दिल्ली के धुएं और घुटन में हिस्सेदारी का सवाल

पर्यावरण क्षरण और जलवायु आपदाओं को ग्लोबल कहने से यह राय बनती है कि वे सभी को समान रूप से प्रभावित करती हैं, पर सच्चाई ये है कि जलवायु आपदाओं का सार्वभौमिक चरित्र है कि वे उसके दोषी पक्ष को अक्सर कम तथा निर्दोष सामान्यजन को अधिक प्रभावित करती हैं.

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20 नवंबर 2023 को दिल्ली के 310 एक्यूआई के बीच एक सड़क पर होता छिड़काव. (फोटो साभार: एएनआई)

पर्यावरण क्षरण और जलवायु आपदाओं को ग्लोबल कहने से यह राय बनती है कि वे सभी को समान रूप से प्रभावित करती हैं, पर सच्चाई ये है कि जलवायु आपदाओं का सार्वभौमिक चरित्र है कि वे उसके दोषी पक्ष को अक्सर कम तथा निर्दोष सामान्यजन को अधिक प्रभावित करती हैं.

20 नवंबर 2023 को दिल्ली के 310 एक्यूआई के बीच एक सड़क पर होता छिड़काव. (फोटो साभार: एएनआई)

बताया जाता है कि टाइटैनिक जहाज जब एक आइसबर्ग से जा टकराया और एक जीवन‌-मरण के बीच चुनाव की आपात स्थिति सामने आ गई, तब बचाव की कोशिशों में प्रथम और उच्च श्रेणी के यात्रियों को सुरक्षित नौकाओं से बचाने को तरज़ीह मिली और वे तो आरामदेह तरीक़े से बचा लिए गए, जबकि उसी जहाज के कामगार और निचली श्रेणी के यात्री अधिकांशतः डूबने के लिए छोड़ दिए गए.

इसलिए ये कहना अक्सर केवल जुबानी जमाखर्च भर है कि आपदाओं का कोई वर्ग, जाति य नस्ल नहीं होती. सच्चाई यह है विराट नैरेटिव्स (आख्यानों) सूक्ष्म अंतर्विरोधों को नज़रंदाज़ कर देते हैं, मसलन पर्यावरण क्षरण और जलवायु आपदाओं को ग्लोबल या वैश्विक कहने से, जो कि वे हैं भी, कभी कभी यह राय बनती है कि वे सभी को समान रूप से प्रभावित करती हैं पर सच्चाई ये है कि ग्लोबल जलवायु आपदाओं का सार्वभौमिक चरित्र है कि वे उसके कारणदोषी पक्ष को अक्सर कम तथा निर्दोष सामान्य जन को अधिक प्रभावित करती हैं.

यही नहीं, वह तबका जो तीव्र औद्योगिक विकास से लाभ कमाता है उसके पास इन आपदाओं से बचने की तैयारी व संसाधन भी अधिक होते हैं और उनके ही पास इन आपदाओं की पर्याप्त पूर्व सूचना भी होती है. दिल्ली का उच्च वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई भी इसी श्रेणी की आपदा है.

दिल्ली की फितरत है कि उसके हिस्से हमेशा अति ही आती है‌- सर्दी, गर्मी, सत्ता, ड्रामा सब उसे अत्यधिक ही मिलता है. इसमें ही अब एक और चीज जुड़ी है सालाना प्रदूषण और उच्च एक्यूआई. हर साल नवंबर मे जब दिल्ली की हवा, जो यूं भी बेहद प्रदूषित है, स्मॉग की वजह से बेहद दमघोंटू हो जाती है, हम अचानक वायु गुणवत्ता सूचकांक की चर्चा सुनने लगते हैं. लोग बाकायदा महसूस करते हैं कि उन्हें सांस लेने में तकलीफ हो रही है अस्पतालों में प्रदूषण और सांस की तक़लीफ वाले मरीज़ों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाती है और इसी वक़्त हमें दिखाई देती है.

आम जनता, सरकार, प्रशासन और कभी कभी न्यायालय की सक्रियता से कुछ फ़ौरी क़दम उठाए जाते हैं, मसलन कुछ प्रदूषण करने वाली गाड़ियों को सड़क पर आने से कुछ दिनों के लिए रोका जाता है, सम-विषम जैसी स्कीम लागू की जाती हैं. इसी तरह स्कूलों को बंद करना, निर्माण कार्य और फैक्ट्रियों को कुछ समय के लिए बंद कर देना जैसे क़दम भी उठाए जाते हैं.

इससे देश-दुनिया और मीडिया को यह भी इशारा देने की कोशिश की जाती है कि प्रशासन प्रदूषण के मामले में गंभीर है. इसी संदर्भ में हरियाणा और पंजाब के गांवों में पराली जलाए जाने को भी एक कारण की रूप में पहचाना जाता है और इस पर एक सालाना ‘फिक्र का जिक्र करो’ अभियान शुरू होता है.

यह कितना भी संयोग जैसा क्यों न लगे पर सच्चाई यह है कि हर आपदा की ही तरह शहरी प्रदूषण भी अलग-अलग तबकों को अलग-अलग मात्रा और प्रकृति में प्रभावित करता है. किसी के लिए यह मात्र एक असुविधाभर हो सकती है जिसे दूर करने के लिए प्यूरीफायर खरीदने पड़ें, एक की जगह दो अलग-अलग कोटि के नंबर वाली कार खरीदनी पड़ें, जबकि एक बड़ा तबका ऐसा है जिसके लिए इस स्मॉग से पैदा हुई स्थिति उसके अस्तित्व पर ही संकट ले आती है.

गरीब तबके के लोग जिन्हें कई वजहों से प्रदूषण जनित अर्थव्यवस्था के ठप होने से केवल स्वास्थ्य और आमदनी पर ही संकट का सामना नहीं करना पड़ता बल्कि बहुधा इस बाधा का मतलब कहीं ज़्यादा गंभीर होता है. अपनी आर्थिक स्थिति के कारण वैसे भी शहर के जिस हिस्से में ये तबका रहने का ठिकाना पाता है वह अस्वच्छ और अत्यधिक प्रदूषित होता है.

यह आलेख इस बात की पड़ताल करता है कि प्रदूषण और उसके कारण उत्पन्न अर्थव्यवस्था का ठप होना किन-किन मायनों में वर्ग, लिंग जाति और धर्म से प्रभावित होता है. लेख इस प्रश्न पर भी विचार करता है कि यदि प्रदूषण तथा उससे जनित रुकावटों का प्रभाव अलग-अलग तबकों पर अलग-अलग पड़ता है तो क्या जिन नीतियों को सरकार द्वारा इस संकट का सामना करने के लिए लागू किया जाता है- वे इस ग़ैर बराबर असर को ध्यान में रखती भी हैं? क्या सरकारी नीतियां इस अंतर को नज़र में रखकर बनाई जाती हैं अथवा वे इसकी उपेक्षा करके केवल फ़ौरी मदद के नाम पर अधिक प्रभावित तबके पर और बोझ तो नहीं डाल रहीं?

दिल्ली तथा इसके आसपास के इलाकों में प्रदूषण के अधिकता के कारणों पर विचार करें, तो पराली जलाने पर चर्चा ज़्यादा होती है जबकि अस्वच्छ यातायात साधन, पेट्रोलियम ईंधन आधारित वाहन एवं मशीनरी तथा औद्योगिक क्षेत्र में पुरानी एवं पर्यावरण विरोधी तकनीक का इस्तेमाल होना इसकी मुख्य वजहें हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ किया जाता है.

समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने का भी एक वर्गीय चरित्र है, यानी यदि इनका उचित समाधान किया जाए तो वर्चस्व प्राप्त तबके को इसकी क़ीमत अदा करनी होगी और उनके लाभ में कमी आएगी। इसलिए हम देखते हैं कि इन मोर्चों पर सुधार की गति बहुत धीमी होती है जबकि जब एक्यूआई में उछाल आता है तो जो तदर्थ क़िस्म के कदम उठाए जाते हैं, उनसे होने वाला नुक़सान निम्न और कामगार तबके को ज़्यादा उठाना पड़ता है.

यह कारण की उपेक्षा और उपचार में फर्स्ट ऐड की पद्धति वह विधि है जिसमें लाभ का तो निजीकरण होता है किंतु हानि का सार्वजनिकरण होता है.

एक रोचक पक्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरराष्ट्रीय पटल की बात की जाए, तो भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था के तौर पर बेहद मुखरता से यह कहता रहा है कि जलवायु आपदाओं की ज़िम्मेदारी विषम है तथा इसीलिए इससे लड़ने में योगदान भी आनुपातिक रूप से भिन्न-भिन्न होना चाहिए. यानी चूंकि अमीर देशों ने संसाधनों का अधिक दोहन किया है और वे ही पर्यावरण की वर्तमान स्थिति के लिए अधिक ज़िम्मेदार हैं इसलिए इसमें सुधार के लिए योगदान भी इन देशों को ही अधिक करना चाहिए.

इस तर्क में कतई कोई विसंगति नहीं है. मगर दिक्कत यह है कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर ख़ुद इस तर्क को देने के बावजूद हम स्थानीय स्तर पर ‘ज़िम्मेदारी के आनुपातिक योगदान’ के असूल को भूल जाते हैं. आंतरिक स्तर भी जलवायु आपदाओं को लाने में जिस तबके-आर्थिक और सामाजिक, भौगोलिक एवं पेशेगत की ज़िम्मेदारी अधिक है, उसे ही इसके उपचार में आनुपातिक योगदान अधिक देना चाहिए पर दुर्भाग्य से होता इसके ठीक विपरीत है.

नीतियों की बात की जाए, तो सवाल यह उठता है जब संसाधनों पर समाज के अलग-अलग तबकों के दावे एक दूसरे से मुक़ाबला कर रहे हों तो सरकार को किस तबके के हितों को तुलनात्मक रूप से ज़्यादा महत्व देना चाहिए. लोकतंत्र का तक़ाजा है कि जिनकी आवाज़ की सरकार तक पहुंच कम है, जो मूक हैं उन्हें आवाज़ देने का काम नीतियों करें.

जलवायु आपदाओं से विस्थापित हो रहे लोग, बेरोज़गार हो रहे लोग, वंचित तबके के लोग, जिनके पास स्वास्थ्य और सुरक्षा की सुविधाएं नहीं हैं वह इस आपदा का स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से अधिक सहने पर मजबूर होते हैं. लेकिन सामान्य अनुभव यह है कि जो नीतियां तथा फ़ौरी कदम सामने आते हैं वे स्पष्टतः या तो वर्गनिरपेक्ष तरीक़े से तैयार किए गए होते हैं या फिर संपन्न एवं मध्यवर्गीय तबके को केंद्रित कर सोचे गए होते हैं.

हमारी भरसक सुचिंतित राय है कि नीतियों को वर्ग (तथा अन्य सामाजिक श्रेणियों) के सापेक्ष बनया जाना चाहिए. हम मानते हैं कि नीतियों को निम्न दिशा का ध्यान रखना चाहिए :

  • पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से बचाने के लिए ज़मीनी स्तर पर जोत के आकार के आधार पर श्रेणीवार रवैया अपनाई जानी चाहिए. जहां बड़े किसान कृषि मशीनों में निवेश करें जबकि छोटे किसानों को यह राज्य की सहायता से प्राप्त हों ताकि पराली जलाना पूरी तरह बंद हो सके.
  • निर्माण कार्य के संबंध में भी पर्यावरण हितैषी तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए जिसके लिए आसान वित्त उपलब्ध करवाया जाए.
  • इसी प्रकार प्रोग्रेसिव कराधान से यातायात के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए संसाधन जुटाने चाहिए.

कुल मिलाकर यह अहम है कि हम जानें कि आपदाएं हर तबके को अलग-अलग मात्रा और रूप में प्रभावित करती हैं और इसीलिए इससे लड़ने की रणनीति भी इन वर्गांतर को ध्यान में रखकर ही बनाई जानी चाहिए.

(दोनों लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

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