जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद से जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत हिरासत में लिए गए लोगों के वकीलों और परिजनों का कहना है कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान इन मामलों को दैनिक कार्य सूची में इतना नीचे स्थान दिया जाता है कि ये सुनवाई के लिए जज तक पहुंच ही नहीं पाते हैं, जिससे क़ैद से लोगों का बाहर आना चुनौती बना हुआ है.
श्रीनगर: एक मेडिकल एनजीओ में ऑपरेटिंग थियेटर तकनीशियन के रूप में कार्यरत 29 वर्षीय आमिर बशीर वार पिछले साल 26 जून को एक एंबुलेंस में चिकित्सा आपात स्थिति वाले मरीजों की देखभाल कर रहे थे, जिन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था.
उन्हें उत्तरी कश्मीर के सोपोर शहर के वारपोरा गांव स्थित जम्मू कश्मीर पुलिस की चौकी से एक फोन आया. आमिर को पुलिस के समक्ष प्रस्तुत होने का आदेश दिया गया. उन्होंने तुरंत अपने पिता 62 वर्षीय बशीर अहमद को फोन किया, जो फोन के तुरंत बाद आमिर के साथ जाने के लिए अपने घर से निकल पड़े.
बशीर अहमद ने द वायर को बताया, ‘हमने सोचा कि यह उसके पासपोर्ट आवेदन के संबंध में है.’ हालांकि पुलिस के पास पहुंचने पर पिता को चले जाने का आदेश दिया गया, जबकि आमिर को रुकने के लिए कहा गया.
अगले दिन आमिर को गिरफ्तार कर लिया गया और जम्मू के कोट भलवाल जेल परिसर में ले जाया गया. उन पर केंद्र शासित प्रदेश का सख्त निवारक हिरासत कानून, जन सुरक्षा कानून (पीएसए) लगाया गया था.
हिरासत के आधारों को सूचीबद्ध करने वाले पीएसए डोजियर में आमिर पर पाकिस्तानी आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) से जुड़े होने, आतंकवादियों को पोषण और आश्रय देने और पकड़े जाने से बचने के लिए एन्क्रिप्टेड संचार उपकरणों का उपयोग करने का आरोप है.
इसमें उन पर सोशल मीडिया पर आतंकवादी समूह के पक्ष में ‘आक्रामक’ अभियान चलाने का भी आरोप लगाया गया है.
हालांकि, परिवार ने इसका कड़ा विरोध किया और आमिर के खिलाफ पीएसए मामले को रद्द कराने के लिए पिछले साल जम्मू, कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की.
आमिर के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है, उनके वकील ने द वायर से बात करते हुए कहा कि इससे उनकी हिरासत को रद्द करने में मदद मिल सकती है. वकील बशीर टाक ने कहा, ‘हम तर्क दे रहे हैं कि हिरासत अस्पष्ट आधार पर है और एफआईआर न होना हमारे तर्क के समर्थन में है.’
फिर भी मामला पिछले छह महीनों में केवल एक बार सुनवाई के लिए आया है, बावजूद इसके कि यह सात बार हाईकोर्ट की ‘कार्य सूची’ में शामिल रहा. रिपोर्ट लिखे जाने के समय इस पर दूसरी बार सुनवाई की गई.
आमिर अकेले नहीं हैं, जो इस स्थिति का सामना कर रहे हैं. द वायर ने कम से कम एक दर्जन परिवारों से बात की, जिनके प्रियजनों को इस कठोर कानून (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया है, साथ ही उन वकीलों से भी जो इन मामलों को लड़ रहे हैं.
उन सभी ने सर्वसम्मति से दावा किया कि हिरासत से संबंधित मामलों में ‘सुनवाई की कमी’ एक ‘नियमित समस्या’ बन रही है, खास तौर पर 2019 में राज्य से विशेष दर्जा वापस लिए जाने के बाद से.
वकीलों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि हिरासत के मामलों को दैनिक कार्य सूची के अंत में धकेल दिया जा रहा है, इसलिए जब उन पर सुनवाई की बारी आती है तो 4 बज चुके होते हैं और अदालतें दिन की समाप्ति की घोषणा कर देती हैं.
बीते 9 जून को द वायर ने श्रीनगर में हाईकोर्ट परिसर का दौरा करके जेल में बंद आरोपियों के रिश्तेदारों से बातचीत की, जो मामलों की सुनवाई के लिए आए थे.
इनमें दक्षिण कश्मीर के कुलगाम जिले की साइमा मंज़ूर भी शामिल थीं. उनके 24 वर्षीय भाई इरफ़ान मंज़ूर को सुरक्षा बलों ने फरवरी 2022 में मिरहमा गांव में उनकी कपड़ों की दुकान से गिरफ्तार कर लिया था. उनके परिवार ने कहा कि उत्तर प्रदेश की बरेली केंद्रीय जेल में भेजे जाने से पहले उन्हें घाटी की विभिन्न जेलों में रखा गया था.
उनके पिता मंज़ूर अहमद को याद नहीं है कि आखिरी बार मामला कब सुनवाई के लिए आया था (हाईकोर्ट के दस्तावेज़ बताते हैं कि यह इस साल 7 मार्च को सुनवाई पर आया था).
साइमा ने कहा, ‘जब भी मामला सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होता है तो हम यहां आते हैं. हम भूखे-प्यासे पूरे दिन इंतजार करते हैं, सिर्फ यह सूचना पाने के लिए कि मामले पर सुनवाई नहीं हो सकी.’
इरफ़ान का मामला पिछले साल मई से 25 बार दैनिक कार्य-सूची में रखा गया है, लेकिन आदेश केवल पांच मौकों पर पारित किए गए हैं, जिनमें से चार केवल अदालत द्वारा प्रतिवादियों (यानी जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश) को हिरासत रिकॉर्ड दाखिल करने का निर्देश देने से संबंधित हैं.
बीते 9 जून को यह मामला क्रमवार सूची में 104वें नंबर पर दर्ज था. उनके परिवार ने पहले ही मान लिया था कि इस पर सुनवाई नहीं होगी.
कुछ ऐसी ही कहानी दक्षिण कश्मीर जिले के कुलगाम के मजदूर इदरीस डार (30 वर्ष) ने सुनाई. उनके 19 वर्षीय भाई मोहम्मद इलियास भी अप्रैल 2022 से हिरासत में हैं. उनका मामला 24 बार सूचीबद्ध किया गया, लेकिन अदालत के दस्तावेज केवल तीन आदेश दिखाते हैं.
डार ने कहा, ‘हमने अदालत का दरवाजा खटखटाया है, लेकिन हर बार जब मामला सूचीबद्ध होता है, तो यह क्रम संख्या 120, 130 या 125 के आसपास घूमता रहता है. हमारी बारी कभी नहीं आती है.’
आखिरी बार जजों ने इलियास की याचिका पर इस साल 31 मार्च को सुनवाई की थी.
इदरीस कहते हैं, ‘मैं जजों से बस ऐसे कदम उठाने की प्रार्थना करता हूं, जिनसे सुनवाई प्रक्रिया में तेजी आए. मैं अपराध की माफी नहीं मांग रहा हूं. मामले का फैसला गुण-दोष के आधार पर किया जाना चाहिए, लेकिन कम से कम उन्हें हमारी बात सुनने की जरूरत है.’
जन सुरक्षा कानून क्या है
जम्मू कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम-1978 (पीएसए) एक विवादास्पद निवारक हिरासत कानून है, जो कानून प्रवर्तन एजेंसियों को व्यक्तियों को छह महीने के लिए एहतियातन हिरासत में लेने और उनकी हिरासत को दो साल तक बढ़ाने की अनुमति देता है, यह उस खतरे की प्रकृति पर निर्भर करता है, जिसके बारे में अधिकारियों का मानना है कि वे ‘कानून और व्यवस्था के रखरखाव’ और ‘राज्य की सुरक्षा’ के लिए उत्पन्न हो सकते हैं.
पीएसए के तहत जमानत पाने की कोई व्यवस्था नहीं है. मामलों को एक सलाहकार बोर्ड में ले जाया जाता है, जिसके सदस्यों का चयन प्रशासन द्वारा स्वयं किया जाता है, जो यह निर्धारित करता है कि क्या वे उचित आधार पर दायर किए गए हैं. यदि मामला बोर्ड के स्वीकार्यता परीक्षण पर खरा नहीं उतरता है तो उसे खारिज कर दिया जाता है.
2018 में कानूनी शोधकर्ताओं द्वारा प्राप्त आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि 2016-17 में केवल 0.6 फीसदी पीएसए के मामले बोर्ड की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. शेष 99.4 फीसदी मामलों में, जिनमें 998 व्यक्ति शामिल थे, बोर्ड ने हिरासती आदेशों को सही माना.
हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के परिवारों के लिए एकमात्र विकल्प जम्मू, कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करके उनकी कैद के खिलाफ अपील करने का बचता है.
बंदी प्रत्यक्षीकरण अपीलों की बढ़ती संख्या
द वायर द्वारा देखे गए हाईकोर्ट के आंकड़ों के आधार पर पीएसए के तहत हिरासत को चुनौती देने वाली याचिकाएं पिछले सालों में तेजी से बढ़ीं हैं. 2019 में जब अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म कर जम्मू कश्मीर राज्य का विभाजन हुआ, हाईकोर्ट को 507 ऐसी याचिकाएं प्राप्त हुई थीं.
बाद के सालों में आंकड़े क्रमश: 203 (2020 में), 327 (2021 में), और 841 (2022 में) रहे, जो तेज वृद्धि का संकेत देते हैं. इस वर्ष अब तक हाईकोर्ट को 266 याचिकाएं प्राप्त हुई हैं, जिनमें से केवल 16 का निपटारा किया गया है, जबकि 250 लंबित हैं.
द वायर से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर ने कहा, ‘यह भयावह है कि मामलों पर सुनवाई नहीं हो रही है. बार-बार स्थगन पूरी तरह से अस्वीकार्य है. इस मामले को मुख्य न्यायाधीश के सामने उठाया जाना चाहिए.’
वरिष्ठ वकील और जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के प्रवक्ता जीएन शाहीन ने द वायर को बताया कि बार एसोसिएशन के सदस्यों ने इस मामले को लेकर जम्मू कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एन. कोटिस्वर सिंह से संपर्क किया था.
शाहीन ने कहा, ‘एसोसिएशन की ओर से हमने माननीय मुख्य न्यायाधीश से सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के आलोक में एक तंत्र तैयार करने का अनुरोध किया.’
कम सुनवाई होने पर अपनी व्यक्तिगत हताशा का जिक्र करते हुए शाहीन ने कहा कि उन्हें बंदियों के रिश्तेदारों से हर दिन दर्जनों फोन कॉल आते हैं.
पीएसए के मामले लड़ रहे वकीलों में से एक बशीर टाक ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था, ‘आज मेरे कुछ मामले सूची में क्रमांक 133 और 135 पर अंकित हैं. कल एक मामला 244वें क्रमांक पर था, दूसरा 256 पर था. इस बात की कोई संभावना नहीं है कि इतने दूर रखे गए मामले की सुनवाई की जाएगी.’
आमिर के पिता बशीर अहमद ने कहा, ‘मेरे बेटे का मामला 10 और 21 जुलाई को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था. इन दोनों तारीखों पर मामले की सुनवाई नहीं हुई, जबकि वह क्रम संख्या 59 (सामान्य श्रेणी) और क्रम संख्या 11 (अंतिम सुनवाई) पर था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हालांकि, माननीय न्यायाधीश ने दो अन्य मामले सुने जिनमें से एक को रद्द कर दिया गया और दूसरे को रिजर्व कर दिया गया.’
यहां गौर करने वाली बात है कि पीएसए के तहत हिरासत में रखे जाने से पहले बंदियों के खिलाफ नियमित मामले दर्ज नहीं किए जाते हैं, जिसका मतलब यह है कि पुलिस जानती है कि किसी व्यक्ति के आतंकवाद में शामिल होने या किसी अपराध को अंजाम देने के जो सबूत उसके पास हैं, वह अदालती सुनवाई में ज्यादा नहीं टिक सकेंगे.
बहरहाल द वायर ने 13 पीएसए मामलों की समीक्षा की जिन्हें जम्मू कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने वर्ष 2023 में रद्द कर दिया था.
इन हिरासत आदेशों को रद्द करने के पीछे दिए गए कारणों से पता चलता है कि बंदियों पर लगाए गए आरोपों की गंभीरता के बावजूद पीएसए आदेश अंततः अमान्य हो जाते हैं, क्योंकि वादी के वकील यह साबित करने में सफल हो जाते हैं कि हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी ने हिरासत को अधिकृत करते समय अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, या यह कि उत्तरदाताओं (जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश) ने बंदियों को हिरासत के आधार नहीं बताए, जिसके आधार पर वे अपनी नजरबंदी के खिलाफ अपील कर सकते थे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)