उत्तराखंड में भू-क़ानून सख़्त करने का शिगूफ़ा और सुलगते सवाल!

हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का भू-क़ानून में सख़्ती लाने का बयान खोखला और सियासी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं लगता. राज्य में बाहरी लोगों की आबादी बढ़ने के पीछे असली मकसद केवल एक ख़ास धर्म विशेष यानी मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाना ही है, ताकि इस बहाने वोट मिलता रहे और सत्ता बनी रहे.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी. (फोटो साभार: फेसबुक)

हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का भू-क़ानून में सख़्ती लाने का बयान खोखला और सियासी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं लगता. राज्य में बाहरी लोगों की आबादी बढ़ने के पीछे असली मकसद केवल एक ख़ास धर्म विशेष यानी मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाना ही है, ताकि इस बहाने वोट मिलता रहे और सत्ता बनी रहे.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी. (फोटो साभार: फेसबुक)

पहाड़ों में भू-कानून को और कड़ा करने का राज्य सरकार का ऐलान ऐसे दौर में आया है, जब उत्तराखंड के 95 प्रतिशत उच्चस्तरीय भूखंड और स्थलों की गैर-पर्वतीय या बड़े-बड़े धन्ना सेठ, माफिया और कॉलोनाइजर खरीद-फरोख्त कर चुके हैं.

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपनी पीठ थपथपाते हुए 4 मई 2023 को यह ऐलान करके सुर्खियां बटोरने की चेष्टा की है कि जो लोग फिट बैठेंगे, उत्तराखंड में वही ज़मीन खरीद सकेंगे.

यह सवाल पूछा जा रहा है कि ‘फिट’ बैठने की परिभाषा क्या है? क्या यह इरादा सचमुच पड़ोसी राज्य हिमालयी तर्ज पर सख्त भू-कानून लाने का या महज लोगों की आंखों में धूल झोंकने का शिगूफा भर है.

पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड के शहरों और पर्वतीय क्षेत्रों में बाहरी लोगों द्वारा बेहिसाब ज़मीनें खरीदने और औद्योगिक व कृषि भूमि का लैंड यूज़ बदलवाकर कालोनियां और बहुमंजिले अपार्टमेंट बनवाकर करोड़ों-अरबों रुपये की संपत्ति से मोटा मुनाफ़ा कमा लिया है.

ज़ाहिर है कि राज्य के भू-कानूनों में कई-कई छेद करके सत्ता से पैसा और पैसे से राजनीति के गोरखधंधे में भाजपा से लेकर कांग्रेस और सत्ता के दलालों और माफिया तंत्र ने प्रदेश की ताकतवर नौकरशाही से मिलीभगत कर भू-कानूनों को पहले ही तार-तार कर डाला है.

वस्तुत: गैर पर्वतीय मूल के लोगों को रिहायशी और औद्योगिक प्लाट बेचने के मामले में उत्तराखंड का सबसे ज़्यादा नुकसान नारायणदत्त तिवारी के 2002 में मुख्यमंत्री बनते ही शुरू हुआ.

तुर्रा यह दिखाया गया कि उत्तराखंड में पूरे देश का निवेश हो रहा है. राज्य बनने के बाद विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने के लिए निवेशकों को टैक्स में छूट का भारी फ़ायदा मिलने से नवगठित उत्तराखंड की तकदीर बदलेगी.

उद्योगपतियों ने गुजरात, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, बंगाल और यूपी समेत दूसरे राज्यों से उत्तराखंड की ओर रुख किया. उनकी असली निगाह यहां उद्योग लगाने से ज़्यादा बेहद सस्ते दामों पर मिल रहे भूखंडों पर गड़ी थी.

तिवारी सरकार 2007 में गई और भाजपा आ गई. जनरल भुवनचंद खंडूड़ी सरकार ने रिहायशी 500 गज के प्लाट की सीमा को 250 गज करके ज़मीनों की लूट और खरीद-फरोख्त पर कुछ रोक लगाई, लेकिन इस सख्ती का भी नौकरशाही और भ्रष्ट राजनेताओं ने तोड़ निकाल लिया. और कुछ दिनों की चुप्पी के बाद फिर से खरीद-फरोख्त तेज़ होती चली गई.

2012 में कांग्रेस सरकार आई और विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भू-कानूनों को नगरीय क्षेत्रों के विस्तार से जोड़ते हुए न केवल भूमि उपयोग के बदलावों में कई छेद करवा डाले, बल्कि बड़े-बड़े औद्योगिक शेडों को आवंटित करके उन पर उद्योगधंधे न लगाने वाले उद्योगपतियों की करतूतों पर भी मुंह मोड़ लिया.

इसी उथल-पुथल में 2012 से 2017 के बीच कांग्रेस की सरकार भी डावांडोल हुई. दो-दो मुख्यमंत्री बदले लेकिन भू-कानूनों को ईमानदारी से सख्त करने और पर्वतीय क्षेत्रों की ज़मीनों को बचाने के लिए कोई बुनियादी काम हरीश रावत ने भी नहीं किया.

2017 में भाजपा की सरकार बनी और त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने तो भाजपा का पूरा तंत्र ही खरीद-फरोख्त के कारोबार में जुट गया. इसमें खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह और धन सिंह रावत सरीखे लोगों ने भराड़ी सैण से लेकर रायपुर और बाकी कई जगहों पर ज़मीनों की खरीद के धंधों में हाथ काले करने में कोई परहेज नहीं किया.

भाजपा के तमाम प्रदेशों के नेताओं और धनपशुओं ने मिलकर देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर, नैनीताल और दूसरे पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन और रिसॉर्ट संस्कृति खड़ी करने के लिए रातोंरात ज़मीनों की लूट के साम्राज्य को और तेज़ी से फैला दिया.

हाल में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का भू-कानून में सख्ती लाने का बयान आम लोगों को खोखला और सियासी जुमलेबाजी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखता. उत्तराखंड में बाहरी लोगों की आबादी बढ़ने के पीछे केवल एक ख़ास धर्म विशेष यानी मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाना ही असली मकसद है, ताकि इस बहाने चुनावों में वोट मिलता रहे और सत्ता बनी रहे.

बड़े-छोटे उद्योगपतियों को देहरादून, हरिद्वार, उधम सिंह नगर और नैनीताल जिलों के औद्योगिक केंद्र औने-पौने दाम पर इसलिए आवंटित किए गए, क्योंकि दो साल के भीतर ऐसे स्थलों पर उद्योगधंधे शुरू नहीं किए गए तो उन्हें निरस्त कर दिया जाएगा.

लेकिन भाजपा हो या कांग्रेस दोनों जब भी बारी-बारी से सत्ता में रहे, नियमों का उल्लंघन करने वालों को बार-बार उपकृत करने में कोई परहेज नहीं किया. अब हालत यह है कि विशेष राज्य के दर्जा के अधीन सहूलियतें हासिल करने की होड़ में शामिल उद्योगधंधों के मालिक उत्तराखंड से रुखसत होते चले गए.

यह कटु सत्य है कि जिन कुछ लोगों ने उद्योग लगाए थे वे ज़्यादातर कर्मचारियों और कामगारों को अपने प्रदेश या दूसरे राज्यों से उत्तराखंड साथ लाते गए.

उत्तराखंड सरकार की लचर मशीनरी और भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि क्या उद्योग लगाने के लिए कौड़ियों के भाव जमीनें हड़पकर बैठे पूंजीपतियों और फैक्ट्री मालिकों पर यह भी बाध्यता थी कि वे पर्याप्त तादाद में स्थानीय बेरोजगार और कौशल विकास का प्रशिक्षित या डिग्री धारक नौजवानों को रोज़गार में वरीयता दें.

ऐसे हजारों नौजवानों को दबाव में रोजगार देने के बाद उनकी जब मर्जी जबरन छंटनी कर दी गई. राज्य सरकार के मंत्रियों, नौकरशाही के समक्ष अवैध तरीके से निकाल दिए गए सैकड़ों कर्मचारियों और श्रमिकों के मामलों की शिकायतें आईं. ज्यादातर को मात्र आश्वासन देकर टरका दिया गया.

भाजपा ने उत्तराखंड में जमीनों की लूट और नीलामी का सबसे बड़ा दुस्साहस 2018 में किया, जब त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार थी.

राज्य सरकार को सीधे केंद्र की मोदी सरकार से फरमान आया कि राज्य में भारी निवेश आने को है, कुछ दिन अखबारों और टीवी चैनलों में इसका खूब हो-हल्ला मचाया गया. आननफानन में विधान सभा सत्र बुलाया गया. विवादास्पद विधेयक लाकर पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि की खरीद-फरोख्त पर निर्धारित की गई हदबंदी को खत्म कर दिया गया.

वस्तुत: पहाड़ों के लिए अभिशाप बन चुके इस विधेयक के खतरों के बारे में राज्य सरकार ही नहीं, कमजोर विपक्ष को भी दरकिनार कर दिया गया. वजह यह कि सारा खेल सीधे पीएमओ, गुजरात के उद्योगपतियों और मोदी सरकार के इर्द-गिर्द घेरा डाले बड़े उद्योगपतियों के निर्देशन पर 2018 का पूरा भूमि क़ानून का मसौदा तैयार हुआ और उसे राज्य हितों को तिलांजलि देते हुए लागू कर दिया गया.

आननफानन में देहरादून में इन्वेस्टर समिट हुआ. गोदी मीडिया के पत्रकारों को प्रचार-तंत्र के जरिये बखान करने की जिम्मेदारी दे दी गई कि उत्तराखंड में अब चार चांद लगाने वाले हैं. आम लोगों व नौजवानों को घर बैठे रोजगार मिलेगा.

जनता को असलियत पता लगाने में कई साल लगे. तब त्रिवेंद्र सिंह सरकार ने दावा किया था कि उत्तराखंड में सवा लाख करोड़ रुपये के निवेश के प्रस्ताव मिल चुके हैं. ये दावे सब कुछ खोखले निकले. राज्य में अब भी भाजपा सरकार है. तंत्र वही है. केवल मुख्यमंत्री बदला, लेकिन निवेश कहां हुआ? और आज हालात क्या हैं, यह बताने की हिम्मत धामी सरकार में नहीं है.

उत्तराखंड में जमीनों की इस लूट और गोरखधंधे में भाजपा सरकार की प्रत्यक्ष संलिप्तता के खिलाफ आम जनता पहाड़ों के भविष्य की चिंता करने वाले संगठनों ने सुदूर क्षेत्रों से असंतोष की चिंगारियां सुलग रही हैं.

विडंबना यह है कि हिमालयी राज्यों में केवल उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है, जहां भूमि खरीद और उपयोग के नियम क़ानूनों की कोई सीमा नहीं है. यानी कोई भी बाहरी यानी गैर-पर्वतीय व्यक्ति कितनी सीमा तक भूमि खरीद या अधिगृहीत कर सकता है, जबकि शेष हिमालयी प्रदेशों में इस मामले में नियम काफी कड़े हैं और समय-समय पर स्थानीय लोगों के हितों के लिए उन्हें और कड़ा किया जाता है.

कई जगह लोगों ने प्रदर्शन भी किए और 2018 के विवादित भू-क़ानून को निरस्त करने की मांग की गई. जन संगठनों की मांग है कि संविधान के अनुच्छेद 371 के प्रावधानों के तहत उत्तराखंड की सीमा में ज़मीनों के कड़े संरक्षण के लिए तत्काल कानूनी संशोधन हो.

उत्तराखंड बनने के बाद 23 साल बाद भी यहां निर्वाचित सरकारें माफिया और दिल्ली दरबार की कठपुतली की तरह काम करती आ रही हैं. जल, ज़मीन और जंगलों पर स्थानीय लोगों के हितों पर लगातार शिकंजा कस रहा है. नौजवानों के पलायन पर सरकार और नौकरशाही मौन है.

यह सिलसिला आने वाले दिनों में और तेज होने से नहीं रोका जा सकता. आम लोगों में यह धारणा गहरे पैठ बना चुकी है कि उत्तराखंड के भविष्य की पीढ़ी के लिए भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार के पास न नीति है, और न ही नीयत है.