बिहार जाति सर्वेक्षण: लोकतांत्रिक राजनीति का मज़बूत हिस्सा बने यादव

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. बारहवां भाग यादव जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Jim/CC BY-NC-ND 2.0)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. बारहवां भाग यादव जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Jim/CC BY-NC-ND 2.0)

सिंधु घाटी सभ्यता तक जातियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता. हालांकि पेशों के रूप में किसान और शिल्पकार के अलावा शासक समूह जरूर थे, लेकिन कोई जाति नहीं थी. जातियों का उल्लेख बिहार के आजीवक परंपराओं में भी नहीं मिलता. वहां मिलता भी है तो केवल पेशागत पहचान. मसलन मक्खली गोसाल चरवाहा रहे, जिनका बचपन में लालन-पालन एक तेली परिवार में हुआ. मक्खली गोसाल नियतिवाद के प्रवर्तक रहे, जिन्होंने ईश्वर की अवधारणा को खारिज किया और यह स्थापित किया कि दुनिया में घटने वाली हर घटना के पीछे नियति है और कोई नियंत्रक नहीं है. गोसाल की इसी विचारधारा को महावीर और बुद्ध ने आगे बढ़ाया. बुद्ध ने तो अनित्यवाद का सिद्धांत रखा.

दरअसल, जब हम बिहार की बात करते हैं तो हमारा संबंध उस बिहार से होता है, जिसने आगे बढ़कर इस देश को वैचारिकी दी और इस वैचारिकी के मूल में जाति नहीं बल्कि जमात रही. मसलन, बुद्ध ने ही ब्राह्मण धर्म के विपरीत बौद्ध धर्म का प्रतिपादन किया. ब्राह्मण धर्म में जहां एक ओर शूद्रों के लिए तमाम प्रतिबंध थे, छुआछूत था तो बौद्ध धर्म में सभी के लिए सम्मान और समान अधिकार. बाद में तो बौद्ध धर्म अशोक के प्रयासों से विदेशों तक पहुंचा.

लेकिन मौर्य वंश के खात्मे के बाद बिहार में बौद्ध धर्म का भी पतन हो गया. एक बड़ी वजह तब जातिवाद की स्थापना थी. परिणाम यह हुआ कि कुशवाहा, कुर्मी, यादव, कहार, चमार, पासवान, पासी सहित अनेक जातियां अस्तित्व में आ गईं और बुद्ध के सारे किए-कराए पर पानी फिर गया. समाज खंडित हो चुका था.

यह वे बातें हैं जो आज भी दृश्य हैं और सरकारी व गैर-सरकारी दस्तावेजों में दर्ज भी. मसलन, बिहार सरकार की हालिया रिपोर्ट ही बताती है कि अभी वहां कुल 209 जातियां हैं और इन सभी में सबसे अधिक यादव जाति के सदस्य हैं. इनकी आबादी एक करोड़ 86 लाख 50 हजार 119 है जो कुल आबादी का 14.266 प्रतिशत है.

इस बड़ी आबादी के अपने नफा-नुकसान भी हैं. इनमें से एक नुकसान तो यह कि यादव जाति का ब्राह्मणीकरण व्यापक स्तर पर करने की तमाम कोशिशें की गई हैं. जबकि यह जाति चरवाहा रही है और एक तरह से इसके मूल में जनजातीयता रही है.

अनेक इतिहासकारों और समाशास्त्रियों ने फिर चाहे वह आरएस शर्मा हों या फिर डीडी कोसंबी आदि ने इस जाति को मूलत: चरवाहा ही माना. अधिकांश तो यही मानते हैं कि चरवाहा के रूप में इस जाति ने अनेक महान खोजें की हैं और इन खोजों ने मानवता को समृद्ध तो किया ही, लोगों को ज्ञान-विज्ञान से भी जोड़ा. उनके मुताबिक तो चरवाहा सबसे पहले रहे जिन्होंने यह बताया कि किस जानवर को मारकर खाना है और किस जानवर के दूध का इस्तेमाल करना है. वैसे भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जब कृषि का विकास हुआ तभी से मवेशीपालन का आगाज भी हुआ. इसकी वजह भी रही. कृषि और मवेशीपालन एक-दूसरे के पूरक रहे.

एक चरवाहे के रूप में इनके योगदानों को रेखांकित किया गया है. फिर चाहे वह ईसा मसीह रहे, जिनका जन्म भले ही चरवाहा परिवार में न हुआ हो, लेकिन वे खुद को चरवाहा ही मानते थे. ऐसा इसलिए कि वे जानते थे कि इस धरा पर यदि कोई अबोलों की परवाह करता है तो वे चरवाहे ही हैं. मानव सभ्यता के विकास में चरवाहों के योगदानों को इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर मोहम्मद से जोड़कर देखा जा सकता है जो चरवाहा थे और काली कमली वाले कहे गए.

लेकिन भारत में चरवाहों को केवल चरवाहा नहीं माना गया. कभी उन्हें आभीर कहा गया तो कभी अहीर. कभी ग्वाला और कभी गोवार कहा गया. इसके अलावा इन्हें को हिंदू धर्म से जोड़ने को तमाम तरह के षड्यंत्र रचे गए है. एक बड़ा षड्यंत्र ‘कृष्ण’ है.

मसलन, आर्यों और अनार्यों के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आर्य संस्कृति की खोज’ में कहते हैं-

‘1800 ईसा पूर्व के बाद छोटी-छोटी टोलियों में आर्यों ने भारतवर्ष में प्रवेश किया. ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है. ईरान शब्द का संबंध आर्य शब्द से है. ऋग्वैदिक काल में इंद्र की पूजा करने वाले आर्य कहलाते थे. ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति है. जिन लोगों से वे लड़ते थे उनको काले रंग का बताया गया है. आर्यों को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों के घरों में आग लगा देते थे. आर्यों के देवता सोम के विषय में कहा गया है कि वह काले लोगों की हत्या करता था. उत्तर-वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से उन तीन वर्णों का बोध होता था जो द्विज कहलाते थे. शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं रखा जाता था. आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र.’

आर्य ब्राह्मणों के प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद की ही बात करें तो यह बताता है कि आर्य जब ईरान से आए तब उनका सामना सबसे पहले चरवाहा लोगों से हुआ. इसे आप इससे भी समझ सकते हैं कि ऋग्वेद के मुताबिक, आर्यों का प्रमुख राजा इंद्र है. ऋग्वेद में कुल मिलाकर 10,552 श्लोक हैं. इनमें करीब 3,500 श्लोक इंद्र से या तो संबंधित है या फिर उसे समर्पित है.

इसी ऋग्वेद के पहले मंडल के 130वें सूक्त के 8वें श्लोक में कहा गया है-

‘इन्द्र॑: स॒मत्सु॒ यज॑मान॒मार्यं॒ प्राव॒द्विश्वे॑षु श॒तमू॑तिरा॒जिषु॒ स्व॑र्मीळ्हेष्वा॒जिषु॑.
मन॑वे॒ शास॑दव्र॒तान्त्वचं॑ कृ॒ष्णाम॑रन्धयत्. दक्ष॒न्न विश्वं॑ ततृषा॒णमो॑षति॒ न्य॑र्शसा॒नमो॑षति॥’

इसका मतलब है-  हे इंद्र! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं. अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं. इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी. इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया. इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला.

ऐसे ही ऋग्‍वेद के पहले मंडल के 101वें सूक्त के पहले श्लोक में लिखा गया है-

‘प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना.
अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥’

यानी गमत्विजों ने उस इंद्र की जिसने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उनकी स्तुति की कि वे कामवर्णी दाएं हाथ में वज्र धारण करते हैं. रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं.

दिलचस्प यह कि इंद्र के साथ कृष्ण की शत्रुता वैदिक युग से होता हुआ पुराणों के काल में भी आया. लेकिन तब तक आर्य ब्राह्मण यह समझ चुके थे कि कृष्ण को (कृष्णवंशियों की) बार-बार मारने से बात नहीं बनेगी. इंद्र वैसे भी उनका प्रमुख राजा नहीं रह गया था. आर्यों ने अपने लिए विष्णु को स्थापित कर लिया था. इसके अलावा उसने शंकर और ब्रह्मा जैसे देव पैदा कर लिया था. साथ ही देवियों का निर्माण भी उसे जमकर किया. लेकिन कृष्ण को सब पर भारी बताया गया. नतीजतन महाभारत में वेदव्यास कृष्ण के हाथों इंद्र की पराजय दिखाते हैं.

बात यहीं खत्म नहीं होती. वे कृष्ण को महाभारत के नायक के रूप में स्थापित कर देते हैं-

‘सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति.
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥’
(गीता-अध्याय 11, श्लोक 41)

इसके मुताबिक, अर्जुन कहता है कि आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए ‘मेरे सखा हैं’ ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) ‘हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !’ इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हंसी -दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुंबियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है; वह सब अप्रमेयस्वरुप आपसे मैं क्षमा मांगता हूं.

खैर, यह तो पुराण काल की बात हुई. सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है-

‘पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना.
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे.
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥’

तुलसीदास ने इन दो छंदों के जरिये कहा है- अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया. आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चांडाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूं.

तो असल में यादव, जो बिहार में ग्वाला, गोप, अहीर आदि उपनामों से जाने जाते हैं, उन्हें हिंदुत्व के रंग में रंगने की पूरी कवायद की पोल तुलसीदास यहीं खोल देते हैं. जहां एक तरफ तो गीता में कृष्ण की स्तुति है और तो रामायण में यादव लोगों को पाप रूप वाला मानते हैं.

यदि आज की बात करें तो इस जाति के लोग उत्तर भारत के अनेक राज्यों में हैं. वे अलग-अलग संबोधनों से दक्षिण के राज्यों में भी हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार बेहद खास हैं. इन दो राज्यों में इस जाति लोगों की आबादी अधिक है. इतनी अधिक कि लोकतांत्रिक राजनीति में इन लोगों के बगैर लोकतंत्र पूरा नहीं होता.

मसलन, बिहार में इन लोगों की आबादी सबसे अधिक एक करोड़ 86 लाख 50 हजार 119 है जो कि कुल आबादी का 14.266 प्रतिशत है. लेकिन आबादी से लोकतांत्रिक राजनीति में कुछ नहीं होता. वैसे भी लोकतंत्र ने इस देश में तमाम तरह के चमत्कार दिखाए हैं. मसलन दलित समुदाय आने वाली मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. वहीं बिहार में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनाई गईं.

एक सत्य यह भी कि इस बड़ी आबादी के अपने नफे-नुकसान भी हैं. इसके अलावा विभिन्न गोत्रों में विभाजन ने इन लोगों की एकता को खंडित रखा है, जिसके कारण बड़ी आबादी होने के बावजूद ये लोग बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बन पाते हैं. अब आप इसी से समझिए कि बिहार में कुर्मी जाति के लोगों की आबादी केवल 37 लाख 62 हजार 969 है और इस जाति से आने वाले नीतीश कुमार दिसंबर, 2005 से वहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं.

हालांकि जाति आधारित समीकरणों का ही दबाव है कि आज उन्हें तेजस्वी यादव को अपना सहकार बनाना पड़ा है, जो पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के पुत्र हैं.

हालांकि यह बात भी सही है कि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति इन लोगों के बगैर न पहले पूर्ण थी और न आज ही. बिहार में बीपी मंडल सबसे पहले रहे जो यादव जाति के थे और मुख्यमंत्री बने. उनके बाद दारोगा प्रसाद राय रहे. बाद में लालू प्रसाद ने भी 1990 से लेकर 1997 और 1997 से लेकर 2005 तक राबड़ी देवी ने बिहार में राज किया.

वहीं उत्तर प्रदेश में राजनीति के क्षेत्र में रामनरेश यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव का नाम लिया जा सकता है, तो ब्राह्मण वर्गों की जड़ता को चुनौती देने वाले पेरियार ललई सिंह यादव आज भी प्रासंगिक हैं, जिन्होंने पूरे वंचित समुदायों को जागरुक करने के लिए अपना जीवन खपा दिया. उत्तर भारत में वे प्रथम पुरुष रहे, जिन्होंने पेरियार की कालजयी कृति ‘रामायणा: अ ट्रू रीडिंग’ का अनुवाद हिंदी में ‘सच्ची रामायण’ शीर्षक से प्रकाशित कर सामाजिक आंदोलन को नई दिशा दी.

लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इस जाति के लोग पेरियार ललई सिंह यादव की राह पर नहीं चल रहे. वे अब केवल शासक जाति के रूप में तब्दील हो रहे हैं. हालांकि यह भी सच है कि समाज और राजनीति दोनों में उन्होंने सवर्णों के एकाधिकार को सबसे मजबूत चुनौती दी है. यह इसके बावजूद कि सवर्ण उन्हें ‘कृष्ण’ के बहाने ठगने की पूरी कोशिशों में जुटे हैं.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games pkv games bandarqq dominoqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq https://sayalab.com.mx/lab/pkv-games/ https://sayalab.com.mx/lab/dominoqq/ https://sayalab.com.mx/lab/bandarqq/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/pkv-games/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/bandarqq/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/dominoqq/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/bocoran-admin-jarwo/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/bocoran-admin-jarwo/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/depo-25-bonus-25/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/depo-50-bonus-50/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/slot77/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/kakek-merah-slot/ https://kis.kemas.gov.my/kemas/kakek-merah-slot/