झारखंड में कथित तौर पर भुखमरी से हो रही मौतों ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन की गंभीर त्रुटियों के चलते लोगों के जीने के अधिकार के हनन को उजागर किया है.
झारखंड के सिमडेगा ज़िले की संतोषी कुमारी, धनबाद के बैधनाथ रविदास और देवघर के रूपलाल मरांडी की कथित तौर पर भूख से हुई मौत ने सरकार की जन वितरण प्रणाली को आधार से जोड़ने की नीति और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन में गंभीर त्रुटियों के कारण लोगों के जीने के अधिकार के हनन को उजागर किया है.
संतोषी कुमारी के परिवार को राशन नहीं मिल रहा था क्योंकि आधार से लिंक नही होने के कारण उनके कार्ड को रद्द कर दिया गया था. कई बार आवेदन देने के बावजूद भी बैधनाथ रविदास के परिवार का राशन कार्ड नहीं बना था. जन वितरण प्रणाली में आधार आधारित प्रमाणीकरण के बायोमेट्रिक मशीन में अंगूठे का निशान नहीं मिलने के कारण रूपलाल मरांडी को भी राशन मिलना बंद हो गया था.
ये मामलें सरकार की जवाबदेही की कमी की चरम सीमा है, लेकिन राज्य में खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत राशन मिलने के अधिकार का हनन रोजाना की एक हकीकत है. राज्य में कानून लागू हुए दो साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन अभी भी अनेक योग्य परिवारों को राशन कार्ड निर्गत नहीं हुआ है.
इसका एक मुख्य कारण है कि राशन मिलने की पात्रता 2011 में हुई सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) पर आधारित है जिसमें कई प्रकार की त्रुटियां हैं- जैसे जनगणना के दौरान परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का सही से आकलन न करना, जनगणना से परिवार छूट जाना आदि.
प्रशासन के उदासीन रवैये के कारण भी योग्य परिवारों के आवेदनों पर समय पर कार्यवाही नहीं होती है. स्थानीय अफसर अक्सर यह भी बोलते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा कानून में झारखंड के लिए तय राशन का कोटा (ग्रामीण क्षेत्र में 86 प्रतिशत) पूरा हो चुका है और नए कार्ड नहीं बनाए जा सकते हैं.
कानून के अनुसार, राशन पूर्वविक्ता प्राप्त (प्राथमिकता) परिवार को प्रति व्यक्ति के अनुसार दिया जाना है. लेकिन अनेक ऐसे कार्ड हैं जिनमें परिवार के कुछ सदस्यों के नाम नहीं जुड़े हैं, जिसके कारण लोग राशन से वंचित हैं.
आधार से संबंधित समस्याओं, जैसे आधार न होना, राशन कार्ड के साथ आधार लिंक न होना, ऑनलाइन बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण से जुड़ी तकनीकी समस्याएं आदि, के लिए अनेक कार्डधारी अपने राशन से वंचित हो रहे हैं.
हाल में हुए एक शोध में पता चला कि आधार आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण से जुड़ी समस्याओं के कारण रांची ज़िले में ही 10 प्रतिशत से अधिक कार्डधारी अपने राशन से वंचित हो रहे हैं.
साथ ही, अभी भी डीलरों द्वारा राशन की मात्रा में कटौती करना एक आम समस्या है, जिसका निराकरण बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण से नहीं ही पाया है. मशीन में परिवार द्वारा लिए गए राशन की मात्रा प्रत्येक सदस्य पांच किलोग्राम के हिसाब से ही दर्ज होती है, लेकिन डीलर वास्तव में इससे कम ही देते हैं.
राशन वितरण प्रणाली में आधार आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की व्यवस्था को अनिवार्य करने का आदेश राज्य के सबसे शीर्ष पदाधिकारी, मुख्य सचिव, द्वारा मार्च 2017 में दिया गया था. यह आदेश सरकारी सुविधाओं में आधार की अनिवार्यता के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के अनेक निर्णयों का उल्लंघन है.
राशन कार्डों को जल्द-से-जल्द आधार से जोड़ने का दबाव केंद्र सरकार से आ रहा है. लेकिन इसके कारण हो रहे राशन के अधिकार के उल्लंघनों को न समझते हुए राज्य की नौकरशाही आधार से जोड़ने की प्रक्रिया को पूरी प्रशासनिक मुस्तैदी के साथ चलाए जा रही है. यह सरकारी अफसरों में लोगों की समस्यों के प्रति जवाबदेही की कमी को दर्शाती है.
पिछले कुछ महीनों में लोगों के राशन कार्ड रद्द हो जाने की सूचना राज्य की विभिन्न जिलों से आ रही है. ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय प्रशासन ने मुख्य सचिव द्वारा राशन कार्ड को आधार से जोड़ने के निर्देशित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे अनेक कार्ड रद्द कर दिए है जो आधार से जुड़े नहीं थे. यह गौर करने की बात है कि राज्य सरकार ने हाल में यह दावा भी किया था कि 11 लाख ‘फ़र्ज़ी’ कार्ड रद्द किए गए हैं.
अपनी सफाई में झारखंड के खाद्य आपूर्ति मंत्री ने कहा है कि मुख्य सचिव ने उनके साथ परामर्श किए बिना ही ऐसा आदेश निर्गत किया था. लोगों के राशन के अधिकार को सुनिश्चित करने में सरकार की विफलता से पल्ला झाड़ने के लिए उन्होंने पिछले महीने मुख्य सचिव के आदेश को निरस्त कर दिया. लेकिन सवाल यह भी है कि उनके खुद का विभाग छह महीनों तक इस आदेश का पालन क्यों करते रहा.
तीनों ज़िलों के उपायुक्तों ने यह मानने से इंकार किया है कि लोगों की मौत भुखमरी के कारण हुई थी. वे शायद यह भूल जाते हैं कि उनके प्रशासनिक नेतृत्व में ही हाशिये पर रहने वाले ये परिवार राशन से वंचित थे.
धनबाद प्रशासन को बैधनाथ रविदास के परिवार को उनके मृत्यु के बाद राशन कार्ड निर्गत करने में एक सप्ताह भी नहीं लगा, जबकि परिवार द्वारा पिछले कुछ महीनों में कार्ड के लिए कई बार आवेदन दिया गया था.
सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडिया द्वारा बैधनाथ रविदास की मृत्यु को उजागर करने के बाद ही प्रशासन ने आनन-फानन में नए राशन कार्ड के आवेदनों के लिए शिविर लगाने का निर्णय लिया.
खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के बाद झारखंड की जन वितरण प्रणाली में कुछ महत्वपूर्ण सुधार दिखे हैं. पहले की तुलना अब अधिक प्रतिशत परिवारों को राशन मिल रहा है. राशन कार्ड की सूचियों का डिजिटलीकरण हुआ है और कार्डधारियों द्वारा खरीदे गए राशन की जानकारी अब सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध है.
लेकिन जन वितरण प्रणाली में आधार आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की व्यवस्था लागू करने के कारण बड़े पैमाने पर लोग अपने राशन के अधिकार से वंचित हो रहे हैं और राशन की अधिक प्रतिशत लोगों तक बढ़ी पहुंच की सुधार के निरस्त होने का खतरा मंडरा रहा है.
यह भी सोचने का विषय है कि पहले परिवार का कोई भी सदस्य, या कोई पड़ोसी भी, परिवार का राशन ला सकता था. बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण में तकनीकी समस्याएं होने से लोगों को कई बार राशन दुकान के चक्कर काटने पड़ते हैं, जिससे उनके समय और मज़दूरी का नुकसान होता है.
राज्य सरकार आधार आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की व्यवस्था की नाकामियों को मानने को तैयार नहीं है. हाल में सरकार के 1000 दिनों की उपलब्धियों के प्रचार के लिए आयोजित समारोह में खाद्य आपूर्ति विभाग ने यह दावा किया था कि सभी राशन कार्डों को आधार से जोड़ दिया गया है और सरकार सभी कार्डधारियों को सफलतापूर्वक राशन दे रही है.
भुखमरी के मामलों ने फिर से भाजपा सरकार की लोगों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी को उजागर किया है. मुख्यमंत्री और खाद्य आपूर्ति मंत्री ने यह मानने से इंकार कर दिया है कि लोगों की मृत्यु का मुख्य कारण भूख थी.
अभी तक मुख्यमंत्री ने इन मामलों के लिए मुख्य सचिव, विभागीय सचिव और उपायुक्तों पर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की है. यह सोचने की बात है कि कुछ महीनों पहले सराइकेला-खरसावां में आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री पर जूते फेंके जाने और काले झंडे दिखाए जाने के बाद ज़िले के उपायुक्त को तबादला करने में सरकार को केवल तीन दिन लगे थे.
खाद्य आपूर्ति मंत्री ने हाल में यह घोषणा की है कि अगर किसी के अंगूठे का निशान मशीन में काम न करें, तो उन्हें राशन से वंचित नहीं किया जाएगा. राशन डीलर एक रजिस्टर में वैसे व्यक्तियों को दिए राशन के विवरण को नोट करेंगे.
लेकिन जिस बड़े पैमाने पर लोग बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की व्यवस्था के कारण अपने राशन से वंचित हो रहे हैं, उसके निराकरण के लिए शायद ऐसी घोषणाएं अल्पकालिक उपाय हैं. अभी भी राशन वितरण प्रणाली से इस व्यवस्था को हटाने के लिए राज्य सरकार में इच्छाशक्ति नहीं दिख रही है.
खाद्य सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन में हो रही समस्याओं के निराकरण के लिए भी ईमानदार कोशिशों की कमी दिख रही है. विभाग ने अभी तक कार्ड में छूटे हुए सदस्यों के नाम जोड़ने की प्रणाली स्थापित नहीं की है.
ज़िला व प्रखंड स्तरीय आपूर्ति पदाधिकारी व मार्केटिंग पदाधिकारी के दो तिहाई से भी अधिक पद रिक्त हैं. एक प्रखंड स्तरीय पदाधिकारी ने इन समस्याओं के प्रति सरकार के रवैये को बड़ी सरलता से बताया, ‘रघुबर दास कागज़ पर ही उपलब्धियों को दिखाने में इच्छुक है. ज़मीनी स्तर की वास्तविकता और कार्यान्वयन से जुड़ी समस्याओं को मानने और ठीक करने की कोई मंशा नहीं है.’
इसमें शायद ही कोई शक है कि वर्तमान सरकार, साल 2000 में राज्य बनने के बाद, पांच साल की अवधि पूरी करने वाली पहली सरकार होगी. लेकिन मुख्यमंत्री के रवैये से ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार अपनी राजनीतिक स्थिरता का प्रयोग जन-विरोधी नीतियों (जैसे छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट/संथालपरगना टेनेंसी एक्ट व भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में संशोधन आदि) को लागू करने के लिए करना चाहती है और न कि राज्य में भोजन के अधिकार के हनन पर अंकुश लगाने के लिए.
(लेखक झारखंड में रहते हुए मनरेगा पर काफी समय से काम कर रहे हैं.)