भीम आर्मी का भविष्य क्या है

चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा स्थापित भीम आर्मी लगातार दलितों से जुड़े मुद्दों को उठाने का दावा करती रही है, लेकिन क्या बहुजन समाज को इस पर भरोसा है?

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भीम आर्मी की एक जनसभा में चंद्रशेखर आज़ाद. (फोटो साभार: फेसबुक/भीम आर्मी)

चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा स्थापित भीम आर्मी लगातार दलितों से जुड़े मुद्दों को उठाने का दावा करती रही है, लेकिन क्या बहुजन समाज को इस पर भरोसा है?

भीम आर्मी की एक जनसभा में चंद्रशेखर आज़ाद. (फोटो साभार: फेसबुक/भीम आर्मी)

28 जून को सहारनपुर के देवबंद में चंद्रशेखर आजाद पर हुए जानलेवा हमले के बाद से ही वे एवं उनका राजनीतिक दल- भीम आर्मी चर्चा का विषय बने हुए है. पिछले कुछ समय से चंद्रशेखर द्वारा स्थापित भीम आर्मी दलितों का पक्ष राष्ट्रीय पटल पर रखने का दावा लगातार करती रही है.

चूंकि दलित विभिन्न ऐतिहासिक कारणों की वजह से मुख्यधारा का हिस्सा नहींं रहे हैं इसलिए दिल्ली में बैठकर इस बात की पुष्टि करना बेहद कठिन है कि वास्तव में उत्तर प्रदेश के दलित भीम आर्मी को अपना प्रतिनिधि मानते हैं कि नहींं. इसलिए दलितों के बीच भीम आर्मी की पहचान, पहुंच एवं प्रगति को मापने के लिए पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो दलित बहुल गांवों का दौरा किया.

ग्राम चावड़ में बुद्ध की प्रतिमा पर विवाद

बरेली जिले के इज्ज़तनगर क्षेत्र में स्थित ग्राम चावड़ के अस्सी वर्षीय निवासी माननीय द्वारिका प्रसाद जी बहुत हर्ष के साथ बताते है कि समकालीन समय में कैसे बरेली क्षेत्र में बहुजन आंदोलन के विस्तार में उनके गांव ने अभिन्न योगदान दिया है. द्वारिका जी की याददाश्त थोड़ी कमजोर हो गई है पर वे उन दिनों को याद कर सकते है जब वे मान्यवर कांशीराम के साथ स्वयं साइकिल चलाकर और ललई सिंह यादव के साथ मंच साझा कर दलित आंदोलन में व्यक्तिगत रूप से योगदान दिया करते थे.

चावड़ में बीते 5 जुलाई को ग्रामीणों के भारी विरोध के कारण प्रशासन के द्वारा बुद्ध की मूर्ति को हटाने जाने के असफल प्रयास पर टिप्पणी करते हुए द्वारिका जी बहुजन समाज पार्टी (बसपा )की स्थापना के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में बहुजन आंदोलन के प्रति पुलिस के इससे भी अधिक बर्बर व्यवहार को देखा है. वो इस बात के साक्षी हैं कि कैसे कांशीराम एवं मायावती के द्वारा संचालित बसपा के विस्तार से उनकी जाटव जाति के लोगों को चावड़ जैसे गांव, जहां पिछड़ी ओबीसी जातियों के लोग भी रहते है, में एक सम्मानजनक जीवन मिल पाया है.

द्वारिका जी के पुत्र अमित प्रियदर्शी चावड़ में बुद्ध प्रतिमा पर हुए पूरे विवाद को इस प्रकार समझाते हैं, ‘बीते कुछ समय में गांव के पास ही बरेली एयरपोर्ट का निर्माण होने के कारण गांव की भूमि के दामों में अचानक से बढ़ोत्तरी हो गई. चावड़ में आसमान छूती भूमि की कीमतों ने बहुत से दबंग कारोबारियो को आकर्षित किया. वर्तमान में इन्हीं कारोबारियों में से एक ग्राम सभा की सामुदायिक भूमि, जिस पर तथागत बुद्ध की मूर्ति स्थापित है, पर कब्जा करना चाहता है. गत दिनों जब प्रशासन ने उक्त कारोबारी के कथित प्रभाव में आकर तथागत बुद्ध की मूर्ति को उखाड़ने का प्रयास किया तो गांव के जाटव जाति के लोगों ने इसका कड़ा विरोध किया और प्रशासन को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा.’

इस पूरी घटना में भीम आर्मी की बरेली शाखा के मुख्य सदस्य अतुल वाल्मीकि ने भी चावड़ के जाटव समुदाय की मदद करने का प्रयास किया. करीब पच्चीस वर्षीय अतुल महात्मा ज्योतिबा फुले रूहेलखंड यूनिवर्सिटी में एलएलबी के छात्र है और भीम आर्मी के साथ वर्ष 2017 से औपचारिक रूप से जुड़े हुए है.

द्वारिका प्रसाद (बाएं) एवं उनके पुत्र अमित प्रियदर्शी. (फोटो: आलोक राजपूत)

कांशीराम एवं ललई सिंह जैसे बहुजन आंदोलन के दिग्गजों के साथ काम कर चुके द्वारिका प्रसाद जी प्रारंभिक स्तर पर तो भीम आर्मी से प्राप्त हुए सहयोग को नहीं नकारते है लेकिन भीम आर्मी की बहुजन आंदोलन में पूरी भूमिका पर उनकी कोई सकारात्मक राय नहीं है.

यदि उक्त भूमि कारोबारी, जिसकी चावड़ में बुद्ध की मूर्ति को हटाने की पूरी कार्रवाई में भूमिका संदिग्ध है, को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा ‘खालिस्तानी’ बताकर उससे निपटने का द्वारिका जी को दिया गया सुझाव उनकी समझ के बाहर है, तो द्वारिका जी को भीम आर्मी का दलित हितों के लिए सांगठनिक रूप से कमजोर अतिवादी रवैया भी समझ नहींं आता है.

अमित तर्क करते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा में रहते हुए यदि तेलंगाना के बसपा प्रत्याशी आरएस प्रवीन राजनीति में आने से पूर्व शिक्षा के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम कर सकते हैं और तेलंगाना के आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री के प्रस्तावित चेहरे के रूप उभर सकते हैं तो चंद्रशेखर आजाद को भी बहुजन राजनीति में प्रवेश करने के पूर्व जनकल्याण के क्षेत्र में काम करना चाहिए था.

हिंदुत्व आधारित राजनीति के इस दौर में जब बहुजन आंदोलन की कभी अगुवा रही बसपा की चमक काफी फीकी पड़ गई है और दलितों के बीच भीम आर्मी सरीखे नए दल उभर रहे हैं. चावड़ के जाटव समुदाय के भीतर बसपा को लेकर सकारात्मक रवैया इस बात की ओर इंगित करता है कि बसपा का दलित टोलों में दबदबा अभी भी बरकरार है.

ग्राम मुसिलतपुर में आंबेडकर की मूर्ति के विषय में पुलिस व ग्रामीणों के बीच झड़प

चावड़ गांव के उलट पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला भदोही के गांव मुसिलतपुर में बहुजन आंदोलन का कोई खास इतिहास नहींं रहा है. गांव का अधिकांश जाटव समुदाय अशिक्षित है और भदोही में स्थित कालीन बनाने वाली फैक्ट्रियों में मजदूरी करके अपनी रोजी-रोटी कमाता है.

मुसिलतपुर में जब 23 जून की रात भीम आर्मी के कुछ सदस्यों ने गांव के लोगों के सहयोग से आंबेडकर की मूर्ति को स्थापित करने का प्रयास किया तो ग्रामीणों एवं पुलिस के बीच हिंसक झड़प हो गई क्योंकि गांव के जाटव समुदाय का दावा है कि पुलिस गांव के ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर उन पर हिंसा कर रही है. प्रथमदृष्टया जाटवों का दावा सही भी नजर आता है.

23 तारीख की घटना के विषय में मुसिलतपुर में सुबह से शाम तक भटकने के बावजूद कोई भी दलित हमसे बात करने की हिम्मत नहींं जुटा सका. ग्रामीणों में व्याप्त भय की तहकीकात करने पर पता चला कि 23 तारीख की घटना के बाद पुलिस दलितों को रात के अंधेरे में आकर दैनिक रूप से मारती है ग्रामीण अपनी व्यथा मीडिया को बताने का रिस्क नहींं लेना चाहते हैं.

शायद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चावड़ के उलट पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसिलतपुर में बहुजन आंदोलन की जड़ें ऐतिहासिक रूप से कमजोर होने के कारण ही पुलिस को मुसिलतपुर में वैसी ही बर्बरता दिखाने का पूरा मौका मिलता है जैसी बर्बरता चावड़ के द्वारिका प्रसाद ने उस समय झेली भी जब वे मान्यवर कांशीराम के साथ बरेली में साइकिल यात्रा किया करते थे.

पुराने बहुजन आंदोलनों की जड़ों का पूर्वी उत्तर प्रदेश में कमजोर होना ही वो वैक्यूम है जिसमें भीम आर्मी दलितों के बीच अपनी जगह बनाती हुई नजर आती है. मुसिलतपुर जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव में जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अपेक्षा सामंतवाद कही अधिक है वहां दलित केवल भीम आर्मी के अशोक कुमार गौतम सरीखे धाकड़ एक्टिविस्टों की उपस्थिति में ही हिम्मत जुटाकर बात करने के लिए आगे आ पाए.

अशोक कुमार भीम आर्मी के सदस्य के रूप में जिला भदोही में पिछले कुछ वर्षो से सक्रिय है. अशोक भी बरेली के भीम आर्मी के कार्यकर्ता अतुल की तरह पूर्णतः शिक्षित है. 23 तारीख की पूरी घटना का ब्यौरा देते हुए अशोक बताते है कि कैसे कथित ग्राम सभा की भूमि पर जाटव समुदाय द्वारा आंबेडकर की मूर्ति स्थापित करने के प्रयास के विरोध में गांव के यादव जाति के सरपंच एवं ब्राह्मणों के सहयोग से पुलिस ने जाटवों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया.

हालांकि, मुसिलतपुर में दलितों को एक दृढ़ आवाज देने के कारण भीम आर्मी के नेतृत्व के विषय में दलितों के बीच में कोई मतभेद नहींं है लेकिन कुछ एक बुजुर्ग भीम आर्मी की दलित उत्थान की पूरी रणनीति से इत्तेफाक नहीं रखते.

भदोही मे भीम आर्मी के सदस्य अशोक कुमार गौतम (बाएं) अभिषेक (दाएं). (फोटो: आलोक राजपूत)

मुसिलतपुर के एक मुनिराज नाम के बुजुर्ग दलितों के बीच व्याप्त भूमि के स्वामित्व को लेकर पसरी छटपटाहट के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहते है कि इंदिरा गांधी के समय इमरजेंसी के दौरान गांव के बहुत से दलितों ने भूमि का अपने समाज के लोगों के नाम पर सामूहिक पट्टा कराने के लक्ष्य से सरकार द्वारा संचालित नसबंदी प्रोग्राम में हिस्सा लिया था, लेकिन मुसिलतपुर में कभी भी दलितों के नाम पर भूमि का कोई पट्टा नहींं हुआ और अधिकांश जमीनें ब्राह्मणों के पास ही रही.

उनके अनुसार, दलितों का सामाजिक एवं आर्थिक उद्धार तभी हो सकता है जब दलितों को भूमि का स्वामित्व मिले अन्यथा ब्राह्मणों के वर्चस्व के खिलाफ दलितों की कोई भी आवाज निरर्थक साबित होगी क्योंकि अंत में दलितों को अपने गुजारे के लिए ब्राह्मणों की भूमि में मजदूरी ही करना पड़ेगा. और इस प्रकार का स्वामित्व भीम आर्मी सरीखे अतिवादी रवैये से नहीं बल्कि तभी संभव है जब राज्य में बसपा द्वारा संचालित सरकार हो.

ग्राम चावड़ एवं मुसिलतपुर के उदाहरण से न सिर्फ ग्रामीण स्तर पर दलितों की समस्याओं के विषय में एक पुख्ता समझ बनती है बल्कि ये भी समझ आता है कि भीम आर्मी के द्वारा इन दलितों को की गई मदद के नफ़े और नुकसान क्या हैं. हालांकि भीम आर्मी अब औपचारिक रूप से आज़ाद समाज पार्टी के रूप में स्थापित हो गई है, भविष्य में ये देखना बेहद रोचक होगा कि ये पार्टी दलितों के बीच में अपनी कितनी पैठ बना पाती है.

(लेखक जेएनयू मेंं समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं.)

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