राष्ट्र के नाम पत्र: हम पागलपन के बजाय विवेक को चुनें

क्या हमारे बच्चे ऐसे भारत में बड़े होंगे जहां धर्म हमारी सभी पहचानों, बातचीत, जीवन के नियमों को समाहित कर लेता है- दूसरों को कम मानवीय, दूसरे दर्जे के का बना देता है?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

क्या हमारे बच्चे ऐसे भारत में बड़े होंगे जहां धर्म हमारी सभी पहचानों, बातचीत, जीवन के नियमों को समाहित कर लेता है- दूसरों को कम मानवीय, दूसरे दर्जे के का बना देता है?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

प्रिय साथी भारतीयों,

भारत एक प्राचीन भूमि है, जो सभी दिशाओं से बहने वाली बारहमासी नदियों के जल से समृद्ध हुई है, जो अपने साथ एक महान सभ्यता के बीज लाती है. हजारों वर्षों से भारत ने दुनियाभर के सभी लोगों का स्वागत किया है और उन्हें घर जैसा महसूस कराया है.

हमारा यह घर हमेशा समावेशिता के लिए खड़ा रहा है और इसका लक्ष्य उच्च आध्यात्मिकता है, जो लोगों को शांति की जबरदस्त भावना के साथ उनकी रोजमर्रा की जिंदगी जीने में सक्षम बनाता है. हमारा सामाजिक ताना-बाना इसी सह-अस्तित्व से बना है. महान संतों ने कई महान कहानियां लिखी हैं, जो हमें सहस्राब्दियों तक प्रेरणा देती रहीं हैं. विभिन्न मान्यताएं, विचार प्रणालियां, अनुष्ठान, जीवन शैली एक साथ, पूर्ण सामंजस्य में एक-दूसरे के बगल में रहते हैं.

इसलिए आज जैसे दिन पर, जब राजनीतिक, सामाजिक, कानूनी सीमाओं से परे एक मंदिर को धुरी बनाकर एक धर्म को केंद्र में रखा गया है- हमें अपने भव्य अतीत और अपने अज्ञात भविष्य दोनों पर रुककर पुनर्विचार करने की जरूरत है.

क्या हमारे बच्चे ऐसे भारत में बड़े होंगे जहां धर्म हमारी सभी पहचानों, बातचीत, जीवन के नियमों को समाहित कर लेता है- दूसरों को कम मानवीय, दूसरे दर्जे के का बना देता है? हालांकि ऐसा लग सकता है कि भविष्य का यह वादा बहुसंख्यकों के लिए है, लेकिन अपने आप को मूर्ख न बनने दें क्योंकि जब धर्म सत्ता के साधन में बदल जाता है तो वह हमेशा केवल मुट्ठीभर लोगों का ही भला करता है.

जब भारत एक राष्ट्र-राज्य के रूप में उभरा, तो हमारे पूर्वजों ने सर्वोच्चता और वर्चस्व के लिए लड़ने वाले विचारों के बीच भारतीय जीवन के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ को चुना था. आरएसएस तब भी था, उसके समर्थक सभी महिलाओं और सभी जातियों के सदस्यों के लिए समान अधिकारों को मान्यता दिए बिना हिंदू राष्ट्र का आह्वान कर रहे थे. लेकिन आख़िरकार यह एक धर्मनिरपेक्ष, उदार, समावेशी भारत का विचार था, जिसने जीत हासिल की.

आज जब हम अयोध्या में राम मंदिर का जश्न मना रहे हैं, तो हमें यह पूछने की ज़रूरत है – क्या हम अपने गौरवशाली अतीत को धोखा दे रहे हैं? जानलेवा झूठ की कीमत पर आरामदायक जीवन के लिए नफरत और ‘मुसलमानों को अलग’ करने की अनुमति दे रहे हैं, ताकि हम अपने आप को उन लोगों से बचा सकें जिनके पास सत्ता है? यदि इसीलिए हम अंधे बने रहना चुनते हैं, तो याद रखें कि शक्ति का स्रोत है- ‘हम, लोग’ . और यह हम लोग  ही हैं, जो इस प्राचीन महान राष्ट्र की नियति का चुनेंगे. यदि हम अपने कामों को नजरअंदाज करना चुनते हैं और उनकी पूरी जिम्मेदारी नहीं लेते हैं तो न तो राम, न अल्लाह, यहां तक ​​कि ईसा मसीह भी हमें नहीं बचा सकते.

धर्म एक निजी मामला है. यही हमारे राष्ट्रीय चरित्र को परिभाषित करता है. यदि हम इसे अभी छोड़ना चुनते हैं, तो हम किसी भेड़ की तरह व्यवहार करेंगे, जो अलग-अलग मालिक, अलग-अलग वेशभूषा में, अपने सीमित छोटे, बुरे, क्रूर उद्देश्यों के लिए हमें लुभा सकते हैं. सरकार को सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना होगा. लोगों को ‘हम बनाम वे’ में बांटने पर आधारित राजनीति सबसे खराब किस्म की है.

हमें ऐसी राजनीति की ज़रूरत है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और शासन को प्राथमिकता दे. एक ऐसा राष्ट्र जहां कोई भी भूखा, बेघर और चिंतित न सोए – यही वह आदर्श  है जिसके लिए राजनेताओं को काम करना होगा.

सह-अस्तित्व ही एकमात्र कुंजी है, और प्रेम ही एकमात्र धागा है जो इसे बुन सकता है. हम पागलपन के बजाय विवेक को चुनें और ‘सभी के लिए प्यार’ हमारा गीत हो. जो लोग ऐसा करेंगे, इतिहास आपको याद रखेगा, भले ही आज आप अपने घरों में अल्पसंख्यक महसूस करते हों. सभी महान चीजें एक उम्मीद से शुरू होती हैं और यह एक ऐसी चीज है जिसका दामन हम छोड़ नहीं सकते. आज नहीं, कभी नहीं.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता और कांग्रेस पार्टी की सदस्य हैं.)