उत्तराखंड में किस मज़हब के लोग कहां व्यवसाय करें, इसका फैसला संविधान या क़ानून नहीं बल्कि कट्टरपंथी करेंगे! नफ़रत के बीज बोने वाले जिन लोगों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वे युगपुरुष बनकर क़ानून को ठेंगा दिखा रहे हैं और संविधान की शपथ लेने वाले उनके आगे दंडवत हैं.
सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो, जब वह केंद्र या राज्य में सत्ता संभालती है तो उसे किसी धर्म ग्रंथ की नहीं बल्कि भारत के संविधान की शपथ लेनी होती है. इसका मतलब साफ है कि यह देश या कोई भी प्रदेश धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नहीं बल्कि संविधान के प्रावधानों के अनुसार चलता है.
प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या कोई मंत्री जब संविधान की दो शपथ लेते हैं तो पहली शपथ में कहते हैं, ‘मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा।’ लेकिन लगता नहीं कि सत्ता में बैठे लोगों को संविधान की यह शपथ याद होगी.
पुरोला के हालात को देखते हुए लगता है कि देश की व्यवस्था के संचालन में संविधान से अधिक धर्मग्रंथों को महत्व दिया जा रहा है. उत्तराखंड जैसे राज्य में तो मानो संविधान को जैसे सांप्रदायिक सोच ने अगवा कर दिया हो. दंगाई खुले घूम रहे हैं और नागरिक उनके खौफ से सहमे हुए हैं या सुरक्षित स्थानों के लिए पलायन कर रहे हैं.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में एक संप्रदाय विशेष के लोगों के जीवन के साथ जुड़े आजीविका के मौलिक अधिकार का खुले आम हनन हो रहा है. अदालत के हस्तक्षेप के बाद अब बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन पुरोला के अलावा कहीं और महापंचायत करने पर अड़े हुए हैं ताकि सारे प्रदेश का महौल खराब हो. मतलब यह कि किस मजहब के लोग कहां व्यवसाय करें, इसका फैसला संविधान या कानून नहीं बल्कि कट्टरपंथी करेंगे.
नफरत के बीज बोने वाले जिन लोगों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वे युगपुरुष बनकर कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं और संविधान की शपथ लेने वाले उनके आगे दंडवत हैं.
सांप्रदायिक तत्व पहले ही पुरोला दुकानें बंद करा चुके हैं और उनका प्रयास समूचे पहाड़ से एक धर्म विशेष के लोगों को बाहर खदेड़ना है. दंगों के भय से पुरोला से कुछ लोग पलायन कर देहरादून आ चुके हैं जबकि अन्य पहाड़ी इलाकों में बसे या आजीविका चला रहे अल्पसंख्यक अपने बारे में चिंतित हैं. इस तरह उत्तराखंड में संविधान का खुले आम मखौल उड़ाया जा रहा है और संविधान की शपथ लेकर सरकार में बैठे लोग तमाशबीन बने हुए हैं. क्योंकि समाज की यही वैमनस्यता वोटों के खजाने के मुंह खोलती है.
पुरोला का असर उत्तराखंड के अन्य हिस्सों में भी साफ देखा जा रहा है. यहां तक कि प्रदेश की राजधानी देहरादून में प्रेम संबंधों को ‘लव जिहाद’ का नाम दिया जा रहा है. यही नहीं, आत्महत्या के मामले में तक ‘लव जिहाद’ जोड़ा जा रहा है. ‘जिहाद’ शब्द का दुरुपयोग मीडिया के लोग भी समान रूप से कर रहे हैं.
उत्तराखंड में जब लोग पहाड़ की संस्कृति और गरीबों की जमीनें भूखोरों से बचाने के लिए मजबूत भू-कानून की मांग कर रहे थे तो तब ‘लैंड जिहाद’ का हव्वा खड़ा किया गया. मामला कुछ शांत होता तब तक ‘मजार जिहाद’ शुरू हो गया. ‘मजार जिहाद’ भी कितने दिन चलता? अब पुरोला ही नहीं संपूर्ण उत्तरकाशी के कस्बों में ‘लव जिहाद’ का बवाल शुरू हो गया.
हैरानी का विषय तो यह है कि संविधान को हाजिर नाजिर कर बिना राग-द्वेष और बिना भेदभाव के सभी के साथ समान व्यवहार करने की शपथ लेकर सत्ता संभालने वाली सरकार में बैठे लोग स्वयं ‘लैंड जिहाद’, ‘लव जिहाद’ और ‘मजार जिहाद’ की बात कह रहे हैं जो खुलेआम संविधान की शपथ का उल्लंघन है. ‘जिहाद’ शब्द इस तरह उपयोग करना ही किसी वर्ग विशेष के प्रति दुराग्रह का पक्का सबूत है.
पुरोला का मामला शांत होते ही समान नागरिक संहिता तैयार है.
अरबी शब्द जिहाद का जितना मनमाना और बुतुका उपयोग उत्तराखंड में हो रहा है, उतना शायद ही किसी अन्य राज्य में हो रहा होगा. अगर कहीं कुछ गलत हो रहा होगा तो उस गलती पर जिहाद शब्द चिपका दिया रहा है और खेद का विषय तो यह है कि सत्ताधारी दल के साथ ही उसके आनुषंगिक संगठन तथा आरएसएस के संगठन जिहाद शब्द को गलत संदर्भ में प्रचारित कर रहे हैं.
वे इसे धर्म युद्ध के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं. उनके अनुसार धर्मांतरण के लिए ‘लव जिहाद’, ‘लैंड जिहाद’ और ‘मजार जिहाद’ चलाए जा रहे हैं ताकि धर्म विशेष के लोगों की जनसांख्यिकी में इजाफा हो. यही नहीं, सत्ता में बैठे लोग जनसंख्या के फर्जी आंकड़ें प्रचारित कर उत्तराखंड की जनसांख्यिकी बदलने का हव्वा खड़ा कर रहे हैं. जबकि जनगणना अभी हुई ही नहीं.
जिहाद एक अरबी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ विशेष रूप से प्रशंसनीय उद्देश्य के साथ, प्रयास करना या संघर्ष करना है. अपनी इंद्रियों पर काबू पाना, अच्छे आचरण के लिए संघर्ष करना. इसके इस्लामी संदर्भ में अर्थ के बहुत से रंग हैं, जैसे किसी बुराई-झुकाव के खिलाफ संघर्ष, अविश्वासियों को बदलने का प्रयास, या समाज के नैतिक भरोसे की ओर से प्रयास, इस्लामिक विद्वानों ने आमतौर पर रक्षात्मक युद्ध के साथ सैन्य जिहाद को समानता प्रदान की है.
दरअसल, जिहाद का अभिप्राय धर्म युद्ध नहीं बल्कि संघर्ष या प्रयास के रूप में लिया जा सकता है. जिहाद का यह पहलू व्यक्ति के आध्यात्मिक और नैतिक विकास पर जोर देता है न कि लालच या जोर-जबरदस्ती से धर्मांतरण करने पर. इस्लाम के सभी विद्वान मानते हैं कि इस्लाम के धर्मग्रंथों यानी कुरान और हदीसों में जिहाद का जितना विस्तृत वर्णन किया गया है, उतना अन्य किसी विषय का नहीं है. तीन चौथाई कुरान पैगंबर मोहम्मद पर मक्का में अवतरित हुआ था, मगर यहां जिहाद संबंधी पांच आयतें ही हैं, अधिकांश आयतें मदीना में अवतरित हुईं.
जिहाद अल अकबर अहिंसात्मक संघर्ष है. सबसे अच्छा जिहाद दंडकारी सुल्तान के सामने न्याय का शब्द है- इब्न नुहास द्वारा उद्धृत किया गया और इब्न हब्बान द्वारा सुनाई स्वयं के भीतर मौजूद सभी बुराइयों के खिलाफ लड़ने का प्रयास और समाज में प्रकट होने वाली ऐसी बुराइयों के विरुद्ध लड़ने का प्रयास. (इब्राहिम अबूराबी हार्ट फोर्ड सेमिनरी) नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लड़ना और औरतों के अधिकार के लिए प्रयास करना (फरीद एसेक औबर्न सेमिनरी) एक बेहतर छात्र बनना, एक बेहतर साथी बनना, एक बेहतर व्यावसायी सहयोगी बनना और इन सबसे ऊपर अपने क्रोध को काबू में रखना .
इसी प्रकार जिहाद अल असगर का उद्देश्य इस्लाम के संरक्षण के लिए संघर्ष करना होता है. जब इस्लाम के अनुपालन की आजादी न दी जाए, उसमें रुकावट डाली जाए, या किसी मुस्लिम देश पर हमला हो, मुसलमानों का शोषण किया जाए, उनपर अत्याचार किया जाए तो उसको रोकने की कोशिश करना और उसके लिए बलिदान देना जिहाद अल असगर है.
कुछ सालों से उत्तराखंड में संप्रदाय विशेष के खिलाफ छिटपुट घटनाऐं हो ही रही थीं, मगर उत्तरकाशी के पुरोला में इतने बड़े पैमाने पर वैमनस्यता पहली बार देखी जा रही है. जो लोग अशांति फैलाने में लगे हैं वे अपरिचित नहीं हैं और उनकी रुचि अपने धर्म से ज्यादा राजनीतिक लाभ कमाने की है.
चूंकि मुस्लिम यूनिवर्सिटी का फर्जी नैरेटिव 2022 के विधासभा चुनाव में हारी हुई बाजी को जीत में बदलवा चुका है, इसलिए ईश ईर्ष्या की उस ज्वाला को वोटों में बदलने के लिए अब 2024 के लोकसभा चुनाव तक के लिए ‘लव जिहाद’ के नाम पर जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है. ईर्ष्या की इस लौ को जलाए रखने के लिए लिए पहले समान नगारिक संहिता, फिर धर्मांतरण कानून और अब प्रदेश की डेमोग्राफी की काल्पनिक चिंता को भड़काया जा रहा है. वरना हिंदुओं की नागरिक संहिताएं तो 1955 और 1956 में बन गईं.
और धर्मांतरण आज पहली बार नहीं हो रहा है. ईसाई मिशनरियां तो ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ ही उत्तराखंड में आ गई थीं. अब भी खटीमा, चकराता और मोरी विकासखंड में मिशनरियों के सक्रिय होने के पुख्ता प्रमाण हैं. स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन करना या कराना गैर कानूनी भी नहीं लेकिन प्रदेश की सरकार और सत्ताधारी दल को केवल एक ही संप्रदाय द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन दिखाई दे रहा है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)