बिहार जाति सर्वेक्षण: एक कलाकार जाति है जट

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. ग्यारहवां भाग जट जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. ग्यारहवां भाग जट जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons)

पिछली कड़ियों में आपने बिहार की उन जातियों के बारे में जाना है, जो या तो कृषक जातियां हैं या फिर शिल्पकार जातियां. आज उस जाति के बारे में जानिए न तो किसान है और न ही शिल्पकार. यह एक कलाकार जाति है. एक ऐसी जाति, जिसका संपूर्ण अस्तित्व ही कला है. कला का मतलब नाचना और गाना.

इस जाति का नाम जट है. इस जाति के बारे में आगे जानने से पहले एक सवाल यह कि क्या आपने संस्कृति को समूर्त देखा है कभी? समूर्त यानी साकार. यह उन प्रतिमाओं की बात नहीं है, जो हिंदू धर्म के उत्सवों के दौरान स्थापित की जाती हैं. बिहार के गांवों में अब भी देवी-देवता का मतलब प्रतिमाएं नहीं होतीं. वहां तो हर देवी-देवता पिंड और चबूतरा में वास करता है. लेकिन जट देवी-देवता नहीं हैं, जो पिंड और चबूतरों में वास करें. ये तो जीते-जागते लोग हैं, जो अपने आप में संस्कृति हैं. एक ऐसी संस्कृति, जिसकी मिठास आज भी बिहार को सबसे खास बना देती है.

इन्हें पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों से नहीं जोड़ा जा सकता है. जाट तो खेती-किसानी करने वाली कौम है और बिहार के जटों का काम वैसे तो खेतिहर मजदूर के रूप में काम करना अवश्य रहा है, लेकिन इनका मूल काम किसानी नहीं है. ये तो नाचने-गाने वाले लाेग हैं. जब कभी तीज-त्यौहार होता है, ये अपने स्वजनों के साथ नाच उठते हैं.

इसमें इनके घर की महिलाएं साथ देती हैं. जैसे ये जट कहे जाते हैं तो इनकी जीवनसंगिनी जटिन कही जाती हैं. दोनों को एक साथ जट-जटिन के रूप में संबोधित किया जाता है.

इनके पुरखों ने यह काम कब और क्यों शुरू किया होगा, इसका कोई इतिहास नहीं है. हो सकता है कि वह जंगलों में रहते हों और जनजातीय संस्कृति को जंगलों से मैदान में लेकर आए हों. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि जिस तरह के नृत्य की शैली इनकी है, वैसी ही शैली आदिवासी समाज में ही देखी जाती है. उस समाज में भी लोग शाम को या फिर किसी भी उत्सव पर नाचते-गाते हैं, मांदड़ बजाते हैं.

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि आखिर संस्कृति को इतिहास की कसौटी क्यों नहीं माना गया? यदि ऐसा होता तो कम-से-कम इस बात का उल्लेख तो इतिहास में जरूर रहता कि जब जंगलों से इनके पुरखे मैदानी इलाकों में आए तब उनके गीतों और नृत्य की शैलियों में परिवर्तन किस तरह हुए.

आज जट जाति के लोग बिहार के कुछ ही जिलों में सीमित रह गए हैं. जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022 में बिहार सरकार ने बताया है कि ये लोग सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी और खगड़िया जिलों में रहते हैं.

इनके बारे में एक दिलचस्प जानकारी और कि ये लोग हिंदू और मुसलमान दोनों होते हैं. ठीक वैसे ही जैसे इस राज्य में नट जाति के लोग हैं. वे भी हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं. नट और जट जाति के लोगों में अनेक समानताएं हैं. एक बड़ी समानता तो यह कि वे भी नाचते-गाते हैं. लेकिन वे मुख्य तौर पर गंगा के उस पार रहते हैं.

यह हो सकता है कि मगध, भोजपुर आदि के इलाके के नट इनके लोग ही हों. लेकिन यह स्थापित कौन करे?

एक दूसरी समानता यह है कि नट जाति के लोगों की तरह ही इस जाति के अधिसंख्य लोग या तो भूमिहीन हैं या फिर जमीन है भी तो नाममात्र की.

खैर, हिंदू के रूप में जट जाति के लोगों की कुल आबादी 7,781 है और ये सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और अररिया जिले में ही वास करते हैं. जबकि मुसलमान के रूप में ये लोग मधुबनी, सीतामढ़ी, दरभंगा, खगड़िया और कुछ लोग अररिया में भी रहते हैं, जिनकी आबादी 44 हजार 949 है.

बहरहाल, गीत-संगीत-नृत्य इन लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है. वे चाहे हिंदू रहें या मुसलमान, वे न तो अपने गीतों में किसी हिंदू देवी-देवता को गोहराते हैं और न ही सूफियों के जैसे किसी निराकार की शान में कलमा पढ़ते हैं. ये इहलौकिक लोग हैं और इसी धरती के बाशिंदों के लिए नाचते-गाते हैं.

रही बात राजनीतिक और सामाजिक हैसियत की, तो इन लोगों को बस जट-जटिन ही कहा जाता है. हिंदू और मुस्लिम के रूप में इन लोगों की आबादी को जोड़ भी दिया जाए तो कुल आबादी 52 हजार 730 है. हां, यदि नट जाति के लोगों को इस आबादी में शामिल कर लिया जाए तो- हिंदू नट 1 लाख 5 हजार 358 और मुस्लिम नट 61 हजार 629 को मिलाकर 2 लाख 19 हजार 717 होती है. लेकिन यह संख्या भी इतनी नहीं कि राजनीतिक मोर्चे पर कोई आवाज उठे.

वैसे एक अच्छी बात यह हुई है कि बिहार में इनकी कला को कुछ और लोगों ने अपना लिया है. वे मंचों पर जट-जटिन का नृत्य प्रस्तुत करते हैं. लेकिन वे जट जाति के लोग नहीं होते. जट जाति के लोग तो रोजी-रोटी के फेर में अब न केवल अपने मूल वास से बल्कि अपनी संस्कृति से भी पलायन कर रहे हैं.

यदि मैं इनके ही एक गीत के जरिये इनकी कहानी कहूं तो–

‘जाय देहि हे जटिन देश रे विदेश.
तोर लागी लयबे जटिन सिकरी सनेस..’

और जवाब में इनके जीवनसंगिनी की पीड़ा भी सुनिए–

‘सिकरी तं रे जटा तरबुक धूर.
ठाढ़ि रहि रे कुलबोरना नयनक हुजूर..’

इन दो पदों में पलायन का दर्द सामने आता है. पहले पद में जट अपनी जीवनसंगिनी से कहता है कि वह उसे देश-विदेश जाने दे ताकि वह धन कमा सके. वह से प्रलोभन भी देता है कि जब वह लौटेगा तो उसके लिए सोने की चेन (सिकरी) और मिठाई (सनेस) लेकर आएगा. लेकिन जवाब में उसकी जीवनसंगिनी कहती है कि सोने की चेन उसके पैरों के धूल के समान है और वह उसे अपनी संस्कृति से दूर जाने की बात सुनकर कुलबोरना यानी कुलनाशक कहती है तथा उसे अपनी आंखों के सामने रहने को कहती है.

सवाल है कि जट लोगों के इस पलायन का दर्द कौन समझेगा?

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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