगठित प्रयास का हिस्सा घोषित किया और कहा कि ऐसी घटनाओं को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए. उनके नुमाइंदे बाकायदा हत्यारे के घर पहुंचे और उन्होंने उसके माता-पिता को ‘सरोपा’ भेंट किया, गोया हत्या पंथ के लिए उसने कोई महान काम किया हो.
चंद माह पहले उत्तराखंड के एक दलित युवक पर पुलिस ने मंदिर अपवित्रीकरण का केस दर्ज किया. मामले की शिकायत करने वाले कथित उंची जाति के कुछ लोग थे. दरअसल यह वही लोग थे जिन्होंने चंद रोज पहले दलित युवक को मंदिर प्रवेश से रोका था और बुरी तरह पीटा था, जिसके चलते उन सभी पर अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989 के तहत केस दर्ज हुए थे. उधर दलित युवक अस्पताल में भर्ती था और इन वर्चस्वशाली लोगों ने पुलिस और अदालत में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसके खिलाफ यह झूठा केस दर्ज किया.
वैसे यह एक बहुचर्चित और बार-बार आजमाया जाने वाला हथकंडा है, जो दबंग जातियां इस्तेमाल करती आई हैं.
पीड़ित युवक के आत्मीयों ने पत्रकारों से एक ही सवाल पूछा कि ‘दलितों की गरिमा, उनका सम्मान इस कदर हल्की क्यों है ?’ आजादी के पचहत्तर साल बाद आखिर कितनी आसानी से अस्पृश्यता निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामले को हल्का किया जा सकता है और किस तरह दलितों के वास्तविक अपमान को दबंगों के झूठे अपमान से कमजोर किया जा सकता है.
बांग्लादेश की एक अग्रणी पत्रकार ने महज एक साल पहले अपने एक तीखे आलेख में यही सवाल बिल्कुल सीधे तरीके से पूछा था जब बांग्लादेश के नारैल नामक स्थान पर अल्पसंख्यक हिंदू हमले का शिकार हुए थे, जब किसी हिंदू युवक के फेसबुक पोस्ट के चलते बहुसंख्यक इस्लामिस्ट उग्र हुए थे. अपनी ‘आहत भावनाओं’ की प्रतिक्रिया में एक संगठित हिंसक भीड़ ने उनकी बस्ती पर हमला किया था.
अगर आप बांग्लादेश के अख़बारों के उन दिनों के विवरण पढ़ेंगे तो वह उसी किस्म के होंगे जैसी ख़बरें पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान या अपने मुल्क से आती है.
कई लोग घायल हुए, महिलाओं को अपमानित किया गया, मकानों और घरों को लूटा गया, जलाया गया; हमलावरों में अच्छा खासा हिस्सा अगल बगल के गांव का ही था और जिनमें कई परिचित चेहरे भी शामिल थे. और पुलिस हमेशा की तरह यहां भी मूकदर्शक बनी रही.
पत्रकार के लिए यह सोचना भी कम तकलीफदेह नहीं था कि किस तरह धर्म के नाम पर अपराधों का शिकार होने वाले लोग, समुदायों को आतंकित करने वाली घटनाओं के भुक्तभोगी लोग- ऐसी घटनाएं जो आप को बेहद असुरक्षित और निराश कर देती हैं- इतना सा दावा भी नहीं कर सकते कि वे बुरी तरह, बेहद बुरी तरह अपमानित, घायल हुए हैं.
और फिर उसने सवाल पूछा कि ‘आखिर आहत धार्मिक भावनाओं’ की बात करने का असली हकदार कौन है? (Who is entitled to ‘hurt religious sentiments?)
बिना कुछ इधर-उधर की बात किए उसने उस पहेली की बात की थी जो कोई सुलझाना नहीं चाहता था:
आखिर एक अदद फेसबुक पोस्ट पर, जिसकी सत्य-असत्यता की पड़ताल भी नहीं हुई है- एक व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के लिए अपनी प्रचंड सक्रियता दिखाने वाली पुलिस मशीनरी आखिर उस वक्त़ कहां विलुप्त हो जाती है जब अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देने वालों की गिरफ़्तारी का वक्त़ आता है, उसे अचानक कैसे लकवा मार जाता है ? कानून के रखवाले या तो गैर-हाजिर होते हैं या तब तक निष्क्रिय बने रहते हैं, जब तक पूरी तरह से तबाही मचाकर हमलावर लौट न जाएं.
इन छिटपुट उदाहरणों को देख कर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसे मुद्दों की कोई कमी इस उपमहाद्वीप में नहीं है जिसके आधार पर बहुसंख्यकवादी जन ‘अन्यों’ को लांछन लगाने या उनका अपराधीकरण करने में संकोच करते हों.
स्टैंड अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को जिस तरह उस जोक के लिए जेल भेजा गया, जो उन्होंने कार्यक्रम में सुनाया तक नहीं गया, वह घटना तो आप जानते ही हैं; लेकिन कम लोग जानते होंगे कि अग्रणी क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी- जो उनके अन्य हमपेशा लोगों की तरह किसी भी सामाजिक राजनीतिक मसले पर बोलते नहीं हैं, सिर्फ अपनी गेम पर ही ध्यान देते हैं- वह खुद भी कुछ साल पहले ‘धार्मिक भावनाओं के आहत’ होने के मामले कुछ धार्मिक अतिवादियों के निशाने पर आए थे.
किसी ने भगवान विष्णु के बने कैलेंडर में धोनी की इमेज का प्रयोग किया था और जिसने ‘भावनाएं आहत’ होने वाली ब्रिगेड को सक्रिय कर दिया था. गनीमत थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में हस्तक्षेप किया और उसकी त्रिसदस्यीय पीठ ने मामले को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि ‘धर्म के नाम पर होने वाले ऐसे अपमान, जो असावधानी में होते हों या जिन्हें बिना किसी बुरी नीयत के अंजाम न दिया गया हो ताकि खास समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत हों, उन्हें किसी भी सूरत में धार्मिक भावनाओं के आहत होने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. (..such insults to religion offered unwittingly or without any malicious intention to outrage the religious feelings of that class should not be construed as hurting religious sentiments)
गौरतलब हैं बाद के दिनों में विभिन्न उच्च अदालतों ने अपने फैसले में इस निर्णय के नक्शे-कदम पर ही काम किया है. अग्रणी न्यायविद अकील कुरैशी, जो मौजूदा हुकूमत के संकीर्ण रवैये के कारण सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नहीं बन सके उन्होंने भी त्रिपुरा उच्च अदालत के अपने एक चर्चित मुकदमे में इसी किस्म का फैसला अपने आखिरी दिनों में दिया था.
उनकी एकल पीठ ने इस बात को रेखांकित किया था:
‘धारा 295 ए धर्म के अपमान के या धार्मिक विश्वासों की तौहीन की हर कोशिश को दंडित नहीं करती बल्कि उन्हीं कार्रवाइयों को दंडित करती है जिसके तहत ऐसे अपमान या ऐसी कोशिशें किसी खास तबके की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के सचेतन इरादे से अंजाम दी गई हों.’
वैसे ‘आहत भावनाओं के हालिया उभार के इस दौर में हम चाहें तो दुनिया के इस हिस्से में ‘आहत भावनाओं’ के लंबे इतिहास पर और उसकी गहरी सामाजिक जड़ों पर भी निगाह डाल सकते हैं.
सुश्री नीति नायर की एक किताब आई है जिसका शीर्षक है ‘Hurt Sentiments – Secularism and Belonging in South Asia’ (Harvard University Press, 2023) [‘आहत भावनाएं – दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्षता और संबद्वता’]
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की तरफ से प्रकाशित इस किताब में वह भारत, पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश की राज्य विचारधाराओं पर निगाह डालती हैं और अलग-अलग किस्म के राजनीतिक कारकों द्वारा इस्तेमाल किए गए आहत भावनाओं के तर्क की विवेचना करती है, फिर चाहे गांधी की हत्या के लिए औचित्य प्रदान करने के लिए नाथूराम गोडसे के तर्क हों या पाकिस्तान के निर्माताओं के. (पेज 4)
दरअसल, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में आहत भावनाओं की यह रेलमपेल अर्थात प्रचुरता की जड़ें हमारे आकलन से भी बहुत गहरी हैं. वह मैकाले को उद्धृत करती हैं- कि उसने 19वीं सदी की शुरुआत में तत्कालीन ब्रिटिश भारत को किस तरह देखा था:
The idea that Indians were especially predisposed to having their sentiments ‘hurt’ or wounded was first elaborated upon by the Law Member in the East India Company, Thomas Babington Macaulay, in his draft note on the Indian Penal Code in 1837, almost two centuries ago. Macaulay held that there was “no country in which the Government has so much to apprehend from religious excitement among the people.
(यह विचार कि भारतीय लोग भावनाओं के ‘आहत’ होने या घायल होने को लेकर अत्यधिक सचेत रहते हैं, इस बात को पहली दफा ईस्ट इंडिया कंपनी के कानून सदस्य थॉमस बॅबिंग्टन मैकाले ने, भारतीय दंड विधान 1837 के लिए तैयार अपने मसविदा नोट में लगभग दो सदी पहले दर्ज किया था जब उसने रेखांकित किया था कि ऐसा कोई मुल्क नहीं है ‘जहां सरकार को लोगों की धार्मिक भावनाओं के उत्तेजित होने को लेकर इतना सचेत रहना पड़ता है.’)
दरअसल यह एहसास कि भावनाओं को भड़काने या ‘दुश्मनी या नफरत की भावनाओं’ को हवा देने से अलग-अलग समुदायों में तनाव बन सकता है, इसके चलते ही भारतीय दंड विधान की धारा 153 (ए) का निर्माण उन्हीं दिनों हुआ, जिसने विवादास्पद भाषण या लेखन का अपराधीकरण किया या बीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीय दंड विधान की धारा 295 ए का निर्माण हुआ था जिसके तहत ‘धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर अपमानित करने की कार्रवाइयों का’ अपराधीकरण किया गया था.
वैसे घटाटोप के इस माहौल में सुकून देने वाली बात यह ढूंढी जा सकती है कि जगह-जगह आवाज़ें उठ रही है किसी बहुआस्थाओं वाले मुल्क में आहत होने के दोहरेपन को प्रश्नांकित करती दिख रही हैं और अल्पसंख्यक पर होने वाले हमलों के मामलों में बहुसंख्यकों के विराट मौन को भी प्रश्नांकित करने को तैयार हैं.
बांग्लादेश के ही एक अन्य लेखक ने नारैल की घटनाओं के दिनों में ही लिखा था कि किस तरह ऐसा मौन समाज में विभिन्न तबकों की हिंसा का सामान्यीकरण कर देता है और इस बात की भी चीरफाड़ की थी कि ऐसा मौन एक तरह से एक ‘झुंडवाद’ का नतीजा है- जिसके तहत लोग अपने समूह या अपने समुदाय के प्रति जबरदस्त एकनिष्ठा का प्रदर्शन करते हैं.
या अब भारत में भी यह आवाज़ बुलंद हो रही है कि आखिर हिंदुत्व की अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति का विरोध करने के लिए अब हिंदुओं को क्यों आगे आना चाहिए और किस तरह यह उनके लिए नैतिक रूप से जरूरी है. यही सवाल उठाया जा रहा है कि ‘आखिर हम सभी के लिए यह कहना इतना मुश्किल क्यों है कि भारतीय समाज को ऐसे समाज में रूपांतरित नहीं होना चाहिए जो मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को बर्दाश्त करता है और उन पर हिंसा करने के लिए तत्पर रहता है.’
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)