ट्रंप-राज में मीडिया की स्वतंत्रता पर जारी बहस को पत्रकारिता के लिहाज से भारतीय संदर्भ में भी समझने की जरूरत है.
अमेरिका में मीडिया को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बेहद अनुदार, गैर-शालीन और अड़ियल रवैये के बीच रॉयटर न्यूज एजेंसी के एडिटर-इन-चीफ स्टीव एडलर ने पिछले दिनों अपने संवाददाताओं को भेजे संदेश में कहा कि हमें इस दौर में अपने उस कौशल का अमेरिका में भी उपयोग करना चाहिए जिसे दुनिया के बेहद दुरूह और टकराव-भरे इलाके में पत्रकारिता करते हुए हम सबने विकसित किया है.
अपने संदेश में उन्होंने साफ कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल के दौरान अमेरिकी शासन को उसी एहतियात और कौशल से कवर किया जाना चाहिए, जैसे हम तुर्की, यमन, फिलीपींस, इराक, मिस्र, चीन, थाईलैंड, जिम्बाब्वे या रूस के घटनाक्रमों को कवर करते रहे हैं.’
संपादक के संदेश को हम सिर्फ इसलिए अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं मान सकते कि अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप या उनके मीडिया सलाहकारों ने अभी तक पत्रकारों को सिर्फ ‘दुनिया का सबसे बेईमान जीव’, ‘विपक्षी पार्टी’ या ‘निहायत गए-गुजरे इंसान’ ही तो कहा है, कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई है या कि कुछेक पत्रकारों को सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस से बाहर ही किया है, किसी को जेल में नहीं डाला है!
दुनिया में निरंकुश शासन वाले देशों में ही नहीं, लोकतांत्रिक ढांचे वाले अनेक विकासशील देशों में पत्रकारों को जेलों में भी डाला जाता है, उन्हें नौकरियों से बेदखल किया जाता है और यहां तक कि जान से भी हाथ धोना पड़ता है. भारत इसका अपवाद नहीं है.
अमेरिका में इस वक्त शासन और मीडिया के बीच जो हालात पैदा हुए हैं, वे पूरी दुनिया के लोकतंत्र और मीडिया के लिए चिंताजनक हैं. यह सब उस मुल्क में हो रहा है, जो (विकासशील और अविकसित देशों में तमाम दुरभिसंधियों, आक्रमणों और सत्ता-पलट के षडयंत्रों के बावजूद) अपने आपको दुनिया में लोकतंत्र और मानवाधिकार का सबसे मुखर प्रवक्ता और संरक्षक बताता आ रहा है.
अतीत में कई ‘ह्विसल-ब्लोअर्स’ को ‘जासूसी-निरोध कानून’ के तहत दंडित करने के अपने विवादास्पद रिकॉर्ड के बावजूद अमेरिका प्रेस की स्वतंत्रता के वैश्विक इंडेक्स की 180 देशों की सूची में 41वें नंबर पर है. यानी वह प्रेस-फ्रीडम के मामले में दुनिया के बेहतर 50 देशों में शुमार है, जबकि हमारे भारत को इस इंडेक्स में 133वें स्थान पर रखा गया है.
हम यहां अमेरिका और भारत के बीच प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर कोई तुलना नहीं कर रहे हैं. पर ट्रंप के चुनाव अभियान और उनके सत्तारोहण के बाद मीडिया की स्वतंत्रता की चुनौतियों पर अमेरिका सहित तमाम देशों में जिस तरह की बहस चल रही है, वह कई दृष्टियों से भारत के लिए प्रासंगिक है.
यह अलग बात है कि कुछ सेमिनारों या बहसों के अलावा भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का विषय मुख्यधारा के मीडिया के लिए कभी बड़ा मुद्दा नहीं बनता. प्रेस की स्वतंत्रता के लगातार सिमटते दायरे पर शायद ही किसी लोकतांत्रिक देश या समाज का मीडिया इस कदर लापरवाह हो!
उल्टे हमारा मीडिया इस बात के लिए अपनी पीठ आप ही ठोकता रहता है कि उसे भारत में ‘चौथा खंभा’ कहा जाता है. सवाल है, किस संरचना का ‘चौथा खंभा’ है हमारा मीडिया, सत्ता-व्यवस्था का या लोकतंत्र का?
अमेरिकी मीडिया की तरह आज भारतीय मीडिया भी कॉरपोरेटीकृत मीडिया है. अमेरिका के मुकाबले हमारे यहां कॉरपोरेटीकरण बाद की प्रक्रिया है. पर कॉरपोरेटीकृत होने के बावजूद दोनों देशों के मीडिया और पत्रकारों के लिए प्रेस की स्वतंत्रता के मायने अलग-अलग दिखते हैं!
अमेरिकी मीडिया के बड़े-बड़े संपादक और मीडिया घराने आज डंके की चोट पर कह रहे हैं, ‘आप (ट्रंप और उनके सलाहकार) अगर हमें रिपोर्टिंग के लिए मंजूरी देते हैं, अच्छी बात. वरना हमें सूचना पाने के वैकल्पिक रास्ते मालूम हैं. हमने पहले भी देखा कि आपके (ट्रंप) चुनाव-अभियान की सबसे अच्छी रिपोर्टिंग उन मीडिया संस्थानों या चैनलों ने की, जिनको आपने कवरेज के लिए आने से प्रतिबंधित कर रखा था.’
यही नहीं, वे यह भी कह रहे हैं कि ‘ये फैसला हम करेंगे कि शासन या ह्वाइट हाउस के प्रवक्ताओं को कितना एयर-टाइम या स्पेस देना है!’ लेकिन हमारे यहां तो कुछ अपवादों को छोड़कर सारे बड़े मीडिया घराने, संस्थान और उनके ज्यादातर पत्रकार बीते कई बरसों से सत्ता, खासकर सत्ता-शीर्ष से अपनी ‘एक्सेस’ को शानदार-चमकदार पत्रकारिता का बुनियादी आधार मानते आ रहे हैं. और इसकी बड़ी वजह है, मीडिया-मालिकों या संचालकों की सत्ता से नजदीकियां.
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज भारतीय मीडिया मालिक बड़े पैमाने पर बहुधंधी हैं. अपने वाणिज्यिक फायदे के लिए संपादकों-पत्रकारों का इस्तेमाल करने को वे आदत बना चुके हैं. कई बार देखा गया कि जो संपादक इस आदत के लिए व्यवधान बने, उन्हें तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
भारतीय लोकतंत्र और भारतीय मीडिया के लिए सिर्फ ‘याराना-पूंजीवाद’ ही समस्या नहीं है, बीते कुछ दशकों से ‘आवारा-लंपट पूंजी’ भी एक समस्या बनकर उभरी है. अगर निजी टीवी चैनलों का परिदृश्य देखें तो पाएंगे कि ऐसे अनेक उपक्रमों में हाल के बरसों में रियल-एस्टेट, हवाला कारोबारियों, बहुधंधी उद्योगपतियों, बाबाओं और बेनामी संपति रखने वाले कुछ नेताओं की भी पूंजी लगी है.
मीडिया में इस तरह के पूंजी-निवेश के दुष्चक्र ने प्रेस की स्वतंत्रता के हालात और खराब किए हैं. यह महज संयोग नहीं कि आज के ज़्यादातर निजी टीवी चैनल सूचना और ज्ञान की दुनिया से दूर रहकर पत्रकारिता के नाम पर सिर्फ ‘एक्सेस, पैकेज या भौंड़े-मनोरंजनात्मक हथकंडों’ का सहारा ले रहे हैं. इनका असर प्रिंट मीडिया पर भी पड़ा है.
यह बात सही है कि अमेरिकी प्रेस और वहां के पत्रकारों को उनके संविधान से बड़ा कवच प्राप्त है. उसके मुकाबले हमारे यहां संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अलग से प्रावधान नहीं. जो कुछ है, वह संविधान के अनुच्छेद 19-1A के तहत ही है, जो आम नागरिक के व्यक्ति-स्वातंत्र्य का हिस्सा है.
इसके अलावा हमारे यहां मानहानि (डिफेमेशन) का कड़ा कानून है जो अक्सर पत्रकारों को धमकाने-डराने और परेशान करने के काम आता है. लेकिन क्या भारत में इन्हीं वजहों से प्रेस की स्वतंत्रता का दायरा संकरा है या सीमित होता जा रहा है? मुझे लगता है, यह बहुत बड़ा कारण नहीं है.
इसी संरचना, ऐसे ही कानून और प्रावधानों के बीच हमने देखा है कि देश के किसी खास हिस्से, किसी खास कालखंड, किसी खास मीडिया संस्थान या मीडिया मंच से अपेक्षाकृत बेहतर पत्रकारिता की तस्वीर उभरती है और दूसरे कई हिस्सों या संस्थानों से निराशा मिलती है.
हमने यह भी देखा है कि कहीं कोई पत्रकार या संस्थान अपेक्षाकृत वस्तुगत होकर काम करता है और अपने अच्छे काम से लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है, जबकि बड़ा हिस्सा व्यवस्था के साथ चिपका रहता है. उसी की भाषा में बोलता है. भारत में आपातकाल का दौर व्यक्ति-स्वातंत्र्य और प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराती बड़ी चुनौती के रूप में दर्ज है.
हालांकि उस वक्त प्रेस की दयनीय तस्वीर दिखी तो कुछेक साहसिक कदम भी दर्ज हुए. उन दिनों की पत्रकारिता के बारे में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सही कहा था, ‘प्रेस को झुकने को कहा गया तो वह रेंगने लगा था.’ आज के हालात पर अपनी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में वरिष्ठ सदस्य के रूप में शामिल आडवाणी जी कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं. आज तो झुकने को कहे बगैर मीडिया का बड़ा हिस्सा बिछा पड़ा है. वह अवाम और समाज को छोड़कर व्यवस्था और सत्ता-विमर्श का हिस्सा व संवाहक बन गया है.
भारतीय मीडिया के इस परिदृश्य को कैसे समझा जाए! क्या यह माना जाए कि सत्ता-संरचना के साथ मीडिया मालिक या उसके संचालक भी नहीं चाहते, फ्री मीडिया या वास्तविक अर्थों में प्रेस-फ्रीडम? क्या यह सिर्फ जनता या कुछ पढ़े-लिखे उदार नागरिकों का सरोकार है?
हाल के बरसों में प्रेस की स्वतंत्रता और बेहतर मीडिया की कुछ सार्थक कोशिशें शासकीय स्तरों पर भी दिखीं. सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट (मई, 2013) ने पेड न्यूज़ और मीडिया की अंदरूनी संरचनाओं के संदर्भ में एक ब्योरेवार अध्ययन किया और इसके आधार पर अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की.
जाहिर है, इसके पीछे कहीं न कहीं जन-दबाव भी रहा होगा. पहले के मुकाबले आज समाज में मीडिया को लेकर ज्यादा शिद्दत से सवाल उठाए जा रहे हैं. ‘पेड न्यूज’ को लेकर कई राज्यों में मीडिया घरानों की तीखी आलोचना होती रही है.
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए. नियमतः इस पर सरकार को फैसला करना था. पर आज तक संसदीय रिपोर्ट पर सरकारों (यूपीए और एनडीए) की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं हुई. यही नहीं, टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) की 2008, 2011 और 2014 की रपटों पर भी आज तक कोई कदम नहीं उठाया गया.
सन् 2014 कि निर्णायक रपट में ट्राई ने भारतीय मीडिया में पूंजी-निवेश और ‘क्रॉस मीडिया ऑनरशिप’ सहित कई जरूरी और प्रासंगिक सवालों पर गहन अध्ययन के बाद सरकार को अहम सिफारिशें दीं. पर सरकार ने विचार तक नहीं किया. मीडिया-मालिक भी खुश, सरकार भी खुश! दोनों ‘शक्तियों’ का यह ‘याराना’ भी भारतीय मीडिया को शक्तिहीन बना रहा है. मीडिया की आजादी के सिमटते दायरे और बढ़ती चुनौतियों के कई आयामों में यह सबसे अहम है.
(लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा टीवी के साप्ताहिक कार्यक्रम ‘मीडिया मंथन’ के प्रस्तोता हैं)