कविता सिंह: जिन्होंने भारत के कला इतिहास को दर्ज करने का महत्वपूर्ण काम किया

स्मृति शेष: भारतीय कला, संग्रहालयों की मर्मज्ञ इतिहासकार और जेएनयू शिक्षक कविता सिंह रीढ़विहीन होती जा रही भारत की अकादमिक दुनिया में उन बिरले लोगों में से थीं, जिन्होंने अकादमिक स्वायत्तता का पुरज़ोर समर्थन किया. अकादमिक दुर्दशा के हालिया दौर में उनका असमय चले जाना बड़ी क्षति है. 

कविता सिंह. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

स्मृति शेष: भारतीय कला, संग्रहालयों की मर्मज्ञ इतिहासकार और जेएनयू शिक्षक कविता सिंह रीढ़विहीन होती जा रही भारत की अकादमिक दुनिया में उन बिरले लोगों में से थीं, जिन्होंने अकादमिक स्वायत्तता का पुरज़ोर समर्थन किया. अकादमिक दुर्दशा के हालिया दौर में उनका असमय चले जाना बड़ी क्षति है.

कविता सिंह. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

भारतीय कला, लघुचित्रों और संग्रहालयों की मर्मज्ञ इतिहासकार कविता सिंह का महज़ 58 वर्ष की आयु में 30 जुलाई, 2023 को निधन हो गया. वे कुछ वर्षों से कैंसर की बीमारी से जूझ रही थीं. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में विगत दो दशकों से प्राध्यापक रहीं कविता सिंह मुग़ल, राजपूत और दक्कन की चित्रकला की विशेषज्ञ थीं.

आज जब मुग़ल शासकों और उनके समूचे शासनकाल से जुड़े संदर्भों को एनसीईआरटी की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है, तब मुग़ल व राजपूत चित्रकला के परस्पर संबंधों को उद्घाटित करता कविता सिंह का लेखन और अधिक प्रासंगिक हो उठता है.

अकादमिक यात्रा

लेडी श्रीराम कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक की पढ़ाई के बाद कविता सिंह ने बड़ौदा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी से ललित कला में स्नातकोत्तर किया. चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी से उन्होंने वर्ष 1996 में कला इतिहास में पीएचडी की उपाधि हासिल की, जहां उनके शोध-निर्देशक प्रख्यात कला इतिहासकार बीएन गोस्वामी रहे.

इसी दौरान उन्होंने कॉलेज ऑफ आर्ट (दिल्ली ) में अध्यापन किया और शोध संपादक के रूप में वे मार्ग प्रकाशन से भी वे जुड़ी रहीं. वर्ष 2001 में वे जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुईं. जेएनयू के अलावा उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, ओकली सेंटर फॉर द ह्यूमेनिटीज (विलियम्स कॉलेज) में भी अध्यापन किया.

कला इतिहास से रू-ब-रू   

राजनीति, विचारधारा और सौंदर्यशास्त्रीय धारणाओं ने भारत में कला इतिहास संबंधी लेखन को कैसे प्रभावित किया, इसे कविता सिंह ने अपने लेखों, व्याख्यानों और पुस्तकों में बार-बार रेखांकित किया. भारतीय कला के संदर्भ में जिन प्रतिमानों (कैनन) का निर्माण बीसवीं सदी में हुआ, उनमें भारतीय कला के उपनिवेशवादी मूल्यांकन और उसकी प्रतिक्रिया में हुए राष्ट्रवादी लेखन की भूमिका को भी उन्होंने बख़ूबी समझा.

उपनिवेशवादी कला-चिंतन के बरअक्स राष्ट्रवादी इतिहासकारों और कलाविदों ने पश्चिमी कला से भारतीय कला की भिन्नता पर ज़ोर दिया. उल्लेखनीय है कि इस समूची प्रक्रिया में सौंदर्यशास्त्रीय कसौटियों का विस्तार भी निरंतर होता रहा.

इस तरह भारतीय कलाकृतियां कला इतिहासकारों के लिए एक ऐसे टेक्स्ट के रूप में बदल गईं, जिनका पाठ उन्हें देशज ज्ञान परंपरा के संदर्भों को ध्यान में रखते हुए करना था. लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि इन राष्ट्रवादी विद्वानों की प्रविधियां और उनके विश्लेषण के औज़ार पाश्चात्य कलाविदों और उनके सिद्धांतों से ख़ासे प्रभावित थे. कला इतिहास संबंधी इस दृष्टि का प्रसार अकादमिक दायरों में कैसे हुआ, इसे समझने के लिए कविता सिंह ने विश्व-भारती और महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों में हो रहे कला इतिहास संबंधी अनुसंधान और उनकी पाठ्यचर्या को भी गहनता से विवेचित किया.

कलाओं का यह संसार देश और दुनिया भर में हो रहे व्यापक आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों से अछूता नहीं था. ‘आर्ट इन ट्रांसलेशन’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक महत्वपूर्ण लेख में कविता सिंह ने दर्शाया कि भारतीय राज्य द्वारा बनाए गए क़ानून, अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरूप, कला के फैलते हुए बाज़ार, उदारीकरण और वैश्वीकरण की परिघटना ने कैसे कला की दुनिया को गहरे प्रभावित किया. वैश्वीकरण के इस दौर में कला इतिहास की संबद्धता और ‘वैश्विक कला इतिहास’ की धारणा को उन्होंने लगातार रेखांकित किया.

प्रासंगिक है कि वर्ष 2007 में साउथ अफ़्रीकन विजुअल आर्ट्स हिस्टोरियंस के वार्षिक सम्मेलन में दिए अपने विचारोत्तेजक व्याख्यान में कविता सिंह ने लोकतंत्र और कला इतिहास के अंतरसंबंधों की भी विस्तार से चर्चा की थी.

संग्रहालय, राष्ट्र और इतिहास

कविता सिंह ने उस ऐतिहासिक परिघटना को विश्लेषित किया, जिसके अंतर्गत वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के नव-स्वाधीन देशों ने ‘राष्ट्रीय संग्रहालयों’ की संकल्पना को मूर्त रूप दिया.

‘द म्यूज़ियम इज नेशनल’ शीर्षक वाले अपने लेख में उन्होंने लिखा कि इन राष्ट्रों के लिए राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय चिह्न, राष्ट्रीय त्योहार की तरह ही राष्ट्रीय पुस्तकालय, राष्ट्रीय अभिलेखागार और राष्ट्रीय संग्रहालय भी ज़रूरी हो गए. ये वे जगहें थीं, जहां ये नव-स्वाधीन राष्ट्र अपनी संप्रभुता को प्रदर्शित करते थे. भारत में धर्म के राजनीतिकरण और अस्मिता की राजनीति में भी संग्रहालयों की भूमिका को उन्होंने विश्लेषित किया.

भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय का अध्ययन करते हुए कविता सिंह ने दर्शाया कि ये राष्ट्रीय संग्रहालय इस बात को दर्शा रहे थे कि ये नव-स्वाधीन राष्ट्र कम-से-कम आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप में हमेशा से अस्तित्व में थे. भले ही अतीत में राजनीतिक दायरे में वे राष्ट्र का स्वरूप न ले सके हों.

भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय ने इस तरह दो काम किए. पहले तो इसने यह दर्शाया कि भारत शाश्वत है और दूसरे, इसने भारत और भारतीय संस्कृति की महानता को दर्शाने की कोशिश की. इस तरह राष्ट्रीय संग्रहालय एक ऐसे मंच के रूप में तब्दील हो चुका था, जिस पर भारत की सांस्कृतिक यात्रा क्रमिक रूप से प्रस्तुत की जा रही थी. इसके साथ ही कविता सिंह ने भारत में संग्रहालयों के विकास को अंग्रेज़ी राज की ज्ञानोत्पादन की परियोजना से भी जोड़कर देखा.

यूं तो संग्रहालयों को संस्कृतियों के बीच सेतु का निर्माण करने वाली संस्था के रूप में देखा जाता है. मगर वर्ष 2014 में एमस्टर्डम के रेनवार्ट एकेडमी में दिए अपने व्याख्यान में कविता सिंह ने दक्षिण एशिया (विशेष रूप से बांग्लादेश, भारत और अफ़ग़ानिस्तान) के उदाहरणों के ज़रिये यह दर्शाया कि कैसे कई बार संग्रहालय समुदायों, संस्कृतियों और यहां तक कि राष्ट्रों के बीच भी तनाव, संघर्ष, अविश्वास और मनमुटाव का कारण बन जाते हैं.

‘कंचन चित्र रामायण’ और बनारस

इधर कुछ वर्षों से कविता सिंह अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में बनारस के राजा द्वारा तैयार कराई गई रामायण की दुर्लभ सचित्र पांडुलिपि ‘कंचन चित्र रामायण’ पर काम कर रही थीं. बनारस के राजा उदित नारायण सिंह के प्रश्रय में वर्ष 1796 में इस सचित्र पांडुलिपि पर चित्रकारों की एक मंडली ने काम शुरू किया था. अठारह सालों में रामायण की यह पांडुलिपि सात जिल्दों में तैयार हुई. रामायण के प्रत्येक कांड के लिए एक अलग जिल्द इस पांडुलिपि में रखी गई थी. इस पांडुलिपि को तैयार करने वाले चित्रकारों में दिल्ली, अवध, मुर्शिदाबाद, जयपुर के चित्रकार शामिल थे.

रामायण की इस पांडुलिपि में धर्म, अध्यात्म, राजसत्ता, प्राधिकार और वैधता के मुद्दे कैसे गहरे परिलक्षित होते हैं, इसे ही अपनी विवेचना का विषय कविता सिंह ने बनाया था. उम्मीद थी कि वे इस परियोजना को पुस्तक रूप में जल्द ही परिणत करतीं, मगर ऐसा हो न सका.

मुग़ल व राजपूत चित्रकला और कला प्रदर्शनियां   

मुग़ल और राजपूत चित्रकला पर काम करते हुए कविता सिंह ने उनके अंतरसंबंधों और उनकी साम्यता को भी रेखांकित किया और इस संदर्भ में आनंद कुमारस्वामी सरीखे कलाविदों की सीमाओं को भी इंगित किया. मुग़ल दरबार के चित्रों के गहन विश्लेषण के क्रम में कविता सिंह ने दर्शाया कि इन चित्रों में मुग़ल शासकों व अन्य दरबारियों के अंतरसंबंध, दरबार के मूल्य और व्यवहार, दरबार का राजनीतिक दर्शन और आदर्श जैसे विविध आयाम परिलक्षित होते हैं.

मुग़ल चित्रकारों द्वारा बादशाह की विशिष्टता को चिह्नित करने लिए इस्तेमाल की जाने वाली युक्तियों और इन चित्रों में प्रदर्शित दरबारियों के दर्जे और विशेषाधिकारों के अनुरूप उनके चित्रण को भी उन्होंने बारीकी से समझा.

उनके अनुसार, सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में जब अनेक चित्रकार मुग़ल दरबार को छोड़कर राजपूत दरबारों में गए, तो वे अपने साथ मुग़ल चित्रकला शैली, तकनीक, चित्र-कौशल और दृश्य युक्तियां भी ले गए, जिसमें मुग़ल दरबार के उन चित्रकारों को महारत हासिल हो चुकी थी. मुग़ल और राजपूत चित्रकला के इस परस्पर संबंध को विश्लेषित करते हुए उन्होंने उस द्वैध को तोड़ा, जो आनंद कुमारस्वामी सरीखे कलाविदों ने मुग़ल और राजपूत चित्रकला के बीच अपने लेखन में बनाया था.

उल्लेखनीय है कि कविता सिंह ने मुग़लकालीन चित्रकला पर ‘रियल बर्ड इन इमेजिंड गार्डेंस : मुग़ल पेंटिंग्स बिटवीन पर्शिया एंड यूरोप’ जैसी पुस्तक भी लिखी. इसके साथ ही उन्होंने सिख कला और दक्कन की कला के इतिहास पर भी पुस्तकें संपादित कीं. यही नहीं एशिया की समकालीन कला पर भी उन्होंने काम किया.

कलाकृतियों को आम लोगों के बीच ले जाने, उन्हें प्रदर्शित करने में उन्होंने गहरी दिलचस्पी ली. अकारण नहीं कि वे देश-विदेश में आयोजित अनेक कला प्रदर्शनियों की सूत्रधार रहीं. चित्रकला, संग्रहालय और कला इतिहास जैसे विषयों पर अकादमिक लेखन के अलावा उन्होंने ऑनलाइन पोर्टल और अख़बारों में भी लेख लिखकर सार्थक हस्तक्षेप किए.

अकादमिक स्वायत्तता की पुरज़ोर समर्थक

रीढ़विहीन होती जा रही भारत की अकादमिक दुनिया में कविता सिंह उन बिरले अकादमिकों में से थीं, जिन्होंने अकादमिक स्वायत्तता का पुरज़ोर समर्थन किया. उनकी यह प्रतिबद्धता और बेबाक़ आलोचना विश्वविद्यालय प्रशासन की आंखों में किरकिरी की तरह गड़ती रही. अकारण नहीं कि जब वर्ष 2018 में कविता सिंह को मानविकी के लिए इंफ़ोसिस पुरस्कार से सम्मानित किया गया और इस अवसर पर उन्हें बेंगलुरु जाना हुआ तो जेएनयू के कुलपति जगदीश कुमार ने उनका अवकाश ही स्वीकृत नहीं किया.

वर्ष 2017 में वे स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स की डीन नियुक्त हुईं. डीन रहते हुए उन्होंने जेएनयू के कुलपति द्वारा नियमों को ताक पर रखकर की गई शुल्क-वृद्धि का विरोध किया, जिसके चलते कुलपति द्वारा उन्हें डीन के पद से हटा दिया गया.

कुलपति के इस मनमाने आदेश के विरुद्ध उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की, जहां न्यायालय ने जेएनयू प्रशासन को लताड़ लगाते हुए कविता सिंह के पक्ष में निर्णय दिया था.

उन्होंने जेएनयू में मुग़ल कला, राजपूत कला, संग्रहालय, भारतीय कला इतिहास के इतिहासलेखन जैसे विषयों पर कोर्स पढ़ाए. उनकी कक्षाओं में भिन्न संकायों और विषयों के छात्र भी शामिल होते. वे छात्रों के बीच एक ऐसी लोकप्रिय शिक्षक थीं, जिसने आवश्यकता पड़ने पर छात्रों के साथ खड़ा होने में कभी गुरेज़ नहीं किया. अकादमिक दुर्दशा और विश्वविद्यालयों के पतन के हालिया दौर में उनका यूं असमय चले जाना एक बड़ी क्षति है. उन्हें नमन!

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)

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