देश में बिना पगार के बढ़ते रोज़गार का क्या मतलब है?

हाल ही में जारी सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वे में 'स्व-रोज़गार' बढ़ने को की बात कही गई है. हालांकि, अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा का कहना है कि स्व-रोज़गार की वृद्धि का आंकड़ा 'अवैतनिक पारिवारिक श्रम' से जुड़ा है, जो 2017-18 से 2023 के बीच बेहद तेज़ी से बढ़ा है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Eric Parker/Flickr)

हाल ही में जारी सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वे में ‘स्व-रोज़गार’ बढ़ने को की बात कही गई है. हालांकि, अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा का कहना है कि स्व-रोज़गार की वृद्धि का आंकड़ा ‘अवैतनिक पारिवारिक श्रम’ से जुड़ा है, जो 2017-18 से 2023 के बीच बेहद तेज़ी से बढ़ा है.

(फोटो साभार: Eric Parker/Flickr)

नई दिल्ली: हाल ही में जारी सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे) में अवैतनिक श्रमिकों की संख्या में भारी वृद्धि देखी गई है, जिन्हें ‘स्वरोजगार’ की श्रेणी में दिखाया गया है.

अर्थशास्त्री प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ने द वायर के संस्थापक संपादक एमके वेणु के साथ बातचीत में कहा कि अवैतनिक श्रमिकों की संख्या 2017-18 में 5 करोड़ से बढ़कर 2022-23 में 8.5 करोड़ हो गई है.

उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) अवैतनिक श्रमिकों को ‘एम्प्लॉयड’ यानी कार्यरत व्यक्ति के तौर पर परिभाषित नहीं करता और 92 देशों में इस प्रणाली का पालन किया जाता है. भारत में अवैतनिक श्रमिक स्व-रोज़गार श्रेणी का लगभग एक-तिहाई हैं.

उन्होंने बताया कि स्व-रोज़गार भी 2017-18 में कुल एम्प्लॉयड के 52% से बढ़कर 2022-23 में कुल एम्प्लॉयड का 58% हो गया है. इससे अवैतनिक श्रमिकों की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई है जो वास्तविक रोजगार के अवसरों की कमी के कारण छोटे परिवारों द्वारा संचालित दुकानों या वेंडिंग इकाइयों में शामिल होते हैं.

मेहरोत्रा का यह भी कहना है कि हाल के सालों में बहुत सारी महिलाएं और युवा अवैतनिक श्रमिकों की श्रेणी में शामिल हुए हैं.

उन्होंने यह भी जोड़ा कि गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की स्पष्ट कमी हुई है. उन्होंने कहा, ‘पिछले 15-20 सालों से देश के युवा पढ़-लिखकर गैर कृषि क्षेत्र में काम करना चाहते थे, खेती में नहीं, तो भारत के आर्थिक इतिहास में पहली बार 2004 से लगभग 2019 में कोविड से पहले तक बड़ी संख्या में लोग कृषि का काम छोड़ रहे थे. यह अच्छी बात थी क्योंकि यह संरचनात्मक परिवर्तन का इशारा था.’

उन्होंने जोड़ा कि 2012-13-14 तक उसे रोजगार मिल भी रहा था लेकिन इसके बाद उसमें निरंतर कमी आई है. 2004 से 2012 के बीच सालाना 75 लाख नई नौकरियां सृजित हो रही थीं, जबकि 2013 से 2019 के बीच यह आंकड़ा 25 लाख सालाना का हो गया.

यह पूछे जाने पर कि क्या इसकी वजह से ‘स्वरोजगार’ बढ़ने का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, तब उन्होंने कहा कि ऐसा कहना पूरी तरह सही नहीं होगा. उनके अनुसार, हालिया सर्वे में सामने आया बढ़ता ‘स्वरोजगार’ का आंकड़ा ‘अवैतनिक पारिवारिक श्रम’ (Unpaid Family Labour) से जुड़ा है, जो 2017-18 से 2023 के बीच बेहद तेज़ी से बढ़ा है. 2017-18 में ग्रामीण भारत में अवैतनिक पारिवारिक श्रम का आंकड़ा पांच करोड़ का था, जो 2022-23 में बढ़कर 8.5 करोड़ पहुंच गया.

अवैतनिक पारिवारिक श्रम को समझें तो यह अर्थ है कि यदि एक परिवार खेती में लगा है, तो कुछ सदस्य भी उसके साथ हैं. शहर में अगर कोई आदमी रेहड़ी या ठेला लगा रहा है उसके परिवार की महिला उनकी मदद कर रही हैं. परिवार की दुकान हो तो दो लोग अतिरिक्त बैठ गए हों. यहां आमदनी नहीं हो रही है, उन्हें वेतन नहीं मिल रहा है.

अंतरराष्ट्रीय मानकों पर ‘स्व-रोजगार और अवैतनिक पारिवारिक श्रम’ को कैसे देखा जाता है, इस सवाल पर मेहरोत्रा ने बताया, ‘हम सरकार को बताते रह गए कि आईएलओ अवैतनिक पारिवारिक श्रम को रोजगार मानता ही नहीं है. पर हमारी सरकार मानती है इसलिए यह आंकड़े भ्रामक हैं. और इसीलिए खेती में बढ़े रोजगार को सरकार बड़ा अच्छा मान रही है. लेकिन ऐसे लोग जिन्हें कोई वेतन नहीं मिल रहा था, उनकी संख्या बढ़कर साढ़े आठ करोड़ हो गई.’

उन्होंने जोड़ा, ‘इसमें बच्चे भी शामिल हैं. और यह बहुत दुखद है कि एक तरफ तो ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि रोजगार बढ़ रहा है लेकिन दूसरी तरफ ये न मानना कि इन लोगों को कुछ आमदनी नहीं होती है. अंतररष्ट्रीय संस्थाएं इसे रोजगार मानती भी नहीं हैं. वहां रोजगार उसे माना जाता है जिसमें आमदनी होती है. यहां बस आप काम कर रहे हैं, पैसे नहीं मिल रहे हैं. 92 देशों में लेबर फोर्स सर्वे होता है लेकिन हमारा एकमात्र देश है जो ऐसे श्रम को रोजगार मानता है.’

सरकारी सर्वे में अन्य महत्वपूर्ण डेटा यह है कि औसत मासिक वेतन 2017-18 के बीच 19,450 रुपये और 2022-23 में 20,039 रुपये रहा, जो कमोबेश स्थिर है. इससे पता चलता है कि पिछले 5 वर्षों में औसत वेतन में असल में कोई वृद्धि नहीं हुई है, जो रोज़गार की बिगड़ती गुणवत्ता को दिखाता है.

यह भी स्व-रोजगार में लगे लोगों की बढ़ती संख्या और इसके चलते बढ़ते अवैतनिक श्रमिकों के साथ जुड़ा हुआ है. उनकी क्रय शक्ति की कमी, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, हाल के सालों में हिंदुस्तान लीवर, बजाज ऑटो आदि जैसी उपभोक्ता कंपनियों की ग्रामीण मांग में वृद्धि की कमी में भी स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है.

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