विगत कुछ सालों से कोशिश चल रही है कि ऐसे नैरेटिव को वैधता मिले जो हिंदुत्व के नज़रिये के अनुकूल हो, लेकिन जगह-जगह उसे चुनौती भी मिल रही है. शायद इस पृष्ठभूमि में संघ-भाजपा को मुफ़ीद लग रहा है कि वे सार्वजनिक पुस्तकालयों पर क़ब्ज़ा क़ायम करें और अपनी एकांगी समझदारी के पक्ष में जनमत तैयार करें.
‘पुस्तकालय का अर्थ शीतगृह में रखा गया कोई विचार’
(A Library is a thought in cold storage.)
ब्रिटिश राजनीतिज्ञ हर्बर्ट सैम्युअल (1870-1963) का यह विचार काफी दूरदर्शी लगता है, लेकिन फिलवक्त़ उसका कोई असर राष्ट्रीय राजधानी के 161 साल पुराने पुस्तकालय की नियति पर पड़ता नहीं दिखता, जिसे अचानक दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं कि बिजली का बिल जमा न हो पाने के चलते वहां बिजली काट दी गई और कर्मचारी बिना तनख्वाह के काम कर रहे हैं.
वैसे लाला हरदयाल (1884-1939) नाम के महान स्वतंत्रता सेनानी और विद्वान के नाम से बने इस पुस्तकालय के समस्याओं की जड़ फिलवक्त़ उसका प्रबंधन करने वाले लोगों के आपसी विवादों में देखी जा रही है.
मालूम हो कि इस ऐतिहासिक पुस्तकालय में 1,70,000 से अधिक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी और संस्कृत ग्रंथ हैं. दुनिया के उन गिने-चुने पुस्तकालयों में यह शुमार है जहां बहुत दुर्लभ श्रेणी में गिनी जाने वाली 8,000 दुर्लभ किताबें भी हैं.
बताया जाता है कि एक शख्स जो कभी ग्रंथालय के संचालन के लिए बनी कमेटी के प्रमुख सदस्य रहे हैं तथा हिंदुत्व वर्चस्ववादी नज़रिये के प्रति उनकी सहानुभूति जगजाहिर है – उनके अडियलपन के चलते यह अभूतपर्व स्थिति बनी है.
मुमकिन है कि आप जब इन पंक्तियों को पढ़ रहे हों तब तक स्थिति बदल गई हो और वह ऐतिहासिक पुस्तकालय रफ्ता-रफ्ता अपने सामान्य रास्ते पर चल रहा हो.
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When I read about the way in which library funds are being cut and cut, I can only think that American society has found one more way to destroy itself.
– Isaac Asimov
गौरतलब है कि सार्वजनिक पुस्तकालयों की बढ़ती उपेक्षा की यही एकमात्र मिसाल नहीं है.
अगर हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को देखें तो वहां पर भी हाल के महीनों में ऐसी ही मिसाल सामने आई थी, जब वहां के बहुचर्चित सेंटर फाॅर हिस्टाॅरिकल स्टडीज (इतिहास अध्ययन विभाग) के पुस्तकालय पर संकट के बादल मंडराते दिखे थे. अचानक यह ख़बर मिली थी कि इतिहास अध्ययन पर केंद्रित इस ग्रंथालय, जिसकी खासियत यह रही है कि यहां के किताबों के संग्रह और विभिन्न मोनोग्राफ काफी उच्च स्तरीय समझे जाते हैं, (जिसमें प्रख्यात विद्वान डीडी कोसांबी जैसे कइयो की किताबों का पूरा संग्रह उसे अनुदान में मिला है) इतना ही नहीं यहां के किताबों से लाभान्वित होकर प्रगतिशील इतिहासकारों की पीढ़ियां तैयार हुई हैं, उसे वहां से शिफ्ट किया जाएगा और इस संबंध में विश्वविद्यालय प्रशासन ने बाकायदा एक नोटिफिकेशन भी जारी किया था. (अगस्त 2023)
विश्वविद्यालय की अपनी लंबी परंपरा- जिसमें छात्रों, अध्यापकों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाता है- के बावजूद इस निर्णय को प्रशासन की तरफ से एकतरफा ही लिया गया था. तर्क यह दिया गया था कि विश्वविद्यालय को सेंटर फाॅर तमिल स्टडीज की शुरूआत कर रहा है, जिसके लिए उसे जगह की जरूरत है. मालूम हो कि तमिलनाडु सरकार की तरफ से विश्वविद्यालय को पांच करोड़ रुपये का अनुदान इसी बात के लिए मिला है.
प्रस्तुत ग्रंथालय को जिस एक्जिम लाइब्रेरी में शिफ्ट किया जाना था, वहां पर पहले से ही जगह का संकट था, जो खुद छोटी जगह थी. जानकारों को यह पता करने में अधिक वक्त नहीं लगा कि ऐसे छोटे स्थान पर अगर लाइब्रेरी को शिफ्ट किया गया तो कई सारी पुरानी किताबें, मोनोग्राफ बर्बाद हो जाएंगे और इतना ही नहीं इतिहास के अध्येताओं के लिए भी इस लाइब्रेरी का कोई इस्तेमाल नहीं होगा क्योंकि अधिकतर साहित्य बंधा रह जाएगा. विश्वविद्यालय के छात्रों-अध्यापक ही नहीं देश-दुनिया के अन्य विद्वानों द्वारा जब इस शिफ्टिंग पर सवाल उठाया गया तब फिलवक्त उसे रोक दिया गया है. यह मालूम नहीं कि नोटिफिकेशन वापस लिया गया या नहीं.
मुमकिन है अगर विरोध की आवाज़ें मद्धिम हों या ऐसे समय में जबकि विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों की आबादी कम हो, प्रशासन अपने इस फरमान पर अमली जामा पहना दे.
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चाहे सेंटर फाॅर हिस्टाॅरिकल स्टडीज का स्थापित पुस्तकालय हो या ऐतिहासिक लाला हरदयाल लाइब्रेरी हो, हम यही देखते हैं कि विगत लगभग एक दशक से दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थिति अच्छी नहीं है, उन्हें बदलते सियासी वातावरण में- जब सत्ताधारियों के सरोकार अलग किस्म के हैं- अलग किस्म की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
और अब एक प्रस्तावित विधेयक के चलते उसकी मुश्किलें और बढ़ने वाली हैें. इस विधेयक के तहत सार्वजनिक पुस्तकालयों को संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची (concurrent list) में शामिल करने की योजना है. मालूम हो कि समवर्ती सूची में वह मसले शुमार होते है जिसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों की जिम्मेदारी मानी जाती है. समवर्ती सूची के बरअक्स राज्य की सूची होती है, जिसमें जिम्मा राज्य सरकार/सरकारों का होता है.
अभी तक सार्वजनिक पुस्तकालय राज्य सूची का हिस्सा थे, जिन्हें बदलने का प्रस्ताव है. लाजिम है कि प्रस्तावित बिल कानून बनने के बाद इनके संचालन मे केंद्र सरकार का भी दखल बढ़ जाएगा.
इस संबंध में अधिक चिंतनीय मसला यह भी है कि केंद्र में सत्तासीन हुकूमत इस प्रस्ताव को गुपचुप तरीके से आगे बढ़ाती दिखी है ताकि इस मामले में अधिक शोरगुल न हो, राज्य सरकारों की तरफ से इस बिल के औचित्य को लेकर नई बहस न खड़ी हो और फिर सार्वजनिक पुस्तकालयों के संचालन में केंद्रीय हुकूमत की दखलंदाजी के लिए भी रास्ता खुल जाए.
सार्वजनिक पुस्तकालय– ज्ञान के दरवाजे पर निगरानी अब नहीं?
पुस्तकालयों की बढ़ती दुर्दशा के मौजूदा वातावरण में इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार द्वारा आगे बढ़ाना आखिर किस बात को उजागर करता है. अगर हम बारीकी से पड़ताल करें तो कई बातें दिख सकती हैं:
एक, अहम बात यह लगती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उससे संबद्ध संगठन जैसे भाजपा या अन्य आनुषंगिक संगठन हों, उनका अपना चिंतन सार्वजनिक पुस्तकालय के विचार के बिल्कुल खिलाफ पड़ता है. जिस किस्म के असमावेशी विचार, नज़रिये को वह बढ़ावा देते हैं वह सार्वजनिक पुस्तकालय के विचार का विरोध है.
वह कोई भी शख्स जो भारत पुस्तकालय/ पुस्तकालयों के इतिहास से वाकिफ हो वह जानता है कि पुस्तकालय का विचार, खासकर सार्वजनिक पुस्तकालय का विचार, ‘ज्ञान के दरवाजे पर पहरेदारी के लंबे इतिहास’ (long history of gatekeeping knowledge) से इनकार है. इतिहास इस बात की ताईद करता है कि लिंग (जेंडर) या जाति के आधार पर या समाज के गरीब तबकों से आने वाले छात्रों को पढ़ाई के अनुभव से भी दूर रखने की लंबी परंपरा हमारे समाज में न केवल चली आ रही है बल्कि उसका महिमामंडन भी होता आया है.
दो, भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों के इतिहास पर निगाह दौड़ाएं, तो यह दिखता है कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दिनों में उनका निर्माण हुआ- और वह ऐसे स्थान बने जहां लोग न केवल देश दुनिया के उत्कृष्ट साहित्य से या अन्य किताबों से परिचित हुए बल्कि वह ऐसे स्थान भी बने, जहां पर चलते बहस-मुबाहिसे ने भारत के नए सिरे से निर्माण के लिए लोगों को प्रेरित किया.
हम याद कर सकते हैं आजादी पूर्व के दिनों में लाहौर में बनी द्वारकादास लाइब्रेरी, जिसने बाकायदा कई इंकलाबियों के विकास में अहम भूमिका अदा की, फिर चाहे भगत सिंह हो, सुखदेव हो, भगवती चरण वोहरा हों यशपाल हो.
तीन, हक़ीकत यही है कि भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों का विकास बेहद विषम रहा है. भारत के दक्षिणी राज्य – जहा उपनिवेशवाद के दिनों से ही सार्वजनिक पुस्तकालय आंदोलन रहा है, वहां की स्थिति सबसे बेहतर है.
हम यह भी देख सकते हैं कि गोवा को अगर अलग कर दें तो केंद्र में सत्तासीन भाजपा कभी भी इस इलाके में अपना मजबूत आधार नही बना सकी है. यह शायद इस बात को भी उजागर करता है कि अधिक पढ़े लिखे, सुसंस्कृत लोग शायद बेहद असामवेशी हिंदुत्व की धारा के साथ भी लंबे समय तक सामंजस्य बिठा नही पाते हैै.
चार, सार्वजनिक पुस्तकालयों को अपने अधिकार क्षेत्र मे लाने के पीछे सरकार की यह भी मशा हो कि राजनीतिक तौर पर उसके लिए उपेक्षित इलाकों में वह किसी दूरगामी योजना के साथ काम करे.
अब जहां तक इन सार्वजनिक पुस्तकालयों के संचालन का सवाल है, इस बात की कल्पना करना मुश्किल नहीं कि अगर यह विधेयक कानून बन जाता है तो उसका कितना विपरीत असर इन सार्वजनिक पुस्तकालयों पर पड़ेगा.
एक बड़ा फर्क यह आएगा कि पुस्तकालयों के लिए फंड इकट्ठा करने से लेकर साहित्य की खरीदी तक, अब केंद्र सरकार के पास इस बात के पूरे अधिकार होंगे कि वह निगरानी रखे. और इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि केंद्र मे सत्तासीन लोगों के लिए हिंदुत्व वर्चस्ववाद की भूमि निर्माण करने का सवाल बना ही हुआ है और फिर वह क्या-क्या दखल करेंगे यह साफ है.
दरअसल केरल के उच्च शिक्षा मंत्री आर. बिंदु ने चंद माह पहले जिस बात को रेखांकित किया वह याद रखने लायक है. ‘यह कदम एक तरह से ज्ञान प्रसार के नियंत्रण पर कब्जा जमाने और प्रतिगामी विचारों के प्रसार का माध्यम बन सकता है.’
उसी किस्म की बातें केरल लाइब्रेरी काउंसिल के वीके मधु ने प्रकट कीं :
‘अगर ऐसा कानून बनता है कि हमें उन किताबों को ही खरीदना पड़ेगा जो संघ परिवार की विचारधारा का प्रसार करती हों. वैज्ञानिक चिंतन और तार्किक चिंतन को बढ़ावा देने वाली किताबें प्राथमिकता सूची से हटा दी जाएंगी औ उनका स्थान प्रतिगामी किताबें लेंगी.
नाज़ी प्रयोग से सीखने की कवायद?
आखिर यह समझना मुश्किल नहीं है कि हर दक्षिणपंथी विचारधारा या जमातें ऐसे पाठयक्रमों या किताबों से इतना डरते क्यों हैं, जो व्यापक जनसमुदाय में खोज करने, सवाल पूछने की प्रवृत्ति को तेज करें.
भारत के सार्वजनिक पुस्तकालयों को रफ्ता-रफ्ता केंद्र सरकार के अधीन लाने की यह कोशिश दो अनुभवों की याद दिलाती है.
एक, किस तरह हाल के वर्षों में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की अगुआई में किताबों पर पाबंदी लगाने या लेखों को सेंसर करने की कवायद हाथ में ली गई है, जो सिलसिला तभी ठहर सका जब राष्ट्रपति ट्रंप का स्थान जो बाइडन ने लिया.
अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में क्रिटिकल रेस थ्योरी के अध्ययन और अध्यापन, जितना ज्वलंत मुद्दा आज भी बना हुआ है, इससे इस बात की ताईद होती है. मालूम हो कि ‘क्रिटिकल रेस थ्योरी’ एक अकादमिक अवधारणा है– जिसका सार है नस्ल एक सामाजिक गढ़ंत है और नस्लवाद महज व्यक्तिगत पूर्वाग्रह का मामला नहीं है, बल्कि कानूनी व्यवस्थाओं और नीतियों में अंतर्निहित होता है.’
फिलवक्त आलम यह है कि अमेरिका के ‘चवालीस राज्यों ने ऐसे कदम उठाए हैं या वह ऐसे कदम उठाने की योजना बना रहे हैं जिसके चलते क्रिटिकल रेस थ्योरी की पढ़ाई को अमेरिका के स्कूलों कालेजों में सीमित किया जाए.
और दूसरा अनुभव थोड़ा पुराना है- अलबत्ता भारत में उठाए गए कदम से अधिक करीब.
दरअसल, इतिहास इस बात की ताईद करता है कि हिटलर के युग में नाज़ी हुकूमत ने इसी किस्म की कोशिश की थी. इस प्रयोग पर बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन इसमें एक किताब अधिक चर्चित हुई है जिसका लेखन मार्गारेट स्टीग ने किया. किताब का शीर्षक है ‘पब्लिक लाइब्रेरीज इन जर्मनी’ (Public Libraries in Nazi Germany, By Margaret F. Stieg , Tuscaloosa: University of Alabama Press. 1992 ]जो इस प्रोजेक्ट की अहम विशेषताओं को रेखांकित करती है.
लेखक के मुताबिक, नाज़ी परियोजना का ‘केंद्रीय हिस्सा था सार्वजनिक पुस्तकालयों के माध्यम से सूचनाओं को ज्ञान के प्रसार का’ एक तरह से कहें तो ‘नाज़ी सार्वजनिक ग्रंथालय एक तरह से राजनीतिक सार्वजनिक पुस्तकालय’ को परिभाषित करता था.
इस काम को अंजाम देने के लिए किताबों के संग्रह को ‘छांटा भी गया और उसमें बढ़ोतरी भी की गई.’ कई पुस्तकालयों से तो साठ फीसदी से अधिक किताबें हटा दी गईं. बड़े-बड़े शहरों के कई पुस्तकालयों में जहां मजदूर वर्ग की संवेदनाओं के मद्देनज़र किताबों के संग्रह थे, वहां सबसे अधिक छंटनी हुई.
मालूम हो अपनी विचारधारा को दूर-दूर तक पहुंचाने के लिए नाज़ी हुकूमत ने सार्वजनिक पुस्तकालयों के ताने-बाने का विस्तार भी किया.
वैसे तो इस नाज़ी प्रयोग के बारे में और बहुत कुछ लिखा जा सकता है, पर भारत की ओर लौटें तो सार्वजनिक पुस्तकालयों के नए रूपरंग में ढालने की हिंदुत्व विचारों के वाहकों की बेचैनी या बदहवासी समझी जा सकती है.
एक तरफ यह एक ऐसा समय है जब खुद प्रधानमंत्राी 2014 में सत्तारोहण के बाद से ही ‘भारत की हजार साला गुलामी’ की बात करते दिखते हैं, जो संघ-भाजपा के दृष्टिकोण का विस्तार है, अलबत्ता 1947 के बाद आज़ादी के इतिहास पर इतना जो कुछ लिखा गया है, उससे यह समझदारी बिल्कुल विपरीत है.
हक़ीक़त यही है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की ग़ुलामी का दौर लगभग डेढ़ सौ साल रहा है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- जिसने आज़ादी के आंदोलन से दूरी बनायी रखी थी वह ऐसे गलत दावे करता रहा है.
विगत कुछ सालों से यह सचेतन कोशिश चल रही है कि एक ऐसे आख्यान (नैरेटिव) को वैधता प्रदान की जाए जो हिंदुत्व के विश्व नज़रिये के अनुकूल हो, लेकिन जगह-जगह उसे चुनौती भी मिल रही है. अग्रणी विद्वान, बुद्धिजीवी उसके बौद्धिक दिवालियेपन को आए दिन उजागर करते रहते हैं.
शायद इस पृष्ठभूमि में संघ-भाजपा के लिए यही रास्ता मुफीद लग रहा है कि कि वह सार्वजनिक पुस्तकालयों पर अपना कब्जा कायम करें और अपनी इस एकांगी समझदारी को अधिक विस्तार दें, उसके पक्ष में जनमत तैयार करें.
प्रस्तावित बिल, जिसमें सार्वजनिक पुस्तकालयों को संविधान की समवर्ती सूची में शामिल करने की बात है, इसी एजेंडा की पूर्ति करता है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)