उस्ताद राशिद ख़ान: वो कलाकार जिसका पूरा जीवन संगीत की साधना में बीता…

स्मृति शेष: हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों का रिवाज़ है और गायक अपने घराने की विशिष्टता को अभिव्यक्त करते हैं, ऐसे में उस्ताद राशिद ख़ान की गायकी न केवल उनके अपने घराने की प्रतिनिधि थी, बल्कि उस पर अन्य घरानों और तहज़ीबों का भी प्रभाव था. 

/
उस्ताद राशिद ख़ान. [1968-2024] (फोटो साभार: फेसबुक/@ustadrashidkhan)

स्मृति शेष: हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों का रिवाज़ है और गायक अपने घराने की विशिष्टता को अभिव्यक्त करते हैं, ऐसे में उस्ताद राशिद ख़ान की गायकी न केवल उनके अपने घराने की प्रतिनिधि थी, बल्कि उस पर अन्य घरानों और तहज़ीबों का भी प्रभाव था.

उस्ताद राशिद ख़ान. [1968-2024] (फोटो साभार: फेसबुक/@ustadrashidkhan)
तक़रीबन सत्रह साल पहले जब दिल्ली के एफएम रेडियो चैनल पर ‘आओगे जब तुम ओ साजना, अंगना फूल खिलेंगे‘ गीत आता तो हर बार सुनकर लगता कि एक आधुनिक व्यावसायिक सिनेमा में इतने सुंदर बोल और इतनी सधी शास्त्रीय गायकी वाला गीत कितना अलग और अनोखा है! उस्ताद राशिद खां की गायकी से हम युवाओं का यह तक़रीबन पहला परिचय था, जिन्होंने महज़ साढ़े चार मिनट की अपनी गायकी से शास्त्रीय संगीत की ताक़त और विरासत दोनों ही से हमारी पीढ़ी को मोह लिया था.

शास्त्रीयता किसी भी गीत या गायकी का स्तर किस क़दर बढ़ा सकती है, उस्ताद राशिद ख़ान की उस सुंदर प्रस्तुति से पता चलता है.

शास्त्रीय संगीत की हमारी विरासत को हर पीढ़ी में, अपनी प्रतिबद्धता और फ़न से थोड़ा और समृद्ध करने वाले साधकों से इतिहास भरा हुआ है. हां, आधुनिकता और समकालीन फिल्म संगीत के दबावों से यह संख्या भले ही कम होती जा रही हो पर शास्त्रीय संगीत का भविष्य जैसा कि पंडित भीमसेन जोशी कहते थे ‘उस्ताद राशिद ख़ान जैसे संगीतज्ञों से सुरक्षित’ बना रहा. किसी भी विरासत के संरक्षण की जो आवश्यक शर्तें होती हैं उनमें से एक है, उसके प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता. उस्ताद राशिद ख़ान साहब के बारे में यह बात एक सिरे से स्वीकार की जा सकती है कि उन्होंने अपने विरसे में पाए फ़न को अपनी प्रतिबद्धता, अनथक परिश्रम और लगन से साधा था.

उत्तर प्रदेश के बदायूं में 1 जुलाई 1968 को जन्मे राशिद, समकालीन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के सुपरिचित नाम हैं. संगीत के एक बड़े नामचीन घराने, जिसे रामपुर सहसवान घराने के नाम से जाना जाता है, राशिद उसी घराने की बाद की पीढ़ी हुए. पर, संगीतज्ञों के घराने से संबंध रखने वाले राशिद की खून में ही गायकी थी, यह कहना उनके शास्त्रीय संगीत को दिए गए खून-पसीने की अनदेखी करना होगा. क्योंकि स्वयं अपने कई साक्षात्कारों में वह यह कहते थे कि कैसे लड़कपन में उन्हें संगीत के रियाज़ का अर्थ ही नहीं समझ आता था. बड़ी मुश्किल से वह अपना मन बांध पाते थे. पर फिर जब एक बार संगीत की लौ मन में लगी तब उन्हें घंटों एक ही स्वर के रियाज़ का अर्थ समझ आया.

सुरों के एक-एक स्वर को दिनों और महीनों तक साधने की कला से बचपन में की गई तैयारी का ही प्रभाव था कि आगे चलकर शास्त्रीय संगीत के कठिनतम रागों को जब वह गाते हैं तो उनकी गायकी में कोई तनाव, कोई दबाव नहीं दिखता. सुर एकदम सरल सहज, ठीक अपनी जगह पर लगते हैं.

ख़ान साहब ने शास्त्रीय संगीत को अपनी ऊर्जा से समकालीन संदर्भों में एक नई ऊंचाइयां दी. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत जहां घरानों का रिवाज़ है और जहां हर गायक अपने घराने की विशिष्टता को अभिव्यक्त करते हैं, ऐसे में उनकी गायकी न केवल अपने घराने की प्रतिनिधि थी, बल्कि उस पर अन्य घरानों और तहज़ीबों का भी प्रभाव था.

उत्तर प्रदेश की धरती जो कला के प्रायः सभी रूपों के लिए उर्वर रही है, वहां इन दो शहरों में केंद्रित इस घराने की शुरुआत उस्ताद महबूब ख़ान से हुई थी, पर उस्ताद इनायत हुसैन ख़ान (1849-1919) ने इसे विशिष्ट पहचान दी. इस घराने की गायकी की विशुद्ध शास्त्रीयता को इस बात से समझा जा सकता है कि इसकी वंशावली को संगीत सम्राट तानसेन से जोड़ा जाता है. बदायूं के सहसवान से संबंध रखने वाले उस्तादों की पीढ़ी में ही आगे चलकर निसार हुसैन खां, ग़ुलाम मुस्तफा ख़ान जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ हुए. इसी घराने से ताल्लुक रखने वाले राशिद ने अपनी गायकी में न केवल अपने घराने के रंग को गहरा किया बल्कि उसे ग्वालियर घराने की विशिष्टताओं और सूफ़ी गायकी से जोड़ते हुए और समृद्ध भी किया.

उस्ताद राशिद खां को ख़याल गायकी पर अद्भुत पकड़ की वजह से अधिक जाना जाता है, विशेषकर बड़ा ख़याल या विलंबित ख़याल गायकी में. हालांकि उन्होंने दादरा, ठुमरी, कव्वाली इत्यादि भी उसी शास्त्रीयता से गाया है, पर यह वस्तुतः ख़याल गायकी है, जिनमें उनका असली रंग उभर कर आता है. ख़याल, जिसका संबंध एक विचार या भाव को पूरी रागात्मकता के साथ अभिव्यक्त करने से है, मुख्य रूप से एक गायन शैली है जो पूर्ण रूप से गायक की अभिव्यक्ति पर निर्भर करती है.

ख़याल गायकी भी ध्रुपद से ही उभरी है, पर इसका समय थोड़े बाद का है. तक़रीबन 17वीं शताब्दी में हम इसे मुग़ल दरबारों में प्रश्रय पाते देखते हैं. अपने घराने के संदर्भ में राज्यसभा टीवी को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मेरे घराने की खासियत ऐसी है कि हर रंग उसमें हैं. सिर्फ खयाल के ऊपर टिका हुआ नहीं है , बल्कि उसमें ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल सभी के रंग हैं.

संगीत के विधिवत प्रशिक्षण की बात करें तो, उन्होंने पहले तो अपने बड़े मामा उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफा ख़ान से सीखा, पर दस साल की उम्र में वे कलकत्ता के संगीत रिसर्च अकादमी में अपने नाना उस्ताद निसार हुसैन ख़ान के साथ आ गए, जो अकादमी में गुरु के रूप में नियुक्त हो कर आए थे. इन्हीं से उन्होंने गंडा बंधवाया था और उनके पास ही तालीम हासिल की थी. बहुत छोटी उम्र से ही वह मंच पर गाने लगे थे. संगीत रिसर्च अकादमी में उन्हें महज़ चौदह साल की उम्र में छात्रवृत्ति मिल गई थी और आगे की संगीत शिक्षा, अकादमी में ही हुई. यहां उन्हें अन्य घरानों के भी बड़े गुणी जनों को सुन-सुनकर आपकी कला को समृद्ध किया.

गायकी पर गुरु निसार हुसैन ख़ान साहब का प्रभाव होने के बावजूद भी राशिद उसमें अपना रंग, अपनी अदायगी लेकर आते थे. ख़याल गायकी को भी उन्होंने अपने रंग में ढाला. अपने गायन के संदर्भ में वह कहते थे,

‘हालांकि ख़याल गाते हुए मैं अपने गुरु द्वारा सिखाए गए तरीकों को ही अपनाता हूं. पर जब मैं गाता हूं तो अक्सर पहले आलाप से शुरू करता हूं और उसके बाद बंदिश उठाता हूं और पूरी प्रस्तुति के दौरान राग की मूलभूत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए उसके लय को सुनिश्चित करता हूं.’

अपनी बंदिशों की प्रस्तुतियों में लय के द्रुत और मद्धम करने की प्रक्रिया में ही वह भावों को सघन से सघनतम करते चलते हैं, जिसका सुनने वाले पर अपूर्व प्रभाव पड़ता है. यह प्रभाव सिर्फ बंदिश में निहित वेदना या विरह के भाव से नहीं उमड़ती बल्कि आलापों और तरानों के भावपूर्ण गायन से वह इस निर्वेद को लेकर आते थे. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में जहां तानों की वरीयता है,  ख़ान साहब अद्भुत पकड़ दिखलाते हैं.

इस संदर्भ में कवि आलोक श्रीवास्तव को दिए गए एक साक्षात्कार में वह कहते हैं कि कैसे तान, कलाकार की अपनी उपज है. बड़े सारे गायक अनुशासित रियाज से तान पर पकड़ ला पाते हैं, मतलब एक ही चीज को मांजे ,घिसे जा रहे हैं, तब जाकर उस पर पकड़ बनती है. पर उनका रियाज़ मानसिक था. वह रास्तों पर आते-जाते भी तरानों का अभ्यास करते जाते थे. वह कहा करते थे कि अपने जीवन के तकलीफ़ और दुख, सब उन्होंने अपने गाने में लगा दिए.

और देखा जाए तो उनकी यह बात एकदम सच लगती है वरना क्या वजह है कि उनके कंठ से निकली उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां साहब की बंदिश ‘याद पिया की आए, ये दुख सहा न जाए‘ इतना मार्मिक और विरह की आंच में तपी हुई लगती है.

गायन के लिए एक प्रमुख तत्व जिस पर उनकी आस्था सबसे अधिक थी वह थी संगीत के सुरों को साधने में लिए गया समय. वे मानते थे कि कैसे सुर को रोककर रियाज़ करना जरूरी है और उसमें किसी भी प्रकार की जल्दबाज़ी करने की ज़रूरत नहीं है. रियाज़ के वक़्त ईमानदारी होनी ज़रूरी है, क्योंकि वही आगे की गायकी के लिए रास्ता बनाती है. वह याद करते थे कि कैसे बचपन में महीनों जब सिर्फ ‘सा’ का अभ्यास सुबह उठते के साथ करना पड़ता था, तो बालमन को यह शक होता कि संगीत में सिर्फ यही एक सुर है.

उन्होंने बहुत सारे अन्य कलावंतों के साथ कई प्रसिद्ध जुगलबंदियां भी कीं. चाहे वह पंडित भीमसेन जोशी हों या विदुषी कौशिकी चक्रवर्ती या हिंदी फिल्मों की सुपरिचित गायिका रेखा भारद्वाज– उस्ताद राशिद ख़ान सहज ही उस गायक के विशिष्ट अंदाज के साथ संगत कर पाते थे.

इस संदर्भ में वे कहते थे कि कैसे किसी भी जुगलबंदी की सबसे बड़ी शर्त है कि साथ गाने वाले कलाकार की कला के लिए संवेदना महसूस की जाए. इसके लिए जरूरी है कि संगत करने वाले गायक की गायकी को समझा जाए और उसके प्रति सम्मान हो.

पंडित भीमसेन जोशी जी के साथ जिस तरह वह कई कठिन रागों की बंदिशों की जुगलबंदी करते हैं, वह दो भिन्न पीढ़ी की गायकी का अनोखा संगम लगता है. इसी प्रकार रेखा भारद्वाज या कौशिकी चक्रवर्ती के साथ ‘हमरी अटरिया पे’ की संगत हो या राहत फतेह अली खां के साथ ‘अलबेला साजन आयो रे’ की जुगलबंदी, सब अपने आप में लाजवाब और बेमिसाल प्रस्तुतियां हैं. उनके साथ हारमोनियम पर संगत करने वाले, उनकी गायकी के संदर्भ में कहा करते थे कि कैसे जब भी वह किसी मंच पर गाना शुरू करते थे, दो मिनटों के भीतर ही किसी ध्यानावस्था में मग्न साधक की तरह उस पूरे भीड़ से कहीं दूर लीन हो जाते थे. उनकी संगत करने वाले भी उनसे उनके गायन के समय ही बहुत कुछ सीखा करते थे.

उन्होंने कई फिल्मों में पार्श्वगायन किया, हालांकि संख्या में कम होने के बावजूद भी, अपनी विशिष्ट छाप वह सबमें छोड़ते हैं. बदायूं से ताल्लुक रखने वाले राशिद रवींद्र संगीत को भी अपनी विशिष्ट शैली में गाते थे. कलकत्ता में हुए संगीत प्रशिक्षण ने उनमें रवींद्र संगीत के प्रति एक स्वाभाविक रुझान लाया था, जिसकी परिणति रबीन्द्रनाथ टैगोर के गीतों के एक संकलन ‘बैठकी रबी’ के रूप में हुई. इनमें से कुछ गीत जैसे ‘राखो राखो रे’, ‘आजि झारेर राते’ बहुत लोकप्रिय हुए. टैगोर के गीतियों में निहित भावों को हृदयस्थ कर उसे अपनी गायकी के अंदाज़ में पिरो कर गाना उस्ताद राशिद ख़ान की बहुमुखी प्रतिभा की चंद निशानियां हैं.

शास्त्रीय संगीत के विस्तृत फलक पर हर प्रांत और क्षेत्र की अपनी विशिष्ट गायकी रही है और यह संगीत ही है जो 1947 के विभाजन के बावजूद भी अपनी शास्त्रीयता में विभाजित नहीं हुआ. चाहे वह पंजाब क्षेत्र के घराने हों या बंगाल के, अपनी सांगीतिक विरासत को सीमा के दोनों ही तरफ उसी अंदाज में ले कर बढ़े हैं.

उस्ताद राशिद ख़ान की गायकी शास्त्रीय संगीत की हमारी साझी विरासत के विविध रंगों की एक झलक भर है. पर एक वास्तविक कलाकार जिसका पूरा जीवन संगीत की साधना में बीता था, अपने जाने के बाद भी अपने लाखों-करोड़ों संगीत प्रेमियों के लिए संगीत की इतनी वैभवशाली विरासत छोड़कर गया है कि उनकी गायकी को सुनने से ही बहुत कुछ सीखा जा सकता है, उस विरासत को आगे बढ़ाया जा सकता है. वह गायकी वाक़ई सावन की तरह झूम कर हर युग में बरसती रहेगी और हम उसके रस से सराबोर होते रहेंगे.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)