सीबीआई जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत और न्यायपालिका पर उनके परिवार द्वारा उठाए गए सवालों पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और पत्रकार अरुण शौरी का नज़रिया.
यह जो सीबीआई जज बृजगोपाल लोया की संदिग्ध मौत का मामला सामने आया है, वे सीबीआई के स्पेशल कोर्ट में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले को देख रहे थे, जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के कई बड़े अधिकारियों का नाम भी था.
उस संदर्भ में जो उनके परिवार वालों ने कहा, जो कुछ छपा कि यह हत्या संदिग्ध परिस्थितियों में हुई और इसकी जांच होनी चाहिए. उसके बाद लगातार सवाल उठ रहा है कि अब मीडिया और अन्य संस्थानों को क्या करना चाहिए.
मैं समझता हूं सबसे पहले तो मीडिया को इस फॉलोअप करना चाहिए. जैसे जिस पत्रकार ने इस पर काम किया, जिसे द कारवां पत्रिका ने छापा, फिर द वायर ने इसका फॉलोअप किया.
ये सारी बातें बहुत विस्तार में हैं. और ये महज आरोप नहीं है बल्कि वह उन संदिग्ध परिस्थितियों को दिखाते है कि जैसे फ़र्ज़ी एनकाउंटर होते हैं, वैसी ही यह मृत्यु भी है. इसलिए पहली नज़र में यह एक केस बनता है जिसकी जांच होनी चाहिए.
यह सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामला सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहा था और उस पर जो कार्यवाही कर रहे थे और उन्हीं की मौत हो जाती है.
तो सुप्रीम कोर्ट जो हर छोटी बात पर स्वतः संज्ञान लेता है उसे सोचना चाहिए. जैसे मेरे एक संपादकीय पर लिया था जो केस पच्चीस साल चला.
आप एक संपादकीय पर स्वतः संज्ञान ले सकते हैं, फिर यहां तो एक जज की मौत हुई है. वो जज जो ऐसे मामले को देख रहा है जो आपके (सुप्रीम कोर्ट के) दायरे में है, तो आप क्या उसे नहीं देखेंगे?
पहली बात तो यह है कि या तो हम आवेदन डालें या कोर्ट खुद देखे. वैसे बेहतर होगा कि कोर्ट खुद देखे. जस्टिस एपी शाह साहब ने भी कहा है तो एक विशेष जांच दल बनवाया जाये और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इस मौत के बारे में जांच की जाये. फिर जो भी नतीजा हो वो होगा.
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दूसरी बात यह हो सकती है कि सुप्रीम कोर्ट पर ही हम न विश्वास करें. जस्टिस एपी शाह जैसे जो माननीय जज है, वो आपस में तीन ऐसे रिटायर्ड जजों की टीम चुने, जिनकी प्रामाणिकता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता हो.
वो टीम पीपुल्स कमीशन की तरह जाकर इन सब तथ्यों की जांच करें. एम्बुलेंस ड्राइवर से मिले, नागपुर जाये, पूछे कि वहां पर एक बड़ा अस्पताल था वहां लोया को क्यों नहीं ले जाएगा गया, एक छोटी जगह क्यों ले जाया गया जो शायद अस्पताल ही नहीं है.
फिर अस्पताल एक ऑटो में क्यों लेकर गए जबकि गेस्ट हाउस में गाड़ियां थीं, एम्बुलेंस थीं उसमें लेकर क्यों नहीं गए.
आप कहते हो पोस्टमार्टम हुआ तो उस पोस्टमार्टम का अगर समय देखा जाए और जिस गांव में उनके शव को ले जाया गया, उसकी दूरी ही उतने समय में नहीं पूरी हो सकती, जितना बताया गया.
इसमें बहुत सारी गड़बड़ियां दिख रहीं हैं और जस्टिस एपी शाह ने द वायर से अपनी बातचीत में भी इन ख़ामियों को गिनाया है. तो ऐसे तीन जज बैठ कर इस तरह के सारे तथ्यों की जांच करें.
सबसे अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट खुद अपनी निगरानी में एक जांच कराए और अगर वो नहीं करते तब एक पीपुल्स कमीशन जरूर होना चाहिए, इसके लिए मीडिया को बढ़ना चाहिए.
फिर यह बात भी उठती है कि न्यायपालिका का भी दायित्व होना चाहिए कि उनके साथ के किसी व्यक्ति की हत्या हुई है, उन्हें और सक्रिय होकर इस मामले को देखना चाहिए.
मैं कहूंगा इसीलिए नहीं देखना चाहिए कि उनका भाई था बल्कि इसलिए भी कि न्यायपालिका एक आखिरी संस्थान बचा है. अगर न्यायपालिका में भी उतना डर पैदा हो गया जैसा दिल्ली की मीडिया में हो गया है, तब जैसा केजरीवाल कल कह रहे थे कि फिर देश की क्या हालत होगी? इस संस्थान को मज़बूत रखने के लिए भी यह बहुत ज़रूरी है.
(एमके वेणु से बातचीत पर आधारित)