तुलसी ने लिखा था ‘संत हृदय नवनीत समाना’, आज होते तो ‘संत हृदय बुलडोज़र समाना’ लिखना पड़ता

क्या हुआ जब राम स्वप्न में आए?

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अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का एक हिस्सा. (फोटो साभार: फेसबुक/@champatraiji)

क्या हुआ जब राम स्वप्न में आए?

अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का एक हिस्सा. (फोटो साभार: फेसबुक/@champatraiji)

रात सपने में रामजी ने दर्शन दिए. मैं डायरी में कुछ लिखने का कठिन प्रयास कर रहा था. एक हाथ में कलम थी और दूसरे में मैग्नीफाइंग ग्लास. अचानक लगा कि कमरा किसी दिव्य सुगंध से भर उठा है. सिर उठाया तो देखा कि रामचंद्र जी खड़े हैं मंद-मंद मुस्कुराते हुए. हाथ में धनुष, कंधे पर बाणों से भरा तूणीर और एक बाण धनुष की प्रत्यंचा पर भी चढ़ा हुआ. लेकिन मुखमंडल पर अपार स्नेह और कृपा की चांदनी छायी हुई थी. यह छवि उनकी उस युयुत्सु छवि से नितांत भिन्न थी, जिसका पिछले कई दशकों से प्रचार किया जा रहा है.

मैंने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया. रामचंद्र जी मुस्कुराए और किंचित हास्य-मिश्रित झिड़की के अंदाज़ में बोले, ‘वत्स, तुझे पता नहीं कि अर्धरात्रि बीत चुकी है. तिथि बदलकर 22 जनवरी हो गई है और तू अभी तक सोया हुआ है! अयोध्या नहीं जा रहा मेरे लिए बने भव्य मंदिर में स्थापित मेरे विग्रह में प्राण-प्रतिष्ठा करवाने?’

मैं बहुत सकुचाते हुए बोला, ‘प्रभु, इस अकिंचन की धृष्टता को क्षमा करें. आपने तो शीतलहर चला रखी है. अगर जाना चाहता, तब भी शायद न जा पाता. आप तो अंतर्यामी हैं. सब कुछ जानते हैं. फिर भक्त से ऐसी ठिठोली? आपका धीर-गंभीर रूप ही भक्तों को प्रिय है. महर्षि ने आपका कितना सुंदर चित्र खींचा है- ‘वज्रादपि कठोराणि, कुसुमादपि मृदूनि च’. लेकिन आज तो आपके भीतर से चंचल श्याम निकल आए हैं. यह क्या माया है, प्रभु?’

‘चित्त अशांत है, वत्स. इसीलिए चंचल है. मैं भी औरों की तरह ही मनुष्य की योनि में था और उसकी मर्यादा से बंधा था. मुझे भी सुख-दुख व्यापते थे. वन में कैसे-कैसे कष्ट नहीं झेले, जानकी के विरह में कैसी-कैसी हृदय-विदारक वेदना का अनुभव नहीं हुआ! अब फिर हो रहा है. ‘जय सियाराम’ के प्रेमपूर्ण अभिवादन और मंत्र में से सिया को निकालकर उसे ‘जय श्रीराम’ की ललकार और हुंकार में बदल दिया गया है. रावण भी मुझे सीता से अलग नहीं कर पाया था. लेकिन अपने को मेरा भक्त कहने वालों ने कर दिया. एक ओर मुझे ईश्वर का अवतार कहकर पूजते हैं. दूसरी ओर मेरे यानी ईश्वर के ‘लिए’ भव्य मंदिर बनाने का डंका भी पीटते हैं. तुम्हीं बताओ वत्स. ईश्वर मनुष्य के लिए कुछ करता है या मनुष्य ईश्वर के लिए? रामभक्ति के नाम पर दंभ, अहंकार और सत्ता का ऐसा प्रदर्शन!

एक मेरा भक्त तुलसी था. गणपति से बस इतना ही मांगा कि ‘बसहूं रामसिय मानस मोरे’. उसने ‘रामचरितमानस’ की रचना की लेकिन यह नहीं कहा कि मेरे लिए की है. उसने कहा ‘स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा’ का वाचन कर रहा है. एक बात समझ लो पुत्र. समस्त विश्व ने देखा कि मेरे बाणों ने रावण का संहार किया. लेकिन वह तो पहले ही अपने अहंकार, सत्ता से उपजी मदांधता और अमर्यादित आचरण के हाथों मारा जा चुका था. जिसमें भी ये प्रवृत्तियां होंगी, उसका सर्वनाश सुनिश्चित है. मेरी भक्ति का स्वांग रचने से क्या होता है? तुलसी ने एकदम सही कहा है-‘उघरै अंत न होई निबाहू, कालनेमि जिमि रावन राहू’. ढोंग अंतत: सबके सामने प्रकट हो ही जाता है. याद है, सीता का अपहरण करने के लिए रावण ने किसका भेस बनाया था? संन्यासी का. तुलसी ने लिखा था-‘संत हृदय नवनीत समाना’. आज वह होता तो उसे लिखना पड़ता -‘संत हृदय बुलडोज़र समाना’.

मैंने बहुत साहस करके प्रभु को बीच में ही टोका, ‘हे रामजी, पूरे देश में राम मंदिर लहर चल रही है. लोग दिन-रात आपका नाम ले रहे हैं. उन्हें इसका पुण्य तो मिलेगा ही न?’

‘क्या पुण्य मिलेगा? ईश्वर सबका माता-पिता है. मैंने क्या केवल हिंदुओं की ही सृष्टि की है? क्या मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी, नास्तिक आदि मेरी संतान नहीं हैं? कोई माता या पिता क्या कभी अपनी संतानों में भेदभाव कर सकता है? क्या उनके बीच लड़ाई-झगड़े से उसे ख़ुशी मिल सकती है? भक्ति का दिखावा करके शक्ति की साधना करने वाले कभी मेरे प्रिय नहीं हो सकते. तूने अच्छा किया कि अपनी रज़ाई में पड़े हुए कुमार गंधर्व का ‘तुलसीदास; एक दर्शन’ सुन्न रहा है.’

प्रभु की वाणी सुनकर मेरा चित्त प्रफुल्लित हो उठा. मैंने जयकारा लगा दिया, ‘बोल सियावर रामचंद्र की जय’. प्रभु, भक्तों का हृदय ही आपका सबसे भव्य मंदिर है. आप तो दुनिया को देते हैं. कोई आपको कुछ देने का अहंकार कैसे पाल सकता है? लेकिन यह कलयुग है. कुछ भी हो सकता है. मैं आपका आदेश कैसे टाल सकता हूं? और वह भी इस मौसम में? मेरी रज़ाई में लिपटे मेरे हृदय में ही आपका भव्यतम मंदिर है. फिर मुझे कहीं भी जाने की क्या ज़रूरत? श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन हरण भवभय दारुणम्.’

इतने में मेरी नींद टूट गई. रोज़ की तरह ही कानों में उस रिकॉर्ड की आवाज़ पड़ी जो चिल्ला-चिल्लाकर सूचित करता है कि हम कितने महान हैं क्योंकि हमने स्वच्छ रहने का फ़ैसला लिया है. रोज़ तो बहुत ग़ुस्सा आता था सुनकर. लेकिन आज नहीं आया. रामजी से बातें जो हो गई थीं.

(कुलदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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