जातिवार जनगणना के विरोधियों का आग्रह है कि यह विभाजक पहल है क्योंकि यह जातिगत अस्मिताओं को बढ़ावा देगी, समाज में द्वेष पैदा करेगी. यह तर्क सदियों पुराना है और स्वतंत्रता संग्राम के समय से सत्ता-समीप हलको ने इसका सहारा लिया है. यह कथित ‘उच्च’ जातियों का नज़रिया है, भले ही इस पर प्रगतिशीलता की चादर डाली जाए.
(लेखक की ओर से नोट: यह लेख दैनिक भास्कर ने आग्रह करके लिखवाया था, लेकिन इसे इतना असुविधाजनक पाया गया कि प्रकाशित करने से मना कर दिया गया.)
आज की भाषा में जनगणना एक विशाल समाज-व्यापी सेल्फी है. मगर बहुत खास सेल्फी क्योंकि इसमें हमारे देश का एक-एक निवासी शामिल होता है, जिससे राष्ट्र का सामूहिक आत्म-चित्र बनता है और खास इसलिए भी कि इस सेल्फी को हम-आप नहीं सिर्फ सरकार ले सकती है. लेकिन इस सेल्फीमय युग में जनगणना को लेकर विवाद क्यों?
दरअसल विवाद जन की गणना का नहीं उस जन की जाति की गणना का है. जातिवार जनगणना की मांग पुरानी है, लेकिन पिछले तीन दशकों यानी 1990-91 के मंडल-मोड़ के बाद इसमें तेजी आई है.
समर्थकों का कहना है कि व्यापक व सटीक जातिवार जानकारी उपलब्ध होने से विकास कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं को सही दिशा दी जा सकती है. राजनीतिक अपेक्षा यह भी है कि जातिवार आंकड़ों से जातिगत विषमता की वास्तविक तस्वीर सामने आएगी, जिससे आंदोलनों और दलों को नई ऊर्जा मिलेगी और सामूहिक संसाधनों का आवंटन न्यायसंगत बन सकेगा.
कहने कि ज़रूरत नहीं कि यह कथित ‘निम्न’ और ‘मझली’ जातियों का मुद्दा है.
विरोधियों का आग्रह है कि जातिवार जनगणना विभाजक पहल है क्योंकि यह जातिगत अस्मिताओं को बढ़ावा देगी, समाज में द्वेष और टकराव पैदा करेगी. यह तर्क लगभग सौ साल पुराना है और स्वतंत्रता संग्राम के समय से लेकर अब तक देश के सत्ता-समीप हलको ने हमेशा इसका सहारा लिया है. आजादी के बाद जनगणना से जाति को हटाने के लिए भी यही कारण दिया गया. कहने की ज़रूरत है- क्योंकि यह तथ्य आंखों के सामने होकर भी अदृश्य सा रहता है- कि यह कथित ‘उच्च’ जातियों का नज़रिया है, भले ही इस पर प्रगतिशीलता या राष्ट्रवाद की चादर ओढ़ाई गई हो.
सार्वजनिक बहस की गरमागरमी में उपजा स्वाभाविक अतिरेक दोनों पक्षों में पाया जाता है. जातिवार जनगणना के समर्थकों की अतिशयोक्ति उनकी इस खुशफहमी में है कि आंकड़ों के मिलते ही सामाजिक न्याय की सारी समस्याएं हल हो जाएंगी. यह सही है कि आंकड़ों का अभाव बाधक था और है, लेकिन सामाजिक न्याय आखिरकार सत्ता का सवाल है जिसका जवाब जानकारी मात्र से नहीं मिलता.
दूसरी तरफ उनके इस दावे में दम है कि विभिन्न जाति-समूहों की तुलनात्मक संख्या जब जनगणना जैसे अधिकारिक स्रोत से उपलब्ध होगी तो जातिगत बराबरी की राजनीति को तथ्यात्मक आधार के अलावा नया उत्साह भी मिलेगा. मगर यह तर्क सही होते हुए भी अधूरा है.
अधूरा इसलिए कि इस तर्क की वैचारिक जड़ें जाति के मर्म तक नहीं पहुंच पाई हैं. ‘जाति’ नामक सामाजिक संस्थान की बुनियादी सच्चाई यही है कि वह एक निष्क्रिय तत्व नहीं बल्कि एक सक्रिय संबंध है. आम लोगों के सहज बोध में जाति एक प्रकार का चरित्र गुण है जो हर जाति-विशेष के व्यक्ति को परिभाषित करता है. यानी कद-काया अथवा शक्ल-सूरत जैसे जाति भी एक तत्व है (भले ही यह अमूर्त है) जो हर व्यक्ति में निहित है.
जाति की इसी तत्वात्मक धारणा से वह समझ उपजती है जिसके तहत हम समाज को विभिन्न जातियों में बंटा हुआ मानते हैं. व्यक्तियों की तरह हर जाति विशेष के गुण-दोष होते हैं, और जैसे किसी एकल व्यक्ति के साथ भला या बुरा हो सकता है वैसे ही हर जाति के भाग्य में उतार-चढ़ाव आते हैं.
इस समझ को सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रमों के संदर्भ में रखते ही हम तुरंत अपने समाज के सामान्य जीवन, रोजमर्रा की राजनीति और अखबारी सुर्खियों तक पहुंच जाते हैं. फलाना जाति समुदाय अमुक प्रकार का आरक्षण मांग रहा है, तो किसी दूसरे जाति समुदाय ने नए राजनीतिक दल के गठन की घोषणा की, इत्यादि. जोड़-तोड़, नफा-नुकसान और प्रतियोगी महत्वाकांक्षाओं के घर्षण की इस दुनिया में हम सहसा पाते हैं कि ‘जाति’ का असली अर्थ अब ‘निम्न जाति’ हो गया है.
अंग्रेज़ी के कई शब्दों में जैसे कुछ अक्षरों का उच्चारण नहीं किया जाता, उसी तरह आजकल की ‘जाति’ में ‘निम्न’ साइलेंट होता है- हम कहते ‘जाति’ हैं मगर समझते हैं ‘निम्न जाति’. तत्व-आधारित समझ का सफर शाश्वत प्रतिद्वंद्वी अस्मिताओं की अंधी गली में खत्म होता है.
जातिवार जनगणना के विरोधी भी जाति की तत्व-आधारित समझ के उपासक हैं, लेकिन वे उसके सहारे उल्टे नतीजे पर पहुंचते हैं क्योंकि उनका नज़रिया कथित ‘उच्च’ जातियों का है. आज़ाद भारत के नए संविधान और सत्ता-व्यवस्था के तहत इन जातियों को एक प्रत्यक्ष पाबंदी के एवज में एक परोक्ष वरदान मिला.
पाबंदी यह थी की सार्वजनिक और राजनीतिक क्षेत्र में वे अपनी जातीय अस्मिता का खुला प्रदर्शन नहीं करेंगे. वरदान के दो पहलू थे. पहला कि उन्हें अपनी पारंपरिक जाति-जनित संपत्ति और सामाजिक पूंजी को आधुनिक जातिनिरपेक्ष संपत्ति और योग्यता या ‘मेरिट’ में तब्दील करने के लिए भरपूर सरकारी संसाधन उपलब्ध कराए गए. दूसरा पहलू था ‘अन्य वर्ग’ या ‘जनरल कैटेगरी’ के भेस में जातीय गुमनामी का आश्वासन.
इन समुदायों को अपनी जातीय अस्मिता का दोहन करने के लिए चुनावी राजनीति का रास्ता नहीं अपनाना पड़ा, बल्कि उनको निम्नजातीय जद्दोजहद की सतह से उठाकर आर्थिक एवं सामाजिक तरक्की तक पहुंचाने के लिए खास ‘फ्लाईओवर’ बने. अस्सी के दशक तक इस समुदाय की तीसरी पीढ़ी को लगने लगा कि ‘जाति’- जिसका व्यावहारिक आशय अब ‘निम्नजाति’ हो चुका था- से उसका कोई वास्ता नहीं है. जाहिर है कि जातिवार जनगणना में इस वर्ग को कोई फायदा नहीं दिखेगा बल्कि अब तक की गुमनामी छिनने की चिंता सताएगी.
तत्ववादी समझ के बरक्स यदि हम जाति को परस्पर संबंध माने तो दुनिया बिल्कुल अलग नज़र आएगी. यहां न मेरी जाति मुझमें है न आपकी आपमें बल्कि जाति हम दोनों के आपसी रिश्ते में बसती है. जाति की इस धारणा को हम कबीर की प्रेम गली का विलोम मान सकते हैं – जाति की गली से एक अकेला नहीं गुज़र सकता, यहां दोनों पक्षों का होना अनिवार्य है.
जब तक हमारे समाज का सत्ता-संपन्न खंड खुद को जाति से परे मानेगा, जब तक कथित निचली जातियों को लगेगा कि उनका लक्ष्य केवल अपने समुदाय का कल्याण है, तब तक यह ‘समस्या’ एक न एक रूप में बनी रहेगी. जाति से निजात तभी पा सकेंगे जब आम आदमी और अभिजात वर्ग, दोनों को रिज़र्वेशन और मेरिट एक ही सिक्के के दो पहलू नज़र आएं.
वह दिन अभी दूर है. लेकिन जातिवार जनगणना उस मंजिल तक ले जाने वाले रास्ते का पहला पड़ाव बन सकती है. शर्त यही है कि हर देशवासी से पूछा जाए कि उसकी जाति क्या है? आंकड़ों से कोई फायदा हो न हो, यह तो साफ दिखेगा कि इस सेल्फी में हम सब जातिशुदा हैं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक हैं और वर्तमान में बेंगलुरु के सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव अध्ययन संस्थान से जुड़े हैं.)