विशेषज्ञों का मानना है कि फरक्का बैराज परियोजना से जितना फायदा हुआ उससे कई गुना ज़्यादा नुकसान हो चुका है. इसका कोई समाधान न निकाला गया तो व्यापक तबाही के लिए तैयार रहना होगा.
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केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से पश्चिम बंगाल के हल्दिया तक गंगा में 16 जलाशय परियोजनाओं पर विचार कर रही है. ऐसे में फरक्का बैराज के निर्माण में दिखाई गई अदूरदर्शिता को एक सीख की तरह देखा जाना चाहिए.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कोलकाता बंदरगाह की गहराई बनाए रखने के मूल उद्देश्य से बनाए गए फरक्का बैराज को हटाने की मांग कर रहे हैं. इसके कारण यह बैराज इन दिनों फिर चर्चा में है. वैसे अपने निर्माण के समय से ही यह विवादों में रहा है.
लाभ-हानि का ठोस अध्ययन जरूरी
फरक्का बैराज से अब तक हुए लाभ-हानि का कोई आधिकारिक तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया जा सका है. हालांकि, ऐसे किसी ठोस अध्ययन की अब सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. विभिन्न संस्थानों द्वारा किए गए अलग-अलग अध्ययनों से हम सिर्फ इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं.
बिहार में नदी घाटी परियोजनाओं के दुष्परिणाम पर शोध करने वाले रणजीव कहते हैं, ‘फरक्का पर कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को समग्र व ठोस अध्ययन करना चाहिए.’
आज़ादी के बाद बनाई गई देश की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक फरक्का बैराज भी है. इसका निर्माण 1962-70 के बीच 20.8 करोड़ डॉलर की लागत से किया गया था. बाद के चार सालों में भगीरथ-हुगली में 26.5 मील लंबा फीडर कनाल बनाया गया.
बांग्लादेश की सीमा से करीब 16 किमी पहले गंगा नदी पर बनाया गया यह बैराज 21 अप्रैल 1975 को चालू किया गया. तब से अब तक इसने दोनों देशों में व्यापक तबाही मचाई है.
क्या इसके घोषित उद्देश्य पूरे हुए?
फरक्का बैराज के निर्माण की ज़रूरत उस समय महसूस की गई जब हुगली नदी में बढ़ते गाद (सिल्ट) के कारण कोलकाता बंदरगाह को अपने जहाजों के परिवहन में परेशानी होने लगी. यह परेशानी दामोदर घाटी परियोजना (डीवीसी) के चालू होने के बाद और ज़्यादा बढ़ गई. क्योंकि मैथेन व पंचेत बांधों के कारण गंगा पर असर पड़ा.
तब विशेषज्ञों की राय से तय किया गया कि बैराज बनाकर 40 हजार क्यूसेक पानी का बहाव हुगली में करने से वह कोलकाता बंदरगाह पर जमा होने वाले गाद को बहाकर ले जाएगा. मूलरूप से यह विचार एक अंग्रेज़ इंजीनियर सर आर्थर कॉटन का था.
डीआरपी (डैम रिवर पीपुल) जर्नल (नवंबर 2014) में प्रकाशित शोध से पता चलता है कि फरक्का बैराज अपने इस घोषित उद्देश्य में आंशिक रूप से ही सफल हो पाया. बैराज बनने के बाद भी कोलकाता बंदरगाह की स्थिति खराब होती गई है.
फरक्का बैराज प्रोजेक्ट में महाप्रबंधक के पद से रिटायर डॉ. पीके परुआ का बाद में यह बयान प्रकाशित हुआ, ‘बैराज बनाने वाले इंजीनियरों को इस बात का कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि नदी में कितना गाद जमा होगा.’
दरअसल, हिमालय जैसे जागृत पहाड़ से निकलने के कारण गंगा और इसकी सहायक नदियों में जितने बड़े पैमाने पर गाद गिरता है वह दुनिया में सबसे ज़्यादा है. नदी विशेषज्ञ प्रो. कल्याण रुद्र के अनुसार, बैराज बनने के बाद जिस पैमाने पर गाद जमा होने लगा, वह ‘दिमाग खराब’ करने वाला था.
कोलकाता पोर्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार 1999 से 2003 के बीच गाद निकालने की मात्रा प्रति वर्ष 21.88 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) रहा, जबकि बैराज बनने से पहले 6.4 एमसीएम प्रतिवर्ष था.
वर्तमान में हुगली और हल्दिया बंदरगाह अपनी गहराई बरकरार रखने के लिए ड्रेजिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (डीसीआई) द्वारा की जाने वाली ड्रेजिंग पर निर्भर हैं. इस काम के लिए सालाना बजट 300-350 करोड़ रुपये का है. भारत सरकार ने 2009 में इस खर्च को एक ‘बोझ’ मानते हुए नोटिस जारी किया था.
जान बूझकर की गई तथ्यों की अनदेखी?
फरक्का बैराज से महज 40 हजार क्यूसेक पानी लाकर कोलकाता बंदरगाह से गाद हटाने का अनुमान ही गलत था. पर ऐसा लगता है कि यह गलती जान बूझकर की गई. उस समय पश्चिम बंगाल के एक इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने प्रोजेक्ट के फेल होने की आशंका पहले ही जता दी थी. लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया.
वे लिखते हैं, ‘मेरा कथन था कि 40 हजार क्यूसेक पानी ले जाने से भी काम नहीं चलेगा. …जब दामोदर की बाढ़ रूपनारायण नदी से गुजरती है, नदी का ग्रेडियंट अत्यंत तीखा होने के कारण उसमें जो ताकत है, वह इतनी अधिक है कि वह ताकत गंगा से हुगली में पानी लाने पर नहीं मिल सकेगी, क्योंकि पानी बहुत दूर से लाना होगा.’
चूंकि बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) की सीमा पर बनाए जाने वाले इस बैराज का अपना रणनीतिक महत्व भी था, इसलिए इसका विरोध करने वाले भट्टाचार्य को आसानी से पाकिस्तानी जासूस बताकर प्रताड़ित किया गया. हालांकि उन्होंने इस प्रोजेक्ट के साइड इफेक्ट के बारे में जितनी आशंकाएं जताई थीं, बाद में सच साबित होती गईं.
कपिल भट्टाचार्य लिखते हैं, ‘मजेदार बात यह है कि जिस समय मार्क्सवादी सत्ता में नहीं थे, वे फरक्का बांध के विरुद्ध मेरे साथ थे. लेकिन जब सत्ता में आए तो फरक्का बैराज को यथाशीघ्र बनवाने की लड़ाई लड़ने लगे. मैंने उनसे पूछा, भाई यह क्या हो रहा है? उनका उत्तर था, आप महज़ एक इंजीनियर होकर कह रहे हैं कि फरक्का बैराज न तैयार हो. किंतु अनगिनत लोग हैं जो चाहते हैं कि परियोजना पूरी हो. फरक्का बैराज निर्मित होने से जितना बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) को क्षति पहुंचेगी, उसकी तुलना में भारत को बहुत कम क्षति होगी.’ (जब नदी बंधी, जयप्रभा अध्ययन एवं अनुसंधान केंद्र, मधुपुर).
भारत में भी हुई व्यापक तबाही
यह समझना भूल थी कि फरक्का बैराज के कारण बांग्लादेश को ज्यादा तबाही होगी. नदी परियोजनाओं के विशेषज्ञ इंजीनियर दिनेश मिश्रा कहते हैं, ‘चूंकि बांग्लादेश की एक तिहाई आबादी गंगा पर निर्भर है, इसलिए उनकी बदहाली ज्यादा दिखती है. जबकि हकीकत यह है कि भारत को ज्यादा नुकसान हुआ है.’
बैराज बनाते समय यह अनुमान लगाया गया था कि बाढ़ के दिनों में यह 27 लाख क्यूसेक पानी का निष्कासन कर सकेगा. पर जब 1971 में बाढ़ आई तो यह सिर्फ 23 लाख क्यूसेक पानी ही निकाल सका. इसके कारण कुल 40 लाख क्यूसेक पानी की आवक में से 23 लाख निकालने के बाद भी 17 लाख क्यूसेक पानी बचा रह गया.
इसके कारण बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल का मालदह और मुर्शीदाबाद जिले बुरी तरह तबाह हो गया. बाद में साल-दर-साल बाढ़ की यह विभीषिका बढती ही गई. कपिल भट्टाचार्य ने पहले ही आशंका जताई थी कि बैराज बनने के बाद बिहार का पटना, बरौनी, उत्तर मुंगेर, भागलपुर और कटिहार हर साल डूबेगा. यह भविष्यवाणी न सिर्फ अक्षरशः सच साबित हुई बल्कि, इसने और ज्यादा इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया.
डीआरपी (नवंबर 2014) के अनुसार, बैराज बनने के बाद सिर्फ मालदाह जिले में 4000 हेक्टेयर भूमि कटाव के कारण नदी के पेट में समा चुकी है और हजारों लोगों का पलायन हो चुका है. पश्चिम बंगाल विधानसभा में भी यह कहा गया था कि इसके लिए सिर्फ फरक्का बैराज ज़िम्मेदार है.
पश्चिम बंगाल की सिंचाई विभाग की रिपोर्ट के अनुसार बैराज के कारण इसके भारतीय हिस्से वाले डाउनस्ट्रीम क्षेत्र में बाई ओर बड़े पैमाने पर भूमि-कटाव हुआ है जिससे हजारों गांव उजड़ गए हैं.
विशेषज्ञों ने इस बात की भी आशंका जताई है कि उथली होती गंगा फरक्का बैराज को बाइपास करते हुए 15वीं शताब्दी के अपने पुराने रास्ते पर लौट सकती है. यदि ऐसा हुआ तो व्यापक तबाही मच जाएगी.
पर्यावरण को हुआ भारी नुकसान
फरक्का बैराज ने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है. इसके कारण विश्वप्रसिद्ध सुंदरवन पर खतरा मंडरा रहा है. बैराज के डाउनस्ट्रीम में गादरहित होने से पानी में भूमि काटने की ताकत ज्यादा हो गई है. नतीजतन विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा क्षेत्र धीरे-धीरे समुद्र में समाता जा रहा है. इससे लाखों की मानव आबादी के साथ-साथ वन्यजीवों के समक्ष भी खतरा है.
प्रसिद्ध जर्नल ‘वाटर’ की रिपोर्ट के अनुसार, बैराज के कारण सुंदरवन के मैंग्रूव प्लांट को काफी नुकसान हुआ है. इसके अतिरिक्त, यहां फूलों की विविधता भी कम हुई है. गंगा में जलीय जीवों की करीब 109 प्रजातियों पर असर पड़ा है. इनमें से करीब 50 तो अब ‘रेयर’ की श्रेणी में आ गए हैं.
डीआरपी की रिपोर्ट के अनुसार, फरक्का बैराज ने हिलसा व झींगा मछलियों के जीवनचक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है. बैराज बनने से पहले हिलसा मछली आगरा, कानपुर और यहां तक की दिल्ली तक आसानी से मिल जाती थी. गंगा के किनारे रहने वाले लाखों मछुआरों पर इसका सीधा व व्यापक दुष्प्रभाव पड़ा है. उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है.
कुल मिलाकर यह कि विकास योजनाएं बनाते समय उसके सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय दुष्परिणामों को नज़रअंदाज़ करने का क्या नतीजा हो सकता है, यह समझने के लिए फरक्का बैराज को एक मॉडल के रूप में देखा जा सकता है. हालांकि, नीति निर्माता इससे कुछ सीखेंगे, इसमें शक है. तभी तो राष्ट्रीय जलमार्ग-1 के लिए 16 नए जलाशय बनाने की योजना बनाई जा रही है.