अच्छा होता केंद्र सरकार शैक्षिक परिसरों में खुलापन क़ायम करने का प्रयास करती. गुंडा तत्वों, उत्पात मचाने वालों और गुरमेहर को हत्या व रेप आदि की धमकी देने वालों की मुस्तैदी से धरपकड़ की जाती.
आख़िर गुरमेहर कौर को उन्होंने शांत कर दिया. आज उसने ऐलान किया है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई हिंसा के बाद खड़े हुए ‘डीयू बचाओ’ आंदोलन से अपने पांव पीछे खींच रही है.
यह बहुत आहत करने वाला ऐलान है. बेटी बचाओ के फ़िक्रमंद भारत में जहां बेटियों का ज़िंदा रहना, घर से बाहर निकलना, पढ़ना, स्वतंत्र-ख़याल बनना आसान नहीं, वहां गुरमेहर ने पिछले साल अद्भुत प्रतिभा और साहस का परिचय दिया था.
एक वीडियो के ज़रिये उसने बग़ैर ज़बान खोले, सिर्फ़ लिखी इबारत के साथ, भारत-पाक दोस्ताने और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का पैग़ाम दिया.
उस वीडियो में उसने भारत-पाक सीमा पर शहीद हुए अपने पिता कैप्टन मनदीप सिंह को स्मरण करते हुए बताया था कि कैसे वह पाकिस्तान और मुसलमानों के प्रति घृणा को लेकर बड़ी हुई. मगर बाद में समझा कि उसके पिता महज़ युद्ध की मानसिकता (भारत-पाक के आपसी विद्वेष) का शिकार हुए हैं.
इस समझ ने उसे शांति और भाईचारे के लिए लड़ने वाली ‘सैनिक’ बना दिया.
उसका जुझारू तेवर दिल्ली विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी को लेकर भाजपा से सम्बद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हुड़दंग और अनंतर पनपी हिंसा के दौरान फिर सामने आया.
अपने फ़ेसबुक पन्ने पर अपनी तस्वीर गुरमेहर ने हाथ में फिर एक इबारत थाम कर शाया की, जिस पर लिखा था- ‘मैं एबीवीपी से नहीं डरती’.
इस बाग़ी तेवर पर संघ परिवार का एक तबक़ा बिफर गया. बीस बरस की गुरमेहर को मौत ही नहीं, रेप की धमकियां दी गईं. छात्र राजनीति में ऐसी घिनौनी हरकत मुझे नहीं ख़याल पड़ता हमारे यहां पहले कभी हुई होगी.
एक संघर्षशील छात्रा को रेप की सार्वजनिक धमकी सामने आने पर ज्ञान और शील (चरित्र) का जाप करने वाली विद्यार्थी परिषद को उसके हक़ में खड़े होना चाहिए था. और सरकार को आहत युवती के संरक्षक के रूप में प्रकट होना चाहिए था.
ख़ासकर इसलिए कि गुरमेहर के पिता देश के लिए जान क़ुर्बान कर इस दुनिया से जा चुके हैं. उसे समाज और सरकार की कृपा की नहीं, पर सहारे की ज़रूरत है.
लेकिन सरकार ने क्या किया? वह आहत गुरमेहर के हक़ में नहीं, मानो उसे धमकी देने वालों के साथ खड़ी नज़र आई. देश के गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि गुरमेहर का दिमाग़ किसी ने प्रदूषित (पोल्यूटेड) कर दिया है.
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एबीवीपी (जिसके कभी वे ख़ुद नेता थे) के सामने डटे छात्रों को अलगाववादी क़रार दिया. एक भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा ने गुरमेहर की तुलना आतंक के सरगना दाऊद इब्राहीम से कर डाली.
क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने गुरमेहर के ख़िलाफ़ ‘ट्रोलिंग’ को तो ग़लत बताया पर साथ में यह भी कह दिया कि रिजिजू ने कुछ ग़लत नहीं कहा.
हालांकि मंगलवार को रिजिजू ख़ुद सफ़ाई देने में लग गए. पर और एक विवादास्पद वक्तव्य देते हुए कि दरअसल कल तो वे ‘वामपंथियों’ के विरुद्ध बोल रहे थे, ‘जो किसी जवान के शहीद होने पर ख़ुश होते हैं, इसका जश्न मनाते हैं’.
कहना न होगा, यह साफ़ ज़ाहिर है मंत्रियों या भाजपा नेताओं का स्वर आंदोलन से जुड़े ‘वामपंथी’ छात्रों (चाहे उनमें सब वामपंथी न हों) को ‘राष्ट्र-विरोधी’ ठहराने का ही था.
यह वही स्वर था जो एबीवीपी ने जेएनयू में बुलंद किया. इसी स्वर में जेएनयू के छात्र नेता उमर ख़ालिद को रामजस कालेज में शिरकत करने से रोका गया. इसी स्वर में छात्रों के साथ-साथ विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित शिक्षकों पर भी हमले हुए.
हम और पीछे जाने लगें तो रोहित वेमुला को आत्महत्या की ओर धकेलने से लेकर विभिन्न परिसरों में एबीवीपी के कथित राष्ट्रवाद की परिणति घृणा और हिंसा में ही नज़र आएगी.
क्या भाजपा या उसके नेतृत्व वाली सरकार ने सोचा है कि परिसरों में इस क़िस्म का माहौल पनपने देकर, उसे शह देकर विश्वविद्यालयी शिक्षा को वह क्या शक्ल देना चाहती है? विचारों की अभिव्यक्ति, आपसी आवाजाही आदि पर सवाल उठा कर वे कैसा भारत बनाना चाहते हैं?
हर प्रतिरोधी को भारत-विरोधी ठहराना, पुलिस को हमलावरों के बचाव में लगाना प्रगतिशील सोच के छात्रों को हतोत्साह करेगा या उनके अपने छात्र संगठन के हाथ मज़बूत करेगा?
दिल्ली के महिला आयोग ने पुलिस से कहा है कि गुरमेहर को धमकी देने वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज़ कर कार्रवाई करे. गृह राज्यमंत्री ने भी कहा है कि पुलिस अपना काम करेगी. लेकिन पुलिस तो अब तक तक हाथ पर हाथ धरे बैठी है.
केंद्रीय मंत्रियों के रवैए से संघ परिवार के विभिन्न तबके उलटे और प्रोत्साहित ही हुए हैं. गुरमेहर पर सीधे लांछन लगा जाने लगे हैं, धमकियां दी जा रही हैं. कहा गया है कि वह एक राजनीतिक दल से ताल्लुक़ रखती है. पता नहीं, पर इससे फ़र्क़ क्या पड़ता है? हम अपने समर्थकों को राजनीतिक और अन्य को ग़ैर-राजनीतिक क्यों देखना चाहते हैं?
उसके पिता की शहादत को भी विवाद में घसीटने की कोशिशें चली हैं. सवाल उठाए जा रहे हैं कि कैप्टन मनदीप कश्मीर में तो शहीद हुए, पर करगिल में हुए या करगिल के बाद कुपवाड़ा में? इससे क्या हासिल हो सकता है, सिवा गुरमेहर और उसकी मां को मानसिक रूप से और यातना देने के?
अच्छा होता केंद्र सरकार फिर से शैक्षिक परिसरों में खुलापन क़ायम करने के प्रयास करती. विरोधी विचारधाराओं में भी पारस्परिक अभिव्यक्ति और संवाद का माहौल बनाया जाता. गुंडा तत्त्वों, उत्पात मचाने वालों और गुरमेहर को हत्या या रेप आदि की धमकी देने वालों की मुस्तैदी से धरपकड़ की जाती.
मगर मौजूदा निज़ाम से यह उम्मीद करना लगभग नामुमकिन हो चला है. क्योंकि यह निज़ाम सुशासन का हरकारा नहीं, विचार के स्तर पर समानधर्मा होने के कारण तथाकथित राष्ट्र-भक्तों के हक़ में पार्टी बन बैठा है.
ऐसे में कोई न्यायपूर्ण व्यवस्था क़ायम नहीं हो सकती. इस नीति और मनोवृति से घृणा, हिंसा और धमकियों का आलम ही हावी होगा.
जैसा कि कहा भी करते हैं – सैंया भए कोतवाल, अब डर काहे का!