जलवायु परिवर्तन के प्रकोपों को गुटों की कूटनीति में बंट कर नहीं, बल्कि मानवता का सामूहिक संकट समझ कर ही जूझा जा सकता है.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संकुल (यूएनएफसीसीसी) के अनेक सम्मेलन मैंने नज़दीक से देखे हैं. विकासशील और विकसित देशों का तनाव, स्वाभाविक तौर पर उनमें हमेशा बना रहता है. लेकिन इस बार बॉन में सम्पन्न हुए 23वें सम्मेलन में तनाव के समीकरण बदले हैं.
विकासशील देशों के प्रतिनिधियों को बड़ा अचंभा हुआ जब सम्मेलन की सदारत कर रहे फिजी का रुख नरम पड़ते देखा. दरअसल, पिछले साल माराकेश सम्मेलन में शुरू हुई जद्दोजहद इस सम्मेलन में भी जारी रही.
दुनिया के क़रीब दो सौ देशों (जलवायु नियंत्रण विवाद में पक्षकार) के बीच दो साल पहले पेरिस में किसी तरह सम्भव हुए नए करार को 2020 से लागू किया जाना है.
उसके लिए क़ायदे-क़ानून क्या हों, इस पर विमर्श चले उससे पहले अमेरिका के नए राष्ट्रपति के बदले हुए रवैए ने बातचीत का तेवर ही बदल दिया. कदम-कदम पर इसकी छाया बॉन सम्मेलन में नुमायां थी.
डोनाल्ड ट्रंप अपनी पार्टी के नक्शेकदम पर हैं. जॉर्ज बुश भी दुनिया के समक्ष प्रदूषण घटाने के किसी संकल्प के इजहार से आंख चुराते थे.
जापान के क्योटो शहर में 1997 में हुए करार से अमेरिका बरसों दूर रहा. फिर ओबामा ने कोपेनहेगन सम्मेलन में उदारता दिखाई.
इसकी परिणति पेरिस करार में हुई, जब उन्होंने अन्य देशों के साथ प्रदूषण-नियंत्रण और जलवायु परिष्कार का संकल्प लिया. उत्सर्जन नियंत्रण के लक्ष्य तय हए.
यह निश्चय भी कि विकसित और विकासशील दोनों, राष्ट्र अपने प्रयासों का हिसाब देंगे. अब जब 197 पक्षकार देशों में अधिकांश (एक जानकारी के अनुसार 170) उस करार पर दस्तखत कर चुके, तब अमेरिका मुकर गया है.
बदले हुए निजाम में अमेरिका की इस वादाखिलाफी से उन देशों को फिर से ढील दिखाने का मौका मिल गया है, जो पहले क्योटो करार के मामले में भी बेरुखी दिखा चुके हैं.
याद रहे, पेरिस करार लागू होने तक क्योटो करार उन पर लागू है. कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया, रूस और यूरोप के कुछ देश ढुलमुल नीतियां अपनाते रहे हैं. हालांकि यूरोपीय संघ अब भी कमोबेश तटस्थ है.
क्योटो करार का मुख्य लक्ष्य यह था कि विकास का सामान मान ली गई खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों (मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रसऑक्साइड, सल्फर हेक्सफ्लोराइड) और दो अन्य गैस समूहों का उत्सर्जन कम कर दुनिया के तापमान को सदी के अंत तक दो डिग्री सेल्सियस के नीचे, बल्कि यथासंभव डेढ़ डिग्री तक यानी पिछली सदी की ‘औद्योगिक क्रांति’ से पहले के स्तर पर ले जाएंगे.
अतिउत्साही इस लक्ष्य को एक डिग्री तय करने की बात भी करते हैं. जबकि बॉन में मुखर एक विशेषज्ञ के मुताबिक, देशों के बीच खींचतान का यही हाल रहा तो तापमान सदी ढलते-न-ढलते तीन डिग्री से ऊपर जा पहुंचेगा.
मुश्किल यह है कि अमेरिका ही नहीं, तरक्की पर्यावरण के लिए अपने उद्योग-धंधों की तकनीक को निश्चित अवधि में बदलने को तैयार नहीं हैं. उन्हें रोजगार घटने का गम सताता है.
नए रोजगार मौजूदा अर्थव्यवस्था में बढ़ते नहीं दिखाई देते जबकि विकास कर रहे देशों पर वे प्रदूषण-नियंत्रण का शिकंजा कड़ाई से कसना चाहते हैं.
विकसित और विकासशील देशों के (जी-7, जी-77, ब्रिक्स आदि) अपने-अपने मंच हैं , जिनके बीच अल्पविकसित देशों का हाल बुरा है. बॉन सम्मेलन के आधिकारिक अध्यक्ष फिजी द्वीपसमूह से लेकर थोड़ी-सी मगर खतरों से जूझती मामूली आबादी वाले तुवालु तक जाने कितने देश गरीबी की बेरहम चपेट में हैं.
वे तय नहीं कर पाते कि उनका भला विकासशील देशों के साथ रहने में है या विकसित देशों की ओर ताकने में. सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रकोपों को गुटों की कूटनीति में बंट कर नहीं, बल्कि मानवता का सामूहिक संकट समझ कर ही जूझा जा सकता है.
जैसा कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) के उप-महानिदेशक चंद्रभूषण का कहना है, अमेरिका विभिन्न देशों के आपसी तालमेल में अड़ंगा लगाने की अपनी कुटिलता से बाज नहीं आता और विकसित और विकासशील देश एक होकर उस दुराग्रह से जूझने के बजाय अपने पुराने कलह में मशगूल रहते हैं.
विकसित देश अब भारत और चीन पर निशाना साधते हैं. उनकी दलील है कि हम पर नियंत्रण का दबाव है, पर भारत-चीन जैसे देश विकास की दौड़ में उसी रास्ते पर हैं, जिस रास्ते से हमें लौटा लाने की गुहार है.
यह सही है कि पेरिस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्साह प्रदर्शन के बावजूद कोयला खदानों के लाइसेंस धड़ल्ले से दिए गए हैं. मंत्री तक इसमें दखल देते हैं और लाइसेंसधारी खुद सत्ताधारी दल के माने जाते हैं.
परिवहन, वाहनों की संख्या, उनके धुआं उगलने पर कोई मुकम्मल नीति तक नहीं बनी है. कांग्रेस के ज़माने में भी यही सिलसिला था.
लेकिन सांत्वना इसमें है कि हमारे यहां सौर और पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्रोतों के प्रयासों ने गति पकड़ी है. जबकि चीन में हालात बिगड़े हैं.
अमेरिका दुनिया में प्रति व्यक्ति सबसे ज्यादा प्रदूषण अर्थात ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करता है पर आबादी के घनत्व से चीन इस प्रदूषण में अमेरिका पर भारी पड़ जाता है.
और सम्मेलनों की तरह बॉन में भी बहुत बात हुई कि विकास में जीवाश्म यानी ‘फॉसिल’ ईंधन (कोयला, तेल, गैस आदि) की बर्बादी रोककर ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर सबको निर्भरता बढ़ानी होगी.
लेकिन विकसित देशों में – जहां यह बर्बादी चरम पर है – वैकल्पिक ईंधन पर पूर्ण निर्भरता के मामले में कोई प्रतिबद्धता सामने नहीं आई, न जहरीली गैसों को घटाने का कोई सुनिश्चित संकल्प बना.
इस मामले में यूरोपियन यूनियन का बीस-बीस-बीस वाला प्रस्ताव पुराना है कि कोयले का प्रयोग बीस 20 प्रतिशत कम करेंगे, अक्षय ऊर्जा का प्रयोग 20 प्रतिशत बढ़ाएंगे, 20 प्रतिशत बढ़ोतरी ऊर्जा प्रयोग की दक्षता में करेंगे.
लेकिन यूरोप में ऐसे देश कम नहीं जो अपने विकास में ‘डर्टी एनर्जी’ यानी कोयले पर बहुत निर्भर हैं. पोलैंड में नब्बे प्रतिशत बिजली कोयले से पैदा की जाती है. वहां 2050 तक कोयले से मुक्ति के आसार नहीं दिखाई देते.
जर्मनी तक में – जहां पर्यावरण की इतनी चिंता हो रही थी – कोयले की खदानें धीमी गति से कम हुई हैं और परमाणु बिजलीघर भी चल रहे हैं. आश्वासन दिया गया कि 2022 तक इन्हें बंद कर देंगे. कहना न होगा ऐसे दिलासों में कूटनीति ज्यादा काम करती है.
ग्रीन क्लाइमेट फंड का मामला भी बॉन में उठा, पर किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा. राष्ट्रसंघ की पहल पर सात साल पहले यह कोष बना था. संकल्प हुआ कि विकास कर चुके अमीर देश बाकी दुनिया को आगे लाने के लिए हर साल एक खरब (100 बिलियन) डॉलर देंगे.
बताया गया कि अब तक सिर्फ दस अरब डॉलर उस ‘हरित कोष’ में आए हैं. अब जब अमेरिका से कोई पैसा कोष के कोरिया स्थित दफ्तर में नहीं पहुंचेगा तो आशंका व्यक्त की गई है कि कुछ और देश भी अपना वादा निभाने में बिदक सकते हैं.
ग़ैर-सरकारी संगठनों की कुछ गोष्ठियों को मैंने सुना. विकास को ज़मीनी स्तर पर रखने की वकालत करने वालों के सामूहिक मंच ‘बियोंड कोपेनहेगन’ की गोष्ठी में सौम्य दत्त ने विकासशील देशों में उन उद्यमियों से सावधान रहने को कहा, जो पहले कार्बन छोड़ने वाले कारखाने चलाते रहे मगर अब ‘सीडीएम’ (क्लीन डेवलपमेंट मैनेजमेंट) योजना के तहत ‘कार्बन-ट्रेडिंग’ करते हैं.
कार्बन-ट्रेडिंग का मतलब है वैकल्पिक तकनीक अपनाकर कार्बन उत्सर्जन घटाना, बदले में कार्बन-क्रेडिट कमाना और उसका विकसित देशों से सौदा करना. दत्त का कहना है कि इसमें नैतिकता का मसला जुड़ा है. उनके और उद्यम ‘सीडीएम’ के प्रति लगाव या सरोकार की गवाही नहीं देते.
दत्त ने मुझे बातचीत में बताया कि हमारी सरकार की नीयत संशय के घेरे में आ जाती है जब इस ‘पर्यावरणीय मुनाफाखोरी’ में हमारे यहा गौतम अडानी, आदित्य बिड़ला, अनिल अंबानी जैसे पहुंचे हुए पूंजीपति शामिल हो जाते हैं.
देश में सोलह सौ परियोजनाएं कार्बन-ट्रेडिंग में हैं. इनमें अधिकांश कार्बन-क्रेडिट कॉर्पोरेट यानी बड़े उद्यमियों ने प्राप्त किया है. पेट्रोल-डीजल की गाड़ियां बनाकर भारी मुनाफा अर्जित करने वाले निर्माता निर्दोष ईंधन वाली गाड़ियां भी बना लेते हैं और कार्बन-क्रेडिट की कमाई कर लेते हैं.
सही है कि रातोंरात तकनीक नहीं बदल सकती, पर कार्बन-ट्रेडिंग में अनुपात का दायरा सुनिश्चित होना चाहिए.
मिसेरियोर, फेस, कट्स इंटरनेशनल आदि संगठनों द्वारा सामूहिक तौर पर आयोजित एक चर्चा में ऑस्ट्रेलिया इंस्टीट्यूट के निदेशक रोड्रिक कैम्पबेल ने कहा कि उनके देश में भारत के अडानी समूह की खदानें पर्यावरण को आज सबसे बड़ा खतरा हैं. कोई ढाई हजार किलोमीटर में फैले नौ सौ द्वीपों वाले सागर शैल संचय का आनंद लेने दुनिया भर के पर्यटक ऑस्ट्रेलिया आते हैं. शैल और समुद्री जीवों के लिए अडानी की कोयला खदानें, बंदरगाह, ढुलाई के लिए बन रही रेललाइन, प्लांट आदि इस मशहूर कोरल रीफ के अस्तित्व लिए ही खतरा बन जाएंगे.
उन्होंने कहा कि लोग उनके यहां विनाश के इतने बड़े विनियोग को देख सकते में हैं, जबकि भारत में अडानी को लोग सिर्फ प्रधानमंत्री के घनिष्ठ मित्र के रूप में जानते हैं.
उनकी कोयला और बिजली परियोजनाओं तक की जानकारी आम जनता को शायद नहीं हैं. ऑस्ट्रेलिया में लोग अडानी समूह के विरुद्ध बड़े-बड़े प्रदर्शन कर रहे हैं. दोनों जगह उनकी परियोजनाओं से जैव-विविधता और मछुआरों के जीवन पर संकट आना लाज़िमी है.
पैन अफ्रीकन क्लाइमेट जस्टिस संगठन की एक गोष्ठी में ‘पैरवी’ के निदेशक अजय झा ने किसानों के हितों की अनदेखी न करने की बात कही. उनका कहना था कि प्रदूषण नियंत्रण पर बात ज्यादा हो रही है, काम कम.
देरी तापमान के प्रकोप को बढ़ाएगी. इसकी मार गरीब देशों पर पड़ेगी. विकास अवरुद्ध होगा, उत्सर्जन से निपटने का खर्च बढ़ेगा.
एक दिलचस्प चर्चा वाहनों के ‘भविष्य’ पर केंद्रित थी. बड़ी कार कम्पनियों ने इसमें शिरकत की. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र की आला कूटनीतिज्ञ और बरसों जलवायु सम्मेलन की कार्यकारी सचिव रहीं क्रिस्टीना फिगरेस (कोपेनहेगन की विफलता को पेरिस करार की सफलता में बदलने का श्रेय उन्हें जाता है) से संयोजक ने विशेष बातचीत की.
क्रिस्टीना में जैसे महात्मा गांधी उतर आए. उन्होंने कहा, ‘वाहनों पर हम इतना निर्भर क्यों हो गए हैं? तीन सौ मीटर भी पैदल नहीं जाना चाहते. स्वावलंबन न होगा तो वाहनों का इस्तेमाल भी नहीं घटेगा. कार को प्रतिष्ठा का सामान कब तक बनाए रखेंगे?’
अभी दुनिया में कुल प्रदूषण का 18 फीसदी सिर्फ यातायात (हर किस्म परिवहन शामिल) की बदौलत उत्सर्जित होता है. नब्बे फीसदी यातायात प्राकृतिक संसाधनों वाले ईंधन पर निर्भर है. कार्बन उत्सर्जन से पूरी तरह बरी यातायात महज तीन प्रतिशत है.
क्रिस्टीना ने भविष्य के प्रयासों में तीन लक्ष्य बताए: बिजली से चलने वाले वाहन पनपाना; वाहन साझा करने की संस्कृति विकसित करना और चालक-रहित यातायात बढ़ाना. चालक-रहित लक्ष्य सुनकर मैं चौंका.
ट्रक, टैक्सी, रेल, व्यवसाय आदि में लगे लाखों-लाख चालकों का क्या होगा? मेट्रो अनेक देशों में चालक रहित हो चुकी, पर कारों इस व्यवस्था की उपलब्धि में दशक लगेंगे. मुख्यतः विकसित देश ही इसे निभा पाएंगे. पर बेरोजगारी की कितनी बड़ी क़ीमत पर?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)