‘गांव के राष्ट्रशिल्पी’ गांधी मार्ग के अनूठे साधकों की कथा कहती है

पुस्तक समीक्षा: महात्मा गांधी कहते थे कि आदर्श ग्राम निर्माण उतना ही कठिन है, जितना सारे हिंदुस्तान को आदर्श बनाना, पर एक ही गांव को कोई एक आदमी आदर्श बना सके तो समझें उसने दुनिया के लिए एक रास्ता ढूंढ निकाला. वरिष्ठ पत्रकार नीलम गुप्ता की 'गांव के राष्ट्रशिल्पी' इसी दिशा में हुए प्रयासों को दर्ज करती है.

(फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

पुस्तक समीक्षा: महात्मा गांधी कहते थे कि आदर्श ग्राम निर्माण उतना ही कठिन है, जितना सारे हिंदुस्तान को आदर्श बनाना, पर एक ही गांव को कोई एक आदमी आदर्श बना सके तो समझें उसने दुनिया के लिए एक रास्ता ढूंढ निकाला. वरिष्ठ पत्रकार नीलम गुप्ता की ‘गांव के राष्ट्रशिल्पी’ इसी दिशा में हुए प्रयासों को दर्ज करती है.

(फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

महात्मा गांधीजी कहते थे.. ‘हम शहरवासियों का ख़याल है कि गांवों का निर्माण शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए हुआ है. हमने कभी यह सोचने की तकलीफ नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न और शरीर ढकने जितना कपड़ा मिलता है या नहीं और धूप और बारिश से बचने के लिए उनके सिर पर छप्पर है या नहीं.’

उनका मत था कि हमें अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताएं गांवों की बनी चीजों से ही पूरी करनी चाहिए. अगर हम चीजों को बनाने वालों के काम में रुचि लें यह आग्रह रखें कि वे बढ़िया चीजें तैयार करें तो यह हो ही नहीं सकता कि गांव की बनी चीजों में दिन-दिन तरक्की न हो.

ग्रामीण भारत के संदर्भ में गांधीजी जैसा बेहतरीन चिंतन-मनन और प्रयोग किसी और नायक ने नहीं किया. उनका मत था कि हमें ग्रामीण सभ्यता विरासत में मिली है. देश की विशालता, उनकी विराट आबादी और भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु के मद्देनजर यही उसके अनुकूल है.

खासतौर पर बेहद दुर्गम और जटिल हालात वाले कई गांवों में हुए व्यापक बदलाव या उनके कायाकल्प की कहानी यही बताती है कि उसके पीछे कोई नायक या प्रेरक जरूर रहा. लेकिन बदलाव समुदाय ने किया. हर समस्या का समाधान सहकारी भाव से निकला. पर आज के दौर में जब मीडिया की बात होती है तो संचार और सूचना क्रांति के इस दौर में भी ग्रामीण भारत की आधी-अधूरी तस्वीर मीडिया में दिखती है.  किसान और गांव उसके लिए डाउन मार्केट का विषय हैं.

गांव किसान की देहरी तक, वहां के बदलाव या चुनौतियों पर गांव की पगडंडियों पर गिने-चुने पत्रकार ही पहुंचते हैं. हाल में ग्रामीण भारत के ऐसे ही बदलाव पर केंद्रित महत्वपूर्ण कृति आई है, जिसका नाम है गांव के राष्ट्रशिल्पी. इसकी लेखक नीलम गुप्ता देश की जानी-मानी पत्रकार हैं. करीब 3 साल की श्रम साधना और महीनों दुर्गम गांवों की खाक छानकर जमीनी हकीकत को देख-परखकर तथ्यों को कलमबंद कर उन्होंने इस रचना को साकार किया है.

पांच अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक के प्रमुख पात्र हैं उत्तर गुजरात के जलदीप ठाकर और दशरथ घरमा वाघेला, दक्षिण गुजरात से अशोक चौधरी, घनश्याम राणा, चेतसी राठौड़, गौतम चौधरी, नीलम पटेल और मोहन माहला तथा उत्तर प्रदेश के राधाकृष्ण शर्मा.  इनमें कोई महिला नहीं है. पर ये सभी ऐसे बदलाव के नायक हैं जो प्रेरक भी है और सकारात्मक भी.

यह पुस्तक गुजरात विद्यापीठ ने प्रकाशित की है, जो 1920 में खुद गांधीजी ने स्थापित किया था. सरदार पटेल समेत कई महान नायक इससे जुड़े हुए थे.

ग्राम शिल्पी इसी संस्था की परिकल्पना है, जो अंधेरे में रोशनी दिखाती है. अगर इस विचार को मिशन मोड का हिस्सा बनाया जाए तो खासतौर पर दुर्गम और बेहद जटिल हालात वाले गांवों की तस्वीर बदल सकती है, उनका कायाकल्प हो सकता है.

2007 में ग्राम शिल्पी कार्यक्रम गुजरात विद्यापीठ ने आरंभ किया. इसके लिए पहले बुनियादी शिक्षा की मार्गदर्शिका तैयार हुई. ग्राम शिल्पी कौन होंगे, गांवों में जाकर वो क्या करेंगे, कैसे बदलाव लाएंगे. वे कैसे प्राकृतिक स्रोतों, जल, जंगल और जमीन की रक्षा करेंगे. किस तरह कृषि, कुटीर उद्योग, आरोग्य शिक्षा, नशे के खिलाफ मुहिम और रचनात्मक कामों को गति देंगे. जो गांव चुना जाए, वह सड़क से कमसे कम 5 किमी दूर हो और बुनियादी सुविधाओं से वंचित हो. आबादी 3,000 से ज्यादा न हो. गांव के आधे लोग निरक्षर हों.

इससे समझ सकते हैं कि ग्राम शिल्पी के सामने कैसी चुनौतियां होंगी.

ग्राम शिल्पी को अपना काम गांधीवादी मूल्यों के तहत करना है जिसके तहत गांवों में भाईचारा सांप्रदायिक एकता और प्रेम भाव बना रहे. लोकशक्ति को जाग्रत करना, समाज में सकारात्मक रोशनी बिखेरना ये सब कहने में तो अच्छे लगते हैं, लेकिन जब जमीन पर इनको अमलीजामा पहनाना हो तो शायद स्थिति कुछ अलग रहती है. 2 साल का प्रशिक्षण देने के बाद आजीवन गांव की सेवा करना यह सोचना आज के दौर के किसी भी उच्च शिक्षित के लिए कठिन है. ग्राम शिल्पी को पहले 2 हजार रुपये आजीविका के लिए मिलते थे, जो अब 10 हजार हो गए हैं.

ग्राम शिल्पी बनने के लिए 30 छात्र आगे आए, जिसमें से कई 2- 3 साल में पलायन कर गए. पर 9 ग्राम शिल्पी मोर्चे पर डटे रहे. उन्हीं पर ये पूरी कथा केंद्रित है. और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके चलते आदिवासी अंचलों में खास बदलाव दिख रहा है. यह बदलाव कैसे कैसे हुआ पूरी कहानी यह पुस्तक बताती है.

नीलम गुप्ता की पुस्तक के आमुख में स्वयं में एक संस्था इला आर. भट्ट ने लिखा कि हमारे जीवन की दैनिक प्राथमिक जरूरतें रोटी, कपड़ा, मकान और आरोग्य सेवा, शिक्षण और प्राथमिक बैंकिंग 100 मील के दायरे में स्थानीय स्तर पर पूरी हो जाएं तो गरीबी, शोषण और पर्यावरण के गंभीर सवालों को अहिंसात्मक और रचनात्मक मार्ग पर चल कर हल किया जा सकता है. ग्राम शिल्पी ऐसी ही जटिल समस्याओं के हल के लिए गुजरात विद्यापीठ द्वारा चलाया जा रहा एक रचनात्मक कार्यक्रम है.

इस भूमिका में ही इला भट्ट ने गुजरात मॉडल की बात भी की है और कहा है कि इस पर तो काफी चर्चा चली लेकिन एक ही मॉडल से पूरे राज्य का विकास संभव नहीं. गुजरात विद्यापीठ के 14 छात्रों ने जो 14 मॉडल रचे, वो अनूठे हैं. ग्राम शिल्पी मॉडल लोकतांत्रिक है, स्थानीय है और समुदाय द्वारा ग्राह्य है.

पुस्तक पढ़ते हुए यह विचार कौंधता है कि गांधीजी ने जिस गुजरात विद्यापीठ को 1920 में अहमदाबाद में स्थापित किया, जो वटवृक्ष बन चुका है, उसे 2007 में ग्राम शिल्पी कार्यक्रम क्यों शुरू करना पडा. आरंभिक कई सालों तक इस संस्थान से ऐसे लोग निकले जिन्होंने एक से एक बड़ी संस्थाएं खड़ी की, आदिवासी समुदाय के लिए अनूठा काम किया. यहां के स्नातकों ने अनेक क्षेत्रों में अपनी लगन और निष्ठा से काम किया.

बेशक, गुजरात विद्यापीठ के परिसर से एक दौर में बलवंत राय मेहता जैसे दिग्गज ग्रामशिल्पी निकले. डाह्याभाई नायक, अंबालाल व्यास, परीक्षित लाल मजूमदार, उत्तम चंद शाह, तरला बहन से लेकर सुमति रावल निकले, जिन्होंने गांधीजी के विचारों को ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में रोपने के लिए खुद को समर्पित किया. पर 1963 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ जब गुजरात विद्यापीठ जुड़ा तो खास से वह भी आम विश्वविद्यालय बन गया. ये सारा काम करीब करीब ठहर-सा गया.

इसी दौरान एनजीओ, विदेशी फंडिंग आदि के चलते स्वयंसेवी भाव का एक कॉरपोरेट रूप सामने आने लगा. इस नाते ग्रामीण पृष्ठभूमि ये यहां अध्ययन के लिए आने वाले छात्र भी वापस अपने गांवों में लौटने की जगह महानगरीय चकाचौंध में खोने लगे.

बदलाव के प्रेरक

नीलम गुप्ता की यह पुस्तक ग्राम शिल्पी कार्यक्रम और ग्रामशिल्पियों पर पहली और इकलौती पुस्तक है जो बहुत सहज, सरल भाषा में रची गई है. जहां ग्राम शिल्पी काम कर रहे हैं, वहां का इतिहास भूगोल और परिस्थितियां भी चित्रित की है. तमाम चित्र और नक्शे भी है. इससे लगता है जैसे पुस्तक आपके अपने साथ उन गांवों और उन पात्रों के पास ले जाती है जो बदलाव के वाहक हैं.

पुस्तक बताती है कि कैसे ग्रामशिल्पियों ने किसानों के साथ धीरे धीरे काम करते हुए उनको आत्मनिर्भर बनाने के लिए राह खोली. जमीन वही थी लेकिन अधिक उपजाऊ हो गई. आदिवासी अंचलों में ग्रामशिल्पियों ने अपने ज्ञान के साथ विज्ञान की मदद से बेकार पड़ी जमीनों पर साग सब्जियों का उत्पादन आरंभ करा दिया. नकदी फसलों ने उनको अप्रयुक्त भूमि से जीविका का रास्ता दिया. नकद रकम हाथ आने लगी तो जीवन स्तर बदला. बाज़ार के साथ उनका संपर्क हुआ, उनमें बाजार की समझ बढ़़ी, बारगेनिंग क्षमता विकसित हुई. बेशक बहुत कुछ सीखना पड़ा, पर उसका असर ये रहा कि उनका जीवन बदलने लगा.

गांवों में कई तरह के रोजगार आरंभ हुए. साधन-सवारी का इंतजाम भी हो गया जिससे जीवन सरल हुआ. थोड़े संसाधन बढ़े तो स्वाभाविक तौर पर पौष्टिक आहार से लेकर बच्चों और महिलाओं की सेहत पर उनका ध्यान गया.

महिलाएं भी अपने हकों के लिए संगठित हुई और बदलाव की प्रेरक बनीं. कुछ सफलता और कुछ विफलता के बाद महिलाओं के नेतृत्व में स्थायित्व मिला. कहीं स्वयं सहायता समूह ने उन्हें बचत करने का महत्व बताया. शिक्षा के बारे में धीरे-धीरे उनकी सोच बदली, बच्चे पढ़ने जाने लगे, स्वच्छता की तरफ उनका रुझान बढ़ा.

यह पुस्तक बताती है कि आरंभिक दौर में लोगों का विश्वास जीतने में ग्रामशिल्पियों को किस कदर श्रम करना पड़ा. साल, दो साल तो गांव के लोगों का भरोसा जीतने में ही लग गया. न उनके खाने का ठिकाना न रहने का. कुछ के लिए आरंभिक दौर ऐसे रहे कि विचार आया कि लौट चलें. क्योंकि ठहरने में बहुत बाधाएं आईं. बहुत-सी बाधाओं के बाद भी ग्रामशिल्पी लोकशक्ति जागरण में कामयाब रहे.

पुस्तक में बहुत रोचक तरीके से सारे तथ्यों को दर्शाने के साथ यह भी बताया गया है कि उन गांवों में ग्राम शिल्पी के आगमन के पहले कैसी तस्वीर थी और अब क्या हालत है. उसके काम का क्या असर है.

ग्राम शिल्पियों ने पढ़ाई के दौरान शायद गांधी को उतना नही पढ़ा था जितना गांवों में रहने के दौरान पढ़ा, बुना और उनकी ताकत को समझा.

नीलम गुप्ता की यह पुस्तक गांधीजी के उस वक्तव्य की ओर ध्यान भी खींचती है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘आदर्श ग्राम निर्माण का काम उतना ही कठिन है, जितना कि सारे हिंदुस्तान को आदर्श बनाना. … लेकिन एक ही गांव को कोई एक आदमी आदर्श बना सके तो यह कहा जा सकता है कि उसने हिंदुस्तान के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक रास्ता ढूंढ निकाला.’

ये ग्राम शिल्पी यही काम कर रहे हैं. यह पुस्तक नीति निर्माताओं और ग्रामीण क्षेत्रों में रुचि रखने वाले हरेक व्यक्ति के पढ़ने लायक है.