सर्व सेवा संघ पर ‘कब्ज़े’ की कहानी बस उतनी नहीं है, जितनी दिखाई जा रही है

बीते जुलाई महीने में महात्मा गांधी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए बने सर्व सेवा संघ के वाराणसी परिसर को उत्तर रेलवे द्वारा उसकी ज़मीन पर 'अतिक्रमण' बताकर भारी पुलिस बल की मौजूदगी में जबरन ख़ाली करवाया गया है. गांधीवादियों का कहना है कि इसके विरोध में उनकी लड़ाई जारी रहेगी.

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सर्व सेवा संघ परिसर में बनी लाइब्रेरी से बाहर किए गए सामान को परिसर में स्थित गांधी प्रतिमा के सामने फेंक दिया गया. (फोटो साभार: फेसबुक)

बीते जुलाई महीने में महात्मा गांधी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए बने सर्व सेवा संघ के वाराणसी परिसर को उत्तर रेलवे द्वारा उसकी ज़मीन पर ‘अतिक्रमण’ बताकर भारी पुलिस बल की मौजूदगी में जबरन ख़ाली करवाया गया है. गांधीवादियों का कहना है कि इसके विरोध में उनकी लड़ाई जारी रहेगी.

22 जुलाई को बेदखली की कार्रवाई के ठीक एक हफ्ते बाद 29 जुलाई को जब एक बार फिर उस तरफ जाना हुआ तो देखा कि सर्व सेवा संघ का परिसर उजाड़ हुआ पड़ा है. हज़ारों पेड़ उदास खड़े हैं, दीवारें पथराई हुई हैं, बापू और उनके तीनों बंदर मौन खड़े उन भवनों को निर्निमेष देखे जाते हैं, जिन भवनों में सर्व सेवा संघ का इतिहास, 63 सालों की विरासत और विनोबा से लेकर जेपी तक, दादा धर्माधिकारी से लेकर नारायण भाई देसाई तक, धीरेंद्र मजूमदार से लेकर आचार्य राममूर्ति तक, बिमला ठकार से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र तक और राममनोहर लोहिया से लेकर सिद्धराज ढड्ढा तथा ठाकुरदास बंग तक की कहानियां और परंपराएं जिंदा ही दफन कर दी गई हैं. विनोबा की कुटी और जेपी की प्रतिमा अपने वर्तमान को घटित होते मौनमूक महसूस कर रहे हों जैसे.

इस परिसर में पुलिस का 24 घंटे पहरा है. पूरे परिसर में फटी हुई किताबों के पन्ने, आनन-फानन में भगाए गए परिवारों के घरों के सामने पड़े कूड़े के ढेर, जगह-जगह बैठे पुलिसियों की टोलियां, दरवाजों में पड़े ताले, परिसर की दीवारों पर लिखी कालजयी काव्य पंक्तियों और महापुरुषों की तस्वीरों के ऊपर पोता हुआ पेंट; अब इस परिसर की यही पहचान है और तमामतर दूसरी आशंकाओं से भरे आने वाले कल की विरासत भी अब शायद यही है.

एक प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर कहूं तो 22 जुलाई को जो कुछ हुआ, वह यह कि सर्व सेवा संघ की इस जमीन पर मालकियत का मामला अनेक स्तरों पर, देश की विभिन्न अदालतों में आज भी लंबित है. सिविल जज (सीनियर डिवीजन) वाराणसी की अदालत में तो सिविल सूट का वाद दाखिल है. सभी पक्षों को अदालत की नोटिस भी सर्व हो चुकी है. 28 जुलाई को उसकी तारीख भी थी.

इस बीच हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वाराणसी की अदालत में दायर मुकदमे में इन्जंक्शन एप्लीकेशन भी दाखिल किया जा चुका था, जिस पर 21 जुलाई को सुनवाई थी लेकिन अदालत से संबंधित किसी स्टाफ की आकस्मिक मृत्यु के कारण वह सुनवाई टल गई और अगली तारीख 24 जुलाई को पड़ी थी. इसी बीच 22 जुलाई की अलस्सुबह 6 बजते-बजते जिला प्रशासन के अधिकारियों के संरक्षण में उत्तर रेलवे के अधिकारियों का दल यूपी पुलिस, पीएसी, आरपीएफ, सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फोर्स के लगभग डेढ़ हजार जवानों के साथ परिसर में इस तरह दाखिल हुए, जैसे दुश्मन देश के साथ लगी किसी खतरनाक सीमा पर मोर्चा लगाने के लिए सेना लामबंद हो रही हो.

फायर ब्रिगेड की गाड़ियों, एम्बुलेंस वाहनों और विशालकाय पोकलैंड मशीनों के साथ हजारों सिर, हजारों हेलमेट, हजारों सेफगार्ड, हज़ारों लाठियों और सैकड़ों अत्याधुनिक हथियारों से लैस ये स्त्री पुरुष वर्दीधारी जवान लगभग 13 एकड़ के परिसर के हर कोने में फैल गए.

अचकचाए हुए परिसरवासियों में से अनेक तो अभी सोकर उठे भी नहीं थे. बात जब समझ में आने लगी तो प्रतिरोध शुरू हुआ. गांधीजन वहीं मुख्य गेट के अंदर धरने पर बैठ गए. परिवारों ने अफसरों से मोहलत मांगी, वो नहीं मिली. उनका कहना था कि आप लोग बाहर आ जाइए, हम लोग सब कर लेंगे. अरे, बिजली का मिस्त्री बुलाना होगा! बोले, हम लेकर आए हैं. सामान ले जाने के लिए गाड़ी बुलानी होगी! बोले, हम लेकर आए हैं. और हुआ वही कि दो तीन घंटों में परिसर के सभी परिवारों के सामान निकालकर घरों के बाहर लगभग फेंक दिए गए.

सर्व सेवा संघ परिसर में घरों से निकला सामान, रहवासी और कचरे की गाड़ी में ले जाई गई किताबें. (फोटो: सोशल मीडिया/स्पेशल अरेंजमेंट)

रेलवे अधिकारी आकाशदीप सिंह ने कहा कि अब आपलोग जल्दी से परिसर छोड़ दीजिए, वरना हमने पोकलैंड मशीनें मंगवा रखी हैं. अभी इसी वक्त ध्वस्तीकरण होगा, आपके सामान नुकसान होंगे. बदहवास परिसरवासी जब तक परिसर छोड़ते, तब तक आठ आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिए गए और देखते-देखते परिसर, परिसरवासियों से खाली हो गया.

अब बची सबसे बड़ी चिंता; सर्व सेवा संघ प्रकाशन की पिछले 63 सालों में प्रकाशित लगभग ढाई करोड़ की संख्या में रखी हुई किताबों का जखीरा, लाइब्रेरी में रखी लाखों बहुमूल्य पुस्तकें, ऑफिस के दर्जनों कंम्प्यूटर, सर्वोदय जगत, भूदान यज्ञ आदि पुरानी पत्रिकाओं की सैकड़ों फाइलें, संगठन के दस्तावेज और जरूरी ऑफिशियल रिकॉर्ड. सरकारी अमला बिल्कुल भी समय नहीं देना चाहता था. उनके साथ आए लोगों ने यह सब कुछ निकालकर बाहर खड़ी बापू की प्रतिमा के पांवों में रखना शुरू कर दिया. अधिकारी गांधी, विनोबा, जेपी आदि महापुरुषों के चित्रों और किताबों पर पांव रखकर चलने लगे.

जब किताबों का सवाल आया तो प्रशासन ने कूड़ा ढोने वाले ट्रक उपलब्ध कराए और उन्हीं ट्रकों में किताबें भर भरकर सड़क पर खड़े किए जाने लगे. नागेपुर गांव और सारनाथ में अलग-अलग की गई व्यवस्थाओं के मुताबिक ये किताबें ले जाकर डंप कर दी गईं, जिन्हें हफ्ते भर बाद प्रकाशन के कार्यकर्ताओं के हाथों अब फिर से संवारा, सहेजा जा रहा है.

इस पूरी प्रक्रिया में एक अनुमान के मुताबिक़ लगभग 25 प्रतिशत बहुमूल्य और अब अनुपलब्ध गांधी साहित्य नष्ट हो गया. सारे परिवार, सारे कार्यकर्ता और सारे पदाधिकारी, आंदोलनकारी शहर में जैसे-तैसे बिखर गए और बेतहाशा खर्चों में पड़ गए. यह अजाब गुजर जाने के बाद आज की स्थिति यह है कि आंदोलन की फ्रीक्वेंसी जरूर थोड़ी कम हुई है, लेकिन तीव्रता में कोई कमी नहीं आई है.  क़ानून और आंदोलन; इन दोनों मोर्चों पर सरकार और सिस्टम के खिलाफ यह लड़ाई अभी भी जारी है.

सर्व सेवा संघ परिसर में बनी लाइब्रेरी से बाहर किए गए सामान को परिसर में स्थित गांधी प्रतिमा के सामने फेंक दिया गया. (फोटो साभार: फेसबुक)

परिसर के निर्माण का इतिहास

राजघाट, वाराणसी स्थित सर्व सेवा संघ का यह परिसर पुराने जीटी रोड और वरुणा नदी के बीच स्थित है. सर्व सेवा संघ का मुख्यालय सेवाग्राम, वर्धा में है. महात्मा गांधी की हत्या के बाद मार्च 1948 में विनोबा के नेतृत्व में सेवाग्राम में हुए एक सम्मेलन में सर्व सेवा संघ की स्थापना की गई थी.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी उस सम्मेलन में शामिल थे. इसके दो तीन साल बाद यह चर्चा चली कि संघ का अपना प्रकाशन होना चाहिए. सुप्रसिद्ध जमनालाल बजाज परिवार के सदस्य और अनन्य गोप्रेमी राधाकृष्ण बजाज की बेटी नंदिनी मेहता लिखती हैं कि तब धीरेंद्र मजूमदार सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष और अन्ना साहब सहस्रबुद्धे मंत्री थे. धीरेंद्र मजूमदार के आग्रह पर प्रकाशन विभाग का काम सर्वसहमति से राधाकृष्ण बजाज को सौंपा गया. उस समय बनारस में एक प्रकाशन चलता था. उसके मालिक रामकृष्ण जी उसे बेचना चाहते थे. राधाकृष्ण बजाज ने उसे 5 हजार में खरीद लिया. इसका दफ्तर वाराणसी के गोलघर क्षेत्र में था.

भूदान आंदोलन के विकास के साथ साथ आंदोलन का कम ठीक से चलाने के लिए एक व्यवस्थित कार्यालय की ज़रूरत महसूस हो रही थी. ज़मीन के लिए काशी नरेश से भी संपर्क किया गया लेकिन बात नही बनी. राजघाट से आते जाते राधाकृष्ण बजाज के ध्यान में आया कि गंगा पुल के इस पार कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के पास काशी रेलवे स्टेशन के पीछे कुछ खाली ज़मीन पड़ी है. ज़मीन क्या थी- 50-50 फीट के गहरे गड्ढों से पटा हुआ एक विस्तार था. इन गड्ढों में वरुणा का पानी भर जाता था. कुछ ऊंचाई वाली जगहों पर पहलवानों के अखाड़े थे. बाकी बची जगह का उपयोग सार्वजनिक शौचालय की तरह किया जाता था.

राधाकृष्ण बजाज के साथी थे सदाशिव राव गोडसे. उन्होंने राधाकृष्ण बजाज की सहमति लेकर उस जमीन के लिए कोशिश शुरू कर दी. पहले तो यही पता करना टेढ़ी खीर साबित हुआ कि यह जमीन है किसकी. सरकारी रिकॉर्ड्स में बहुत सिर खपाने के बाद ज़मीन रेलवे की ठहराई गई, लेकिन रेलवे ने कहा कि यह ज़मीन हमारे रिकॉर्ड में है ही नहीं तो आपको कैसे दें.

रेलवे बोर्ड को नक्शा दिखाया गया और बार-बार समझाया गया कि आप ही उस ज़मीन के मालिक हैं, लेकिन गाड़ी नीचे तक खिसकती ही नही थी. उनके लिए रिश्वत का यह अच्छा मौका था और इधर इन लोगों को रिश्वत देनी नहीं थी, उसके बाद रेल मंत्रालय से लेकर रेलवे बोर्ड तक का इतना चक्कर चला कि कोई गिनती नहीं. उस ज़मीन को प्राप्त करने में गोडसे जी ने अद्भुत पराक्रम दिखाया. बरसों की सतत भागदौड़ के बाद गड्ढों और गंदगी से भरा हुआ ज़मीन का यह टुकड़ा मिला. वहां गुंडों के अड्डे भी थे. उन सबको हटाने में तरह तरह की धमकियों, बद्तमीज़ियों और जोखिम का सामना करना पड़ा.

ज़मीन मिली तो नई बाधाएं शुरू हुईं. उन विशाल गड्ढों को पाटना बहुत बड़ा काम था और पैसे कम से कम खर्च करने थे. इसके लिए एक तरकीब निकली गई. वाराणसी शहर के कूड़े-कचरे के ट्रक वहां लाकर गड्ढे पाटे जाने लगे. इसके बाद पुरातत्व विभाग ने ज़ोरदार आपत्ति जताई. यहां लाल खां का रौजा है, जो पुरातत्व विभाग के अधीन है. उनकी आपत्ति थी कि यहां पक्के मकान न बनाए जाएं. बड़े प्रयासों और कई दौर की बातचीत के बाद पुरातत्व विभाग ने एक एकड़ जमीन पर मकान बनाने की इजाज़त दी.

इसके बाद नगर परिषद के टाउन प्लानिंग विभाग ने आपत्ति उठाई कि यह जमीन पोली है. किसी तरह एक मंजिल मकान बनाने की इजाजत मिली. जब मकान बन गया तब सबसे पहले यहां सर्व सेवा संघ का दफ्तर लाया गया. उस जमाने में यही परिसर सर्व सेवा संघ का मुख्य केंद्र था. प्रकाशन विभाग यहां बाद में आया. इस परिसर को साधना केंद्र नाम दिया गया.

शंकरराव देव, नारायण देसाई, कृष्णराज मेहता, सिद्धराज ढड्ढा, दादा धर्माधिकारी, बिमला ठकार आदि इस केंद्र के प्रथम रहवासी थे. जेपी जब भी बनारस आते तो यहीं रुकते. लेखक जैनेन्द्र कुमार और अच्युत पटवर्धन भी यहीं रुकते थे.

(12.9 एकड़ के हरे-भरे परिसर में बसे सर्व सेवा संघ के निर्माण की यह कहानी राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की जीवनी ‘जाको राखे गोमैया’ से उद्धृत है. जीवनी की लेखक नंदिनी मेहता, राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की पुत्री हैं. जीवनी में उन्होंने राधाकृष्ण बजाज के लिए पिताजी शब्द का प्रयोग किया है. इस रिपोर्ट में पिताजी की जगह राधाकृष्ण बजाज लिखा गया है.)

नारायण भाई देसाई के सुपुत्र और वाराणसी निवासी समाजवादी जन परिषद के नेता अफलातून देसाई बताते हैं, ‘1960 से 1970 के बीच किसी वर्ष में वक्फ बोर्ड ने इस जमीन पर पहला मुकदमा किया और अपना हक जताया. उस मामले में इलाहबाद हाईकोर्ट में रेलवे ने बाहलफ सर्व सेवा संघ के पक्ष में अपना बयान दिया और कोर्ट से सर्व सेवा संघ के पक्ष में फैसला आया. उस समय का नक्शा और नक़्शे में दर्ज सर्व सेवा संघ के नाम जमीन का पूरा ब्योरा वाराणसी की अदालत में जमा करवाया गया है.’

उन्होंने यह भी बताया कि इसी परिसर के एक हिस्से में सर्व सेवा संघ की जमीन पर ही जेपी ने गांधी विद्या संस्थान की स्थापना की थी, जो 1998 में शुरू हुए विवाद की वजह से बंद चल रहा है.  सर्व सेवा संघ की जमीन का मौजूदा मामला तब गरम हुआ, जब 15 मई 2023 को अचानक पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने यहां आकर गांधी विद्या संस्थान के कमरों के ताले तुड़वा दिए और उसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के मुखिया हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं.

सर्व सेवा संघ परिसर में स्थित प्रकाशन भवन में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री (बाएं) और विनोबा भावे (दाएं) (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

रेलवे ने रजिस्ट्री की थी यह जमीन

लोकतंत्र सेनानी और उत्तर प्रदेश सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष रामधीरज कहते हैं, ‘साक्ष्य के तौर पर हमारे पास इस जमीन की रजिस्ट्री के तीनों दस्तावेज मौजूद हैं. विनोबा भावे और जेपी की पहल पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की संस्तुति के बाद रेलवे ने पूरी कीमत लेकर 12.898 एकड़ जमीन सर्व सेवा संघ को बेची थी. सर्व सेवा संघ के नाम रजिस्ट्री बाद में हुई, जमीनों की कीमत पहले चुकाई गई थी.’

उन्होंने बताया, ‘सबसे पहले 5 मई 1960 को चालान संख्या 171 के जरिये भारतीय स्टेट बैंक में 27 हजार 730 रुपये जमा किए गए थे. इसके अलावा 750 रुपये का स्टांप शुल्क भी अदा किया गया था. इसके बाद 27 अप्रैल 1961 को 3,240 रुपये और 18 जनवरी 1968 को 4,485 रुपये चालान संख्या क्रमशः 03 और 31 के जरिये स्टेट बैंक में जमा किया गया. उस समय यह रकम बहुत बड़ी थी. राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की संस्तुति के बाद तत्कालीन रेल मंत्री जगजीवन राम ने जनहित के आधार पर रेलवे की जमीन सर्व सेवा संघ को बेचने की संस्तुति दी थी.’

जमीन पर कब्जे की योजना

सर्व सेवा संघ परिसर पर कब्जा करने का ताना-बाना कई सालों से बुना जा रहा था, लेकिन इसकी शुरुआत हुई 16 जनवरी 2023 को. परिसर और प्रकाशन का काम देखने वाले अरविंद अंजुम के मुताबिक, एक छद्म नाम मोइनुद्दीन की ओर से बनारस सदर के उप जिलाधिकारी की कोर्ट में एक अर्जी डाली गई, जिसमें दावा किया गया कि सर्व सेवा संघ की संपूर्ण संपत्ति उत्तर रेलवे की है.

शिकायतकर्ता मोइनुद्दीन की इस अर्जी पर न कोई पता दर्ज है, न ही कोई फोन नंबर है, न ही कोई आधार कार्ड है. इस फर्जी शिकायत को तहसील प्रशासन ने इतनी गंभीरता से लिया कि तहसीलदार, एसडीएम से लेकर डीएम तक जांच करने दौड़ने लगे. रेलवे ने दावा किया कि जिस जमीन पर सर्व सेवा संघ खड़ा है, वह बेशकीमती संपत्ति उनकी है और 63 बरस पहले कूटरचित दस्तावेजों के जरिये हड़पी गई है.

इस सनसनीखेज आरोप के छींटे सिर्फ विनोबा पर ही नहीं, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री लाल बहादुर शास्त्री, रेल मंत्री जगजीवन राम और सर्व सेवा संघ के ट्रस्टी राधाकृष्ण बजाज पर भी पड़ते हैं. गांधीवादी विचारों को दुनिया भर में प्रचारित करने के लिए स्थापित सर्व सेवा संघ महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, जेसी कुमारप्पा, दादा धर्माधिकारी, धीरेंद्र मजूमदार, आचार्य राममूर्ति सरीखे मनीषियों सहित वर्तमान आंदोलनों और सामाजिक प्रवृत्तियों, प्राकृतिक चिकित्सा आदि विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित करता रहा है.

अरविंद अंजुम बताते हैं कि 15 मई 2023 को प्रशासन द्वारा गांधी विद्या संस्थान के भवनों के ताले जब तोड़े गए, उस समय तक गांधी विद्या संस्थान का मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित था. इस तरह यह अदालत की अवमानना का स्पष्ट मामला है. जब प्रशासन के इस कृत्य पर इलाहबाद हाईकोर्ट में रीजॉइंडर दाखिल किया गया तो 16 मई के अपने आदेश में हाईकोर्ट ने डीएम वाराणसी को निर्देशित किया कि इस आदेश की तिथि से दो महीने के अंदर वे गांधी विद्या संस्थान की ज़मीन के कागजात चेक कर लें और यदि वे सही हों तो जमीन याचिकाकर्ता को सौंप दी जाए.

इस आदेश के बाद डीएम वाराणसी ने सर्व सेवा संघ की पूरी ज़मीन की पैमाइश और कागजात की तथाकथित जांच करवा डाली और 26 जून के अपने फैसले में इस पूरी ज़मीन का मालिक उत्तर रेलवे को घोषित कर दिया. इसके अगले ही दिन 27 जून को रेलवे ने परिसर के सभी भवनों पर ध्वस्तीकरण का नोटिस चिपका दिया, जिस पर 30 जून तक परिसर को खाली करने का निर्देश था. इसके तुरंत बाद एसडीएम सदर ने रेलवे की याचिका पर खतौनी के रिकॉर्ड से सर्व सेवा संघ का नाम हटाकर उत्तर रेलवे का नाम दर्ज करने का आदेश दिया.

सर्व सेवा संघ के चंदन पाल ने बताया कि रेलवे की नोटिस के तुरंत बाद उसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. अदालत का आदेश 3 जुलाई को आया कि याचिकाकर्ता, सिविल जज (सीनियर डिविजन) वाराणसी की अदालत में पहले से ही दायर सिविल सूट के मुक़दमे में इंजंक्शन एप्लीकेशन दाखिल करे और रेलवे की नोटिस पर स्टे देने से इनकार कर दिया. अब रेलवे की नोटिस पर स्टे के लिए 7 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटीशन दाखिल की गई.

17 जुलाई के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामले को सिविल सूट में ही तय होने दें और इंजंक्शन एप्लीकेशन भी वहीं दें. हम डीएम के आदेश के खिलाफ कुछ नहीं करने जा रहे, क्योंकि उन्हें हाईकोर्ट ने अधिकृत किया था. आपकी याचिका हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ होती तो हम उसे सुनते. सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत आदेश 21 जुलाई को अपलोड हुआ. सुप्रीम कोर्ट से लौटकर वाराणसी की उक्त अदालत में इंजंक्शन एप्लीकेशन दाखिल किया गया. उसकी पहली सुनवाई 20 जुलाई को और दूसरी सुनवाई 21 जुलाई को थी, लेकिन दोनों ही तारीखों पर अदालत नहीं बैठी और 22 जुलाई को सदल बल पजेशन ले लिया गया.

रेलवे ने सर्वोच्च अदालत में यह आरोप लगाया कि सर्व सेवा संघ की तरफ से जिन लोगों ने यह याचिका डाली है, वे सर्व सेवा संघ के अधिकृत लोग नहीं हैं. सर्व सेवा संघ में फिलहाल दो गुट बन गए हैं और दोनों गुटों की वैधानिकता का मामला असिस्टेंट चैरिटी कमिश्नर वर्धा की अदालत में विचाराधीन है. असिस्टेंट चैरिटी कमिश्नर वर्धा के रिकॉर्ड में खुद का नाम आज भी मैनेजिंग ट्रस्टी के रूप में दर्ज होने का दावा करते हुए सर्व सेवा संघ के पूर्व अध्यक्ष महादेव विद्रोही बेदखली की इस कार्यवाही को गैरकानूनी मानते हैं. उनका कहना है कि विभिन्न अदालतों में अनेक चरणों में लड़े जा रहे मुकदमों को जानबूझकर कमजोर किया गया है. अदालतों में सही ढंग से सही मांग की जाएगी तो फैसले हमारे पक्ष में आएंगे, क्योंकि हमारे कागजात वैध हैं.

वाराणसी में सर्व सेवा संघ का परिसर. (फोटो साभार: फेसबुक/@प्रियंका गांधी वाड्रा)

पटना हाईकोर्ट में अधिवक्ता निकेश सिन्हा कहते हैं कि किसी रेवेन्यू कोर्ट को कोई रजिस्ट्री खारिज करने का अधिकार नहीं है. अगर किसी को कोई बैनामा अवैध तरीके से किया गया है तो उसे सिर्फ तीन साल के अंदर सिविल कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, 63 बरस बाद नहीं. अगर विनोबा भावे और जेपी के समय सर्व सेवा संघ के पदाधिकारियों ने कूटरचित दस्तावेजों के जरिये रेलवे की संपत्ति हड़पी है तो सबूतों की रोशनी में सिविल कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकती है. रेल अफसरों का दावा यदि सही है तो सबसे पहले उन्हें थाने को सूचना देनी चाहिए थी और आरोपितों के खिलाफ जालसाजी का मामला दर्ज कराना चाहिए था.

उनके अनुसार, रेवेन्यू कोर्ट प्रशासनिक होती है, जो कलेक्टर के अधीन काम करती है. सुनियोजित तरीके से जानबूझकर इस मामले को पेचीदा बनाया जा रहा है और नौकरशाही अपने अधिकारों की हद पार कर रही है. कोई प्रशासनिक अफसर कानून के खिलाफ कोई निर्णय लेता है तो देर-सबेर उसके खिलाफ सख्त एक्शन जरूर होगा. प्रिंसिपल ऑफ एडवर्स पजेशन के मुताबिक यदि किसी की निजी जमीन पर 12 साल और सरकारी जमीन पर 30 साल तक किसी का पजेशन बना रहा और कोई आपत्ति दाखिल नहीं की गई, तो उसे इस तरह क़ानून हाथ में लेकर बेदखल नहीं किया जा सकता.

इंटरमॉडल स्टेशन और उसका डीपीआर

सरकार और जिला प्रशासन की तरफ से यह सारा कुछ इस उद्देश्य से किया गया कि इस परिसर के बगल में ही कुछ दूरी पर स्थित काशी रेलवे स्टेशन का विस्तार किया जाना है. यहां इंटर मॉडल स्टेशन का प्रस्ताव है.

कमिश्नर वाराणसी का कहना था कि सर्व सेवा संघ की यह जमीन तो रेलवे के प्रोजेक्ट में आती ही नहीं, फिर न जाने रेलवे यहां क्या करने वाला है. इस प्रोजेक्ट का डीपीआर देखने से पता चलता है कि इंटर मॉडल स्टेशन के नजदीक स्थित इस जमीन पर पंचसितारा होटल और अर्बन हाट बनाए जाएंगे. यद्यपि कुल लगभग 40 एकड़ क्षेत्र में प्रस्तावित यह इंटर मॉडल स्टेशन एक साथ पर्यावरण और मनुष्यता विरोधी भी है.

सर्व सेवा संघ परिसर से लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर गंगा बहती है. नदियों के उच्चतम बाढ़ बिंदु से दोनों तरफ 500 मीटर के दायरे में निर्माण कानूनन प्रतिबंधित हैं. लाल खां का रौज़ा तो और भी करीब है. पुरातात्विक महत्व के स्थानों के आसपास भी निर्माण कानूनन वर्जित होते हैं. यहीं पर गंगा नदी का एक खास क्षेत्र कछुआ सेंचुरी घोषित है. फिर गंगा किनारे का यह नगर क्षेत्र धरोहर के तौर पर संरक्षित भी है.

उल्लेखनीय है कि पूरे वाराणसी में केवल तीन स्थान ऐसे हैं, जहां पेड़ दिखते हैं. बीएचयू और डीएलडब्ल्यू के अतिरिक्त राजघाट स्थित यह परिसर अपनी वृक्ष संपदा के चलते शहर को ऑक्सीजन सप्लाई करने वाला हब भी है. अब यह तीन मंजिला इंटर मॉडल स्टेशन का प्रोजेक्ट यदि बनता है तो इन तमाम कानूनों का उल्लंघन तो होगा ही, पर्यावरण का विनाश भी करेगा.

वाराणसी स्थित संकट मोचन मंदिर के महंथ और आईटी बीएचयू के प्रोफेसर, प्रख्यात पर्यावरण विज्ञानी पंडित विश्वम्भर नाथ मिश्र कहते हैं कि आधुनिक विकास की नजर में पर्यावरण की सुरक्षा कोई विषय है ही नहीं. इसी स्थान पर, जहां इंटरमॉडल स्टेशन प्रस्तावित है, गंगा किनारे स्थित खिड़किया घाट पर आधुनिक निर्माण करके उसे नमो घाट के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. अफसोसनाक है कि घाट का यह पक्का निर्माण गंगा के पेट में अंदर तक घुसकर किया गया है और इसका विकास मात्र एक घाट के तौर पर नहीं, एक बाज़ार का तौर पर किया गया है.

उनका यह भी कहना है कि घाट पर ही सीएनजी स्टेशन बनाया गया है. यहां से लेकर आदिकेशव मंदिर तक पूरा ऐतिहासिक महत्व का क्षेत्र है. यह संपूर्ण प्राचीनता संरक्षित करने की जगह, उसे विकास के पत्थरों के नीचे दबाया जा रहा है. नदी में निर्माण अवैध है. उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में नदी को जिंदा मनुष्य मानने की बात कही थी. नदी के भीतर तक हुए इन निर्माणों और किनारे पर प्रस्तावित इंटर मॉडल स्टेशन के निर्माण से नीडी का स्वाभाविक प्रवाह और उसकी श्वसन प्रक्रिया बाधित होगी. प्रकृति जब विद्रोह करेगी, तो मनुष्यता के भयावह नुकसान का खतरा सामने है.

बेदखली की वैचारिक पृष्ठभूमि

स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘बनारस में महात्मा गांधी बहुत से लोगों की गले की हड्डी रहे हैं. अब उनके नाम, विरासत और विचारों की हत्या का सुनियोजित प्रयास चल रहा है. वह जीवित थे तब भी और मरने के बाद तो और भी ज़्यादा हैं. वो अपने देश में गांधीजी का विरोध और गोडसे का गुणगान करते हैं और विदेश जाकर बोलते हैं कि मैं गांधी के देश से आया हूं.’

सर्व सेवा संघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की परस्पर विरोधी वैचारिकी कोई छुपी हुई बात नहीं है. जैसे पहले साबरमती आश्रम के पुनरुद्धार के नाम पर उस आश्रम को पर्यटन स्थल बना दिया गया, वैसे ही वाराणसी परिसर को कब्जे में लेकर वहां भी अनियंत्रित निर्माण की योजना है. ऐसा माना जा रहा कि वैचारिक विरोध के चलते ही आरएसएस की विचारधारा के लोग गांधी संस्थानों को नष्ट करने और उनकी जमीनों पर कब्जे करने के अभियान में लगे हुए हैं.

सर्व सेवा संघ के लोग इसे आरएसएस द्वारा गांधी संस्थाओं की जमीनों पर कब्जे की साजिश ही मानते हैं. जैसे छोटी बड़ी सभी नदियां अंत में जाकर समंदर में ही मिलती हैं, उसी तरह कब्जा चाहे आरएसएस करे या सरकार करे, अंत में ये जमीनें ‘मित्र पूंजीपतियों’ के पास ही जाएंगी. हरिशंकर परसाई ने आरएसएस के बारे में लिखा है कि ‘संघ पूंजीपतियों की पैदल सेना है.’

इस कथन को हजारों करोड़ रुपये की इस जमीन पर कब्जे की नजर से समझने की कोशिश करें, तो अगला वाक्य कुछ इस तरह का बनेगा कि संपत्तियों पर कब्जे की सूचना सेनाएं अपने राजाओं को ही देती हैं.

(लेखक सर्व सेवा संघ की पत्रिका सर्वोदय जगत के सह संपादक हैं.)

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