‘भाजपा सनातन धर्म का बचाव कर सकती है, लेकिन इसके अर्थ को परिभाषित नहीं कर सकती’

साक्षात्कार: बेंगलुरू के नेशनल लॉ स्कूल के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कार्तिक राम मनोहरण ने जाति, धर्म और जेंडर से जुड़े मसलों पर विस्तृत शोध किया है. सनातन धर्म पर छिड़े विवाद पर इसकी विभिन्न व्याख्याओं और उत्तर-दक्षिण भारत की राजनीतिक मान्यताओं के अंतर को लेकर उनसे बातचीत.

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जुलाई 2022 में नए संसद भवन में हुई एक पूजा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डॉ. कार्तिक राम मनोहरण. (फोटो साभार: पीआईबी/स्पेशल अरेंजमेंट)

साक्षात्कार: बेंगलुरू के नेशनल लॉ स्कूल के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कार्तिक राम मनोहरण ने जाति, धर्म और जेंडर से जुड़े मसलों पर विस्तृत शोध किया है. सनातन धर्म पर छिड़े विवाद पर इसकी विभिन्न व्याख्याओं और उत्तर-दक्षिण भारत की राजनीतिक मान्यताओं के अंतर को लेकर उनसे बातचीत.

सनातन धर्म को लेकर डीएमके के वारिस और और मंत्री उदयनिधि स्टालिन के बयान के बाद विवादों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. स्टालिन ने कहा था कि सनातन धर्म का उन्मूलन उसी तरह से किया जाना चाहिए, जैसे किसी बीमारी का किया जाता है, क्योंकि यह सामाजिक न्याय के विचार के खिलाफ है.

इस बयान के बाद सनातन धर्म और हिंदू धार्मिक परंपराओं में इसके स्थान को लेकर उठे विवाद के बीच नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरू के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कार्तिक राम मनोहरण से सनातन धर्म के विचार की विभिन्न व्याख्याओं और इस सवाल पर कि क्या यह उत्तर और दक्षिण भारत की राजनीतिक मान्यताओं को दो खंडों में विभाजित करता है, पर बातचीत की.

डॉ. कार्तिक राजनीतिक पहचान पर अपने शोध के लिए काफी परिचित नाम हैं. जाति, धर्म और जेंडर के सवाल खासतौर पर उनके शोध के केंद्र में रहे हैं. लेकिन राजनीतिक निरीश्वरवाद (नास्तिकता) पर उनका शोध आगे चलकर एक किताब ‘पेरियार : अ स्टडी इन पॉलिटिकल एथीज्म’ की शक्ल में सामने आया, जिसका प्रकाशन पिछले साल हुआ.

यह किताब जाति-विरोधी तर्कवादी विचारक ईवी रामास्वामी के बौद्धिक और राजनीतिक विचारों पर है. यह किताब यह समझने में मदद कर सकती है कि कैसे डीएमके जैसी द्रविड़ पार्टियों ने अपने राजनीतिक केंद्र को पेरियार और उनके सुधारवादी विचारों से तैयार किया है. यह हिंदुत्व की प्रतिगामी राजनीति के ठीक उलट है, जो सनातन धर्म से अपने आदर्श ग्रहण करने की बात करती है. इसके द्वारा सनातन धर्म का बचाव जिस आक्रामकता के साथ किया गया, उसे देखते हुए यह बात कही जा सकती है.

इंटरव्यू के अंश :

उदयनिधि स्टालिन सनातन धर्म के उन्मूलन पर एक सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे, इसलिए किसी को भी उनके उद्गारों पर हैरान नहीं होना चाहिए. लेकिन क्या उत्तर भारत में हिंदू धर्म सिर्फ सनातन धर्म और वैदिक परंपरा से परिभाषित होता है जबकि दक्षिण भारत में सनातन धर्म से आगे भी कई अन्य रूप हैं और जिन्होंने वैदिक सनातन धर्म को चुनौती भी दी है?

हां, निश्चित तौर पर. चलिए मैं अपनी बात तमिलों द्वारा लिए गए रास्ते से शुरू करता हूं. तमिल शैवों के लिए सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ पेरियापुराण है. लेकिन इस पूरी किताब में कहीं भी सनातन धर्म का कहीं कोई जिक्र नहीं है. यह सिर्फ तमिलनाडु की ही विशिष्टता नहीं है. कर्नाटक में लिंगायतों के लिए बसावन वचन उनके पंथ के लिए सबसे पवित्र प्रार्थना है, लेकिन वहां भी सनातन धर्म का कोई जिक्र नहीं है.

क्या उत्तर और दक्षिण के हिंदू धर्म को अलगाने वाली चीज यही है?

असल में जब हम संस्कृत धर्मग्रंथों या जिसे हम मुख्यधारा का हिंदू धर्म कहते हैं, की तरफ देखते हैं, तो चीजें काफी जटिल हो जाती हैं. यह सामान्य तौर पर स्वीकृत है कि श्रुतियों को स्मृतियों से ज्यादा आधिकारिक माना जाता है, लेकिन फिर भी हम वेदों या उपनिषदों में सनातन धर्म का किसी भी तरह का संदर्भ नहीं पाते हैं.

हालांकि सनातन धर्म का सबसे स्पष्ट तरीके से उल्लेख महाभारत में किया गया है. सीधे तौर पर इसका नहीं, बल्कि दूसरे विचारों के साथ, जैसे, धर्मशास्त्र में वर्णाश्रम धर्म (जाति) या स्त्री धर्म और सबसे महत्वपूर्ण तरीके से राजधर्म. संस्कृत शिवपुराण में सनातन धर्म के विचार का उल्लेख सिर्फ दो बार हुआ है. वह भी अप्रमुख तरीके से.

हिंदू इतिहास पर विस्तृत काम करने वाली ऑड्रे ट्रश्के जैसी स्कॉलर सनातन धर्म को धार्मिक समुदाय द्वारा खुद की पहचान करने वाले साधन के तौर पर परिभाषित करती हैं और उनका कहना है कि यह अवधारणा 19वीं शताब्दी में ही सामने आई. इसका प्रयोग ज्यादातर पुरातनपंथी या रूढ़िवादी दृष्टिकोण को सुधारवादी दृष्टिकोण से अलगाने के लिए किया गया.

यहां तक कि प्रसिद्ध संस्कृत धर्मग्रंथों या लोकप्रिय धर्म में सनातन धर्म की कोई ऐसी बड़ी मौजूदगी नहीं दिखाई देती, जैसे, शिव ईश्वर हैं या राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं या कृष्ण अवतार हैं, का विचार दिखाई देता है. इन विचारों की तुलना में देखें, तो सनातन धर्म का धार्मिक ग्रंथों-शास्त्रों में वास्तव में कोई प्रमुखता के साथ दिखाई देनेवाली उपस्थिति नहीं है.

लेकिन आरएसएस-भाजपा ट्रश्के को हिंदू धर्म पर उनके शोध के लिए हिंदू-विरोधी बताती है?

हां, लेकिन वैशाली जयरामन को देखें. वे एक युवा शोधार्थीं हैं और उन्होंने सनातन धर्म के विचार पर गहराई से काम किया है और उनका इसको लेकर काफी सकारात्मक रुख है. वे कहती हैं कि सनातन धर्म के इस इस विचार का कहीं कोई उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं आता है. सिर्फ पुराणों और महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है और वहां भी इसका हर जगह एक जैसा अर्थ नहीं है.

क्या उत्तर और दक्षिण के हिंदू धर्म में अंतर लानेवाली चीज सनातन धर्म है?

मेरा मानना है कि दक्षिण में काफी विविधतापूर्ण धार्मिक परंपराएं हैं, लेकिन यह बात उत्तर के लिए भी सही है. हम प्रायः उत्तर को एक एकाश्म (मोनोलिथ) मान लेते हैं, लेकिन यहां भी यहां भी इस बात को लेकर कोई आम सहमति नहीं है कि सनातन धर्म ही एकमात्र अनुकरणीय चीज है. आर्य समाज को लीजिए. यह उत्तर भारत का एक सुधारवादी आंदोलन है- अब हम इसकी कुछ राजनीति से असहमत हो सकते हैं, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि आर्य समाज मूल रूप से वेदों की तरफ लौटने की बात करता था और वेदों में स्पष्ट तौर पर सनातन धर्म का कोई विचार नहीं है.

जैसा कि मैंने पहले कहा, 19वीं सदी में आकर सनातन धर्म उत्तर भारत के रूढ़िवादी हिंदू मत से जोड़ा जाने लगा, जो सुधार के खिलाफ था. याद रखिए कि उत्तर भारत में दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारक थे, जिन्हें आज हिंदू आइकॉन के तौर पर देखा जाता है, लेकिन अपने समय मे वे रूढ़िवादी धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने वाले सुधारक थे.

दक्षिण में सुधार आंदोलनों की उम्र इतनी लंबी कैसे रही?

दक्षिण के सुधार आंदोलन धार्मिक थे, जिसने संस्कृतभाषी अभिजनों के जटिल धर्मग्रंथों या आनुष्ठानिक प्रथाओं की मध्यस्थता के बगैर व्यक्ति और ईश्वर के बीच सीधा संबंध स्थापित करने की कोशिश की. इसलिए तमिलनाडु में जिस भक्ति आंदोलन का उभार हुआ या फिर कर्नाटक में अस्तित्व में आया लिंगायत आंदोलन एक तरह से कुछ विशेष रूढ़िवादी आनुष्ठानिक प्रथाओं के खिलाफ आंदोलन थे.

तमिलनाडु का भक्ति आंदोलन जिसका नेतृत्व तमिल नयनार संतों ने किया था और कर्नाटक का लिंगायत आंदोलन, इन सबको न सिर्फ स्थानीय भाषा में शब्दबद्ध किया गया, बल्कि इन्होंने कन्नड़ और तमिल साहित्य के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. एक तरह से वे लोकतांत्रिक भी थे, क्योंकि यह आम जनों की भाषा थी. यह अल्पसंख्यक अभिजन तबके की भाषा नहीं थी. इसने एक ऐसे लोकप्रिय धर्म का मार्ग प्रशस्त किया, जो अनुष्ठानों के कठोरता के साथ पालन की जगह भक्ति पर जोर देता था.

थोड़ा विस्तार से बताया जाए, तो नयनारों की मान्यता थी कि सिर्फ संपूर्ण वेदों को पढ़ने की जगह सिर्फ ओम नमः शिवाय का जाप ही काफी है. इसने एक तरह से उन लोगों के प्राधिकार को कम किया, जो ज्ञान को अपनी बपौती समझते थे. यह हिंदू धर्म को चुनौती नहीं थी, बल्कि यह हिंदू धर्म के दूसरे रूप की कल्पना थी. ईसाई प्रोटेस्टेंटों की तरह, जिन्होंने ईसाई धर्म के नए रूप की कल्पना की.

जुलाई 2022 में नए संसद भवन में हुई एक पूजा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

डीएमके जैसी द्रविड़ पार्टियों ने इसे अपनी राजनीतिक का केंद्र कैसे बनाया और यह सनातन धर्म के विचार का उल्लंघन कैसे करता है?

द्रविड़ आंदोलन के जनक के तौर पर देखे जाने वाले पेरियार, जिन्होंने जाति पदानुक्रम के खिलाफ बगावत की, ने धर्म के बारे कुछ वास्तव में ऐसी कठोर बातें की थीं, जिनकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती है. वास्तव में डीएमके उनकी तुलना में काफी नरम है. रामायण पर उनके काफी आलोचनात्मक लेखन को लें, जहां वे यह आरोप लगाते हैं कि यह महाकाव्य जातिवादी सिद्धांतों की स्थापना करता है. उनके द्रविड़ कषगम की रिपोर्टों में अक्सर धर्म पर व्यंग्य और भगवानों के भड़काऊ कार्टून हुआ करते थे.

लेकिन वे सिर्फ नास्तिक नहीं थे. मेरा मानना है कि पेरियार का विचार राजनीतिक नास्तिकता का था, जिसने सिर्फ धर्म पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि राजसत्ता पर धर्म का पड़ने वाला प्रभाव भी उनके निशाने पर था. धर्म और राजसत्ता के एक हो जाने का खतरा भी उनके निशाने पर था, क्योंकि यह बुनियादी तौर पर व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों और व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करता है.

द्रमुक के जानकार डीएमके और पेरियार के बीच सीधा रिश्ता जोड़ने की कोशिश करते हैं. लेकिन मेरे हिसाब से ऐसा नहीं है. जब डीएमके का गठन हुआ था, उस समय इसने धर्म पर आक्रामक स्वर को काफी धीमा कर दिया था. और डीएमके के संस्थापक सीएन अन्नादुरई का मानना था कि सभी व्यक्ति एक ही समुदाय और एक ही भगवान से संबंध रखते हैं, जो कि तमिल शैवमत से लिया गया विचार था.

डीएमके नेताओं ने समाज सुधारों का पक्ष लिया, लेकिन उन्होंने ऐसी जगह भी बनाई जहां धर्म की आलोचना की जा सकती थी. अन्नादुरई और एम. करुणानिधि निजी तौर पर नास्तिक थे, लेकिन उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ताओं या जनता के धार्मिक अभ्यासों में रुकावट नहीं डाली. द्रविड़ राजनीतिक पार्टियां सामान्य तौर पर आज भी धर्म को लेकर समावेशी रही हैं.

मिसाल के लिए, उदयनिधि की आलोचना के सबसे प्रमुख बिंदुओं में से एक यह है कि वे खुद तो सनातन धर्म की आलोचना करते हैं, लेकिन उनकी मां पूरी तरह से धर्मपरायण हैं. लोग उन पर तंज कसते हैं कि वे पहले उनसे बदलने के लिए क्यों नहीं कहते हैं. लेकिन यह झूठा आक्षेप है, क्योंक डीएमके ने कभी भी किसी को अपने धार्मिक विश्वास को छोड़ने के लिए दबाव नहीं बनाया है.

जिस तरह से भाजपा उदयनिधि स्टालिन के खिलाफ लगातार हमले कर रही है, उसे देखते हुए क्या यह कहा सकता है कि यह सब उत्तर के लिए कोई बाहरी चीज है

पहली बात, उदयनिधि स्टालिन ऐसा कहने वाले अकेले व्यक्ति नहीं हैं- दलित नेता और वीसीके पार्टी, जो राज्य में सत्तारूढ़ डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा है, के सांसद थोल तिरुमवालवन ने भी सनातन धर्म पर अगर इससे ज्यादा नहीं, तो इतने ही कठोर बयान दिए हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामीप्रसाद मौर्य ने भी रामचरित मानस और हिंदू धर्म की आलोचना करते हुए कठोर बयान दिए हैं. कांग्रेस के प्रियांक खड़गे पूरी तरह से स्टालिन के समर्थन में आ चुके हैं.

क्या यह द्रविड़ राजनीति और भाजपा के सनातन धर्म में यही अंतर है?

पहली समस्या यह है कि भाजपा यह परिभाषित नहीं करती है कि सनातन धर्म से उसका मतलब क्या है? मिसाल के लिए, तमिलनाडु की भाजपा नेता खुशबू सुंदर ने एक बयान दिया कि वे एक मुस्लिम हैं, लेकिन लोगों ने उनके लिए मंदिर बनाए हैं और उनके लिए सनातन धर्म यही है. मुझे नहीं पता कि किसी मानक या प्राधिकार से उन्होंने यह बयान दिया है.

हमें अभी तक यह पता नहीं है कि जब भाजपा यह कहती है कि वह सनातन धर्म का समर्थन करती है, तब उसके कहने का मतलब क्या होता है. क्या भाजपा पिछली दो शताब्दियों की परिभाषा का समर्थन करती है, जिसके अनुसार इसे जाति, स्त्री और धर्म के मुद्दों पर काफी रूढ़िवादी पक्ष से जोड़ा जाता है? यह बात दक्षिण के लिए सही नहीं है, जहां कई समाज सुधार आंदोलन हुए हैं जिन्होंने जाति, पितृसत्ता और धर्म के आधार होने वाले अन्याय को समाप्त करने के लिए काम किया है.

यहां सनातन धर्म कभी भी लोकप्रिय नहीं था और सुधारवादियों द्वारा इसकी व्यापक आलोचना की गई है.

क्या यही चीज उत्तर और दक्षिण को अलग करती है?

मैं इसे उत्तर बनाम दक्षिण की बहस का रूप नहीं देना चाहता हूं. मैं इसे हिंदुत्व बनाम समतावादी, समावेशी राजनीति के रूप में देखना चाहता हूं. इसे राजनीतिक हिसाब से देखना चाहता हूं, न कि क्षेत्रीय हिसाब से. आखिरकार, उत्तर में भी सनातन धर्म और हिंदुत्व के खिलाफ काफी प्रतिरोध रहा है; लेकिन क्या भाजपा हमें यह बताने की जहमत उठाएगी कि वह किस तरह के हिंदुत्व का बचाव करना चाहती है- क्या वह हिंदू धर्म की बेहद रूढ़िवादी और सर्वाधिक प्रतिगामी तौर-तरीकों की रक्षा करना चाहती है? क्रांतिकारी सुधारकों की बात जाने दीजिए, मेरा मानना है कि गांधीवादियों को भी इससे दिक्कत होगी.

साथ ही क्या भाजपा, जो अब बीआर आंबेडकर को अपना आइकॉन मानती है, ने उनकी किताब ‘रिडल्स ऑफ हिंदूइज्म’ पढ़ी है? सनातन धर्म पर उदयनिधि की टिप्प्णियां हिंदू धर्म की आंबेडकर द्वारा आलोचना की तुलना में काफी मृदु है.

इसलिए भाजपा को हमें यह बताना चाहिए कि उसके हिसाब से सनातन धर्म क्या है और वे इसकी अवधारणा को कहां से ग्रहण कर रहे हैं और क्या यह हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा है? क्या भाजपा यह बता सकती है कि क्या सनातन धर्म का उल्लेख वेदों और उपनिषदों में है? और इसका पुराणों में कहां और किस तरह से प्रयोग हुआ है?

पुराणों में दूसरे ज्यादा महत्वपूर्ण तरीके से उठाई गई अवधारणाएं हैं, मसलन वर्णाश्रम धर्म (जातियों के कर्तव्य) और स्त्री धर्म (स्त्रियों के कर्तव्य). आज कई जाति विरोधी कार्यकर्ता वर्णाश्रम धर्म की खुलकर आलोचना कर रहे हें और कई स्त्रीवादी कार्यकर्ता खुलकर स्त्री धर्म की आलोचना कर रही हैं. भाजपा का इस पर पक्ष क्या है?

और अगर हम संविधान के लिहाज से बात करें, तो हमारे पास ‘अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं’ का विचार है. क्या सनातन धर्म अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं के अंतर्गत आता है? अगर ऐसा है, तो इसका प्राधिकार क्या है? ये वे सवाल हैं, जिनका जवाब भाजपा को सनातन धर्म की आलोचना करने वालों से माफी की मांग करने से से पहले देना चाहिए.

क्या यह विचित्र नहीं है कि तमिलनाडु सनातन धर्म पर सम्मेलनों का आयोजन कर रहा है, जबकि यह विचार वहां के लिए बाहरी है?

अगर मैं गलत नहीं हूं, तो मैं यह कहूंगा कि सनातन धर्म और मनुस्मृति को लेकर बहस और इसकी आलोचना 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद बढ़ गई है, क्योंकि भाजपा ने इसे राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बना दिया है. तमिलनाडु में जाति-विरोधी विमर्श हमेशा से होते रहे हैं, लेकिन भाजपा ‘नीट’ प्रवेश परीक्षा या जाति आरक्षण को कमजोर करने जैसी नीतियों द्वारा राज्य पर एक सनातन धर्म विरोधी राजनीति थोप रही है.

सिर्फ थोल तिरुमवालन और उदयनिधि स्टालिन जैसे राजनीतिक नेता ही नहीं तमिलनाडु के कई कार्यकर्ता इसे सनातन धर्म के हिस्से या भाजपा की मनुवादी मानसिकता के तौर पर देखते हैं. भाजपा सिर्फ चुनावों को ध्यान में रखकर इसे गैर आनुपातिक तरीके से तूल दे रही है. हो सकता है इसका तमिलनाडु के बाहर कुछ असर हो, लेकिन राज्य में इसका कोई असर नहीं होगा.

(अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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