बिहार जाति सर्वेक्षण: नदियों का सगा माना गया है केवट समुदाय

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग केवट जाति के बारे में है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: मनोज सिंह/द वायर)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग केवट जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो: मनोज सिंह/द वायर)

केवट कोई अपरिचित अपरिचित जाति नहीं. प्रसिद्ध हिंदी कवि और गद्यकार नागार्जुन ने उन्हें ‘वरुण के बेटे’ की संज्ञा दी. रामायण में निषाद का उल्लेख हुआ है. वैसे भी यह ऐसी जाति है, जिसे सब जानते और पहचानते हैं. वजह यह कि ये सभी के काम आते हैं. इनका संबंध नदी से है. रही बात इनके पेशे की तो ये नाव चलाते हैं, मछलियां पकड़ते हैं.

परंपरागत रूप से यह एक बहादुर जाति है. बिहार में जुब्बा सहनी इस जाति के आदर्श नायक हैं, जिन्होंने संयुक्त बिहार के उत्तर बिहार में अंग्रेजों और सामंतों के खिलाफ बिरसा मुंडा के जैसे उलगुलान किया. इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में बतौर जाति कुछ खास उल्लेखित नहीं है. यह बात अलग है कि यदि इस जाति के लोगों को अतीत के पन्नों पर लिखने की आजादी होती तो ये अपने बारे में जरूर लिखते कि इनके पूर्वज ही रहे, जिन्होंने नदियों और समंदरों पर विजय पाई. इन्होंने ही मानव सभ्यता को पूरी दुनिया में विस्तारित किया.

लेकिन ये संगठित नहीं हैं, क्योंकि इनकी पहचान एक जैसी नहीं है. कहीं ये मल्लाह हैं तो कहीं मछुआरा, कहीं निषाद तो कहीं केवट. इस समूह के रूप में वे उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, बिहार, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा सहित देश लगभग हर राज्य में मौजूद हैं.

प्रसिद्ध नृवंशविज्ञानी, रसेल और हिरलाल (भारत के केंद्रीय प्रांतों के जनजाति और जाति, 1916) के अनुसार केवट एक मिश्रित जाति हैं और वे रेखांकित करते हैं और इनका संबंध आर्यों से कभी नहीं रहा. ये तो यहां के मूलनिवासी रहे हैं.

एचएच रिज्ले ने अपनी किताब ‘बंगाल के जनजाति और जाति’ (1891) में इसे रेखांकित किया है कि इनका आदिवासियों से रक्त संबंध रहा है.

लेकिन मौजूदा दौर में वास्तविकता यह है कि अलग-अलग राज्यों में ये अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं. ये नाम इन्हें हाल में दिए गए हैं. जैसे छत्तीसगढ़ में इन्हें निषाद, जलछत्री और पार्कर भी कहा जाता है. वहीं असम में इन्हें पहले ‘हलवा केओत’ के नाम से जाना जाता था, लेकिन आजकल वहां इस जाति के लोग खुद को केवट कहते हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में ये मल्लाह, केवट, निषाद और मछुआरा सब हैं.

अलग-अलग शब्द के होने का सीधा संबंध सियासत से हैं. इसको ऐसे समझिए कि बिहार सरकार द्वारा हाल में जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में मल्लाह जाति के लोगों की आबादी 34 लाख 10 हजार 93 (2.36085 प्रतिशत), केवट जाति की आबादी 9 लाख 37 हजार 861 (0.717 प्रतिशत), कैवर्त जाति की आबादी 2 लाख 65 हजार 943 (0 2034 प्रतिशत) के अलावा बिंद जाति के लोगों की आबादी 12 लाख 85 हजार 358 (0.9833 प्रतिशत) है.

इस प्रकार यदि हम इस जाति समूह की संयुक्त आबादी को देखें तो यह योग 58 लाख 99 हजार 255 है. करीब तेरह करोड़ आबादी वाले बिहार में केवट समुदाय की जातियों की कुल आबादी एक बड़ी संख्या है. लेकिन राजनीतिक हिस्सेदारी एकदम न्यून है.

ये जातियां बेशक अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं, लेकिन हकीकत यही कि ये न केवल सरकारी नौकरियों में बल्कि सियासत में भी हाशिए के शिकार हैं. जबकि इस समूह की कुल आबादी से बहुत कम आबादी वाली राजपूत जाति (कुल आबादी 45 लाख 10 हजार 733) और भूमिहार जाति (कुल आबादी 37 लाख 75 हजार 885) राजनीति में निर्णायक जातियां रही हैं. आज भी आलम यह है कि नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में केवल नाम गिनाने को केवट/मल्लाह जाति के सदस्य शामिल हैं.

खैर, ये उन जातियों में शुमार हैं, जिनका उपयोग सभी ने किया. फिर चाहे वे आर्य रहे हों, मुसलमान रहे हों या फिर अंग्रेज. यह जाति जल के आसरे रही है. जमीन होती तो ये खेती भी करते. लेकिन जब जमीन पर अधिकार नहीं है तो इन्होंने जल को अपना जरिया बनाया. हालांकि कई जगहों पर, चाहे वह बिहार हो, उत्तर प्रदेश हो या फिर उड़ीसा हो, ये खेती भी करते हैं.

वजह यह कि नदियों के जल से अब इनका पेट नहीं भरता. इसलिए ये अब कुछ और काम भी करते हैं. जैसे कि बंगाल और त्रिपुरा में ये बांस की टोकरियां बनाते हैं और चाय बागानों में मजदूरी भी करते हैं.

बहरहाल, अब इस जनजातीय संस्कृति वाले जाति समूह का ब्राह्मणीकरण करने में वर्चस्ववादियों को सफलता मिल चुकी है. इस जाति के अधिसंख्य लोग खुद को आदिवासी नहीं मानते. कहीं-कहीं आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग करते हैं, लेकिन दलित कहलाना पसंद नहीं करते. उत्तर प्रदेश और बिहार में तो इन्हें राम से, त्रिपुरा में शैव परंपरा से जोड़ दिया गया है. जबकि असम में इन्हें वैष्णव संत शंकरादेव का अनुयायी बता दिया है.

इन सबसे अलग इनके अपने पर्व और त्योहार हैं. जैसे बिहार में विषहरी पूजा प्रसिद्ध है. इसके अलावा चौरासा देवी की पूजा भी की जाती है. यह देवी नाव पर निवास करती है और लोगों को डूबने से बचाती है.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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