उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में चार चरण के मतदान के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने ध्रुवीकरण का नारा बुलंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर यह तो वक़्त ही बताएगा कि उनकी विभिन्न जातियों के हिंदुओं को साथ लाने की कोशिश कितनी कामयाब हुई?
अगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को लेकर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए जा रहे ज़मीनी आकलन को देखें तो पिछले बिहार विधानसभा चुनावों से मिलती-जुलती कई बातें दिखाई देंगी. दोनों ही चुनावों के बीच में अचानक भाजपा ने मुश्किल से एक साथ आने वाले हिंदू वोटों को सांप्रदायिकता के नाम पर इकठ्ठा करने की कोशिश की. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण के नाम पर वोटरों को अपनी तरफ लाने का यह प्रयास बिहार के मुकाबले ज़्यादा फायदेमंद साबित हो सकता है पर ऐसा हो ही, यह भी निश्चित नहीं है.
हालांकि बिहार में यह काम नहीं आया था. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के साथ आ जाने से जातीय समीकरण दूसरी ही दिशा में मुड़ गए थे और भाजपा को वहां हार का सामना करना पड़ा. उत्तर प्रदेश में जैसे ही चौथे चरण का चुनाव ख़त्म हुआ और चुनाव पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ बढ़े, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाषणों में ‘सांप्रदायिकता’ को जगह मिलनी शुरू हो गई. तो क्या तमाम जातीय कारणों के होते हुए इस क्षेत्र के सारे हिंदू वोट भाजपा के हिस्से में आ पाएंगे? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर राजनीतिक दल, सभी तलाश रहे हैं.
बिहार में भाजपा की असुरक्षा की वजह यादव/कुमार गठबंधन के साथ पिछड़ी जातियों का होना था, जो कांग्रेस के साथ था, कांग्रेस के पास तो कुछ सवर्ण जातियों के वोटर्स भी थे. वहां कई दलों ने साथ आकर ‘महागठबंधन’ किया था जबकि उत्तर प्रदेश में तो सिर्फ ‘गठबंधन’ ही हुआ है. एक तरह से देखा जाए तो यह गठबंधन ‘महागठबंधन’ के मुक़ाबले भाजपा के लिए उतना बड़ा ख़तरा नहीं है पर फिर भी मोदी इतने असुरक्षित हो चुके हैं कि अपने पद की गरिमा भूलकर ध्रुवीकरण की बात के सहारे पार निकलने की सोच रहे हैं.
मोदी और अमित शाह के चुनाव प्रचार में यूं सांप्रदायिकता तक पहुंचने के पीछे क्या रणनीति रही होगी? उत्तर प्रदेश योजना आयोग के सदस्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के थाना भवन से सपा उम्मीदवार सुधीर पंवार चौथे चरण के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के रवैये में आए इस बदलाव की दिलचस्प वजह बताते हैं, ‘पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर हिस्सों में मायावती अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं तो मुक़ाबला सीधे भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच है. और खासकर कई इलाकों में सपा के पास ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों का समर्थन भी है और भाजपा की हिंदुओं को साथ लाने के ये प्रयास इन्हीं ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों को अपने खेमे में लाने के लिए हैं.’
हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी नाराज़ जाटों को ख़ुश करने के मक़सद से ‘हिंदू कार्ड’ खेला गया था पर 2014 के आम चुनावों की तुलना में शायद इसका कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ. तब कहीं ज्यादा संख्या में जाट भाजपा के साथ थे. पर यहां भाजपा ने यह मान लिया कि जाटों की नाराज़गी के कारण उनका ये ‘हिंदू कार्ड’ नहीं चला, जिसके कारण बड़ी संख्या में जाट उनसे नहीं जुड़े. इसलिए मोदी या शाह ने बाक़ी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसे नहीं निकाला. इसके अलावा जाटों को पूर्वी उत्तर प्रदेश की पिछड़ी जातियों की तुलना में वैचारिक रूप से प्रेरित कर पाना अपेक्षाकृत मुश्किल है. एक तरह से पूर्वी उत्तर प्रदेश के ओबीसी संघ हिंदुत्व की शिक्षा के साथ ही बड़े हुए हैं, जो राम मंदिर अभियान के साथ शुरू हुई थी.
भाजपा का पूरा ध्यान पूर्वी उत्तर प्रदेश पर इसलिए भी है क्योंकि उसे विश्वास है कि वे यहां पिछले चरणों से बेहतर करेंगे. कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में अति पिछड़ी जातियों का वोट ब्लॉक 30 फीसदी था, जो दर्ज़नों छोटी-छोटी उपजातियों में बंटा हुआ था, जिनका इस 30 फीसदी में 0.5% से 2.5% का हिस्सा था, पर उत्तर प्रदेश में गैर-यादव पिछड़ी जतियों का कुल वोट ब्लॉक 30% के करीब है, जो सबसे बड़ा ब्लॉक है. पिछड़ी जातियों का यह तीस फीसदी हिस्सा मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस सभी के साथ जुड़ा रहा है और वोटिंग के मामले में थोड़ा अलग भी है. यादव, ब्राह्मण, दलित, राजपूत या मुस्लिमों की तरह इनकी वरीयता स्पष्ट नहीं दिखती.
जो भी पार्टी इन बिखरी हुई पिछड़ी जातियों (मौर्य, कश्यप, सैनी, पटेल, प्रजापति और मल्लाह) के इस 30% को अपने साथ लाने में सफल हो जाती है, उत्तर प्रदेश में उसी की सरकार बन सकती है.
बिहार में भी ज़्यादातर पिछड़ी जातियों के वोट निर्णायक रूप से कुमार/यादव गठबंधन की तरफ मुड़े थे. उत्तर प्रदेश में भाजपा को उम्मीद है कि 2014 के आम चुनावों की तरह अधिकतर ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियां मोदी के साथ ही रहेंगी. सीएसडीएस के मतदान के बाद करवाए गए एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में 2014 के आम चुनावों में 65% ग़ैर-यादव वोट भाजपा को मिले थे. यह एक बहुत बड़ा आंकड़ा था, जिसमें भाजपा को प्रदेश के 42% वोट और 90% सीटें मिली थीं. अगर भाजपा यही दोहराने में कामयाब होती है तो यह सबसे बड़ा बहुमत रहेगा.
वैसे अन्दर से भाजपा ख़ुद भी इस प्रदर्शन को दोहरा पाने को लेकर उतनी विश्वस्त नहीं है. इसीलिए शायद इस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें की जा रही हैं. मोदी बहुत चतुराई से हिंदुओं को साथ लाने के लिए नए-नए तरीके आजमा रहे हैं. ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा उनके कानपुर ट्रेन हादसे में आईएसआई का हाथ होने के दावे की पुष्टि किए जाना बाक़ी है. आईएसआई या पाकिस्तान का ज़िक्र ही बहुसंख्यकों की चिंता बढ़ाने के लिए काफ़ी होता है.
यह भाजपा भी जानती है कि आम चुनावों की तरह उसे इस बार कुल वोटों का 42% नहीं मिलने वाला है. अब उनकी कोशिश है कि वोट शेयर की गिरावट के बाद भी कम से कम 30-35% तक वोट तो उनके पास रहे जिससे आखिर पार्टी दौड़ में तो बनी रह पाए. सपा के पास यादव, मुस्लिम और अन्य पिछड़ी जातियां मिलकर 25% वोट हैं और कांग्रेस के साथ हुए गठबंधन का कुछ तो फायदा होगा ही. इस गठबंधन के कारण सपा को आसानी से जीत के लिए ज़रूरी वो 30 फीसदी वोट शेयर मिल सकता है. मायावती के पास भी उनके 25% वोटर तो हैं ही. अगर उनके दलित मतदाताओं के अलावा उन्हें कुछ प्रतिशत मुस्लिमों और ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों का साथ मिल जाता है तो वे भी जीत सुनिश्चित करने वाले इस 30 फीसद के आंकड़े तक पहुंच सकती हैं.
2012 में सपा को कुल वोटों का 29% मिला था, जिसमें कुल 403 सीटों में से उसके हिस्से में 226 सीटें आई थीं. बसपा का प्रदर्शन ख़राब नहीं कहा जा सकता, बसपा को 26% वोट शेयर मिला था पर वो 80 सीटों तक ही सीमित रह गयी थी. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बसपा का वोटिंग प्रतिशत सपा से मात्र 4% कम था पर सीटों के मामले में यह आंकड़ा 140 सीटों का था. इस तरह के चौतरफ़ा मुक़ाबले में दो या तीन प्रतिशत का हेर-फेर बाज़ी पलट सकता है. कहने को तो इस बार मुक़ाबला त्रिकोणीय है पर कई हिस्सों में ऐसा नहीं है, यही कारण है कि अनिश्चितता और चिंता दोनों ही बढ़ते जा रहे हैं. और शायद मोदी की बहुसंख्यकों को उकसाने की कोशिश की भी वजह यही है.
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