अभी हाल ही में देश के पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनावों में से तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी है. कांग्रेस द्वारा हिंदुत्व के मुद्दे पर भाजपा से प्रतिस्पर्धा की रणनीति ही उसके हार का मुख्य कारण है.
छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने वोटों के ध्रुवीकरण और सत्ता में वर्चस्व स्थापित करने के मकसद से धर्मांधता और सांप्रदायिकता का खेल उदार हिंदुत्व के एजेंडा के तहत खुलकर खेला है. ऐसी परिस्थिति में हिंदुत्व को लेकर कांग्रेस द्वारा भाजपा से होड़ लेने के निहितार्थ को हाशिये के समुदायों तथा उनके जन सरोकारों को केंद्र में रखते हुए एक विश्लेषण निहायत जरूरी हो जाता है.
पूर्ववर्ती कांग्रेस के कार्यकाल के मध्यांतर से ही पार्टी का सवर्ण एलिट खेमा राज्य में वर्णाश्रम अनुरूप मुख्यमंत्री बनाने की लॉबिंग में जुट गया था, जबकि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ में 2003 से 2018 तक 15 सालों तक लगातार सत्ता से दूर रहने और इस दौरान प्रदेश में बिखर चुकी पार्टी को नए सिरे से एकजुट और खड़ा करने का काम भूपेश बघेल के नेतृत्व में ही हुआ था.
काका और बाबा (कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को संबोधन के लिए लोकप्रिय नाम) के आधे-आधे मुख्यमंत्रित्व काल को लेकर और विधानसभा चुनाव के महज़ चंद महीनों पहले पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा उप-मुख्यमंत्री के रूप में टीएस सिंहदेव के ताजपोशी होने से जनता को यह आभास होने लगा कि छत्तीसगढ़ में शासन का शीर्ष नेतृत्व कहीं पिछड़े तबके के ठेठ छत्तीसगढ़िया के हाथों से फिसलकर राजशाही घराने के नियंत्रण में न आ जाए.
मसलन जनता द्वारा कांग्रेस को दोबारा चुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाने की यह भी एक मुख्य वजह है.
कांग्रेस के पांच सालों के उसके कार्यकाल का मुआयना किया जाए तो वह अपने ही दावों पर अंतर्विरोधों से घिरी हुई नजर आती है. गोठान एवं गोधन न्याय योजना के क्रियान्वयन की आड़ में हाशिये पर जीने को मजबूर भूमिहीन श्रमिकों को उनकी काबिज़ भूमि की मालिकी से हमेशा के लिए वंचित कर दिया गया. जबकि सदियों से भूमिहीन इन समुदायों को गांव में गोबर इकट्ठे करने के लिए प्रोत्साहित करने के बनिस्बत भूमि सुधार योजनाओं के तहत उनके जमीन के दावों पर स्वामित्व दिया जाना ज्यादा कारगर हो सकता था.
कांग्रेस ने अपने कार्यकाल के आखिरी तक जाति-जनगणना की घोषणा नहीं की. 2018 के घोषणा-पत्र के अनुरूप उसने ओबीसी वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा तो की, लेकिन इस आरक्षण के विरोध में हाईकोर्ट में 50 से अधिक दायर याचिकाओं के मामले में वह अपने फैसले पर ठहर नहीं सकी.
परिणामस्वरूप रामधुन में लीन होकर ओबीसी-किसान वर्ग कांग्रेस सरकार के समर्थन मूल्य पर धान खरीदी और प्रति एकड़ उपज मूल्य पर मिलने वाली बोनस को त्यागकर हिंदुत्व की ओर अग्रसर हो गया.
जब पूरा सरकारी अमला राम वनगमन पथ के शिलान्यास कार्यक्रमों तथा यात्राओं में मशगूल था, उस समय छत्तीसगढ़ का दलित इलाका जातीय दमन और सांप्रदायिक हिंसा के लपटों में जल रहा था.
रामायण-महोत्सव मंडली के सरकारी आयोजनों के बहाने जांजगीर-चांपा और सक्ती जिलों के पंचायतों में ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में दलितों को उनकी हैसियत याद दिलाई जा रही थी तथा महासमुंद में दलितों को सार्वजनिक तालाबों में निस्तार होने की मनाही और औकात में रहने के फरमान दीवारों पर लिखे जा रहे थे.
धरमपुरा में दलितों के श्रद्धा और आस्था स्थल जैतखाम को चुन-चुन कर आग के हवाले कर दिया गया. कबीरधाम में ध्वज फहराने का विवाद तथा जगदलपुर-बस्तर और लुंड्रा- सरगुजा में धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष रूप से लक्ष्य करते हुए उनके सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के प्रायोजित सामूहिक शपथ की घटनाओं के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी फैलाने की घटनाएं हों अथवा बीरेनपुर में धार्मिक-सांप्रदायिक दंगा पीड़ितों को पुनर्वास-राहत और क्षतिपूर्ति देने में धर्म के आधार पर सरकारी भेदभाव, इन सभी मामलों में संविधान और कानून का शासन स्थापित करने में कांग्रेस असफल साबित हुई है.
कांग्रेस के कार्यकाल में पेसा (पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार अधिनियम) कानून की आड़ लेकर गैर-हिंदू मतावलंबियों, विशेष तौर पर ईसाई आदिवासी अल्पसंख्यकों को उनके गांव-बसाहटों से बेदखली, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार तथा मसीही परिजनों के मृत शवों को दफनाने पर पाबंदी और प्रताड़ना की घटनाओं में इजाफा हुआ है.
आदिवासी पेनगुड़ियां, जहां मान्यता के अनुसार आदिवासियों के आराध्य प्रकृति-चिह्नों के रूप में परंपरागत रूप से निवास करते हैं, को कांग्रेसनीत सरकार द्वारा जीर्णोद्धार के नाम पर भारी तादाद में देवगुड़ी में बदल दिया गया है.
पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में साल 2012 के आरक्षण गाइडलाइन के अनुरूप 5वीं अनुसूची क्षेत्रों के रोजगार तथा सरकारी योजनाओं में स्थानीय आदिवासियों को मिलने वाली प्राथमिकता भी कांग्रेस के विगत कार्यकाल में बाधित हुई थी.
नतीजतन इस विधानसभा चुनाव में आदिवासी समुदाय बड़ी ही चतुराई के साथ कांग्रेस को अनिवार्य रूप से वोट करने की विवशता से बाहर निकल गया.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार को महज़ रणनीतिक चूक नहीं कहा जा सकता बल्कि भूपेश बघेल नेतृत्व को अपदस्थ करने के लिए परंपरागत रूप से समाज में दखल रखने वाले कई प्रभावी कारक पार्श्व में पूरे जोर के साथ सक्रिय थे.
चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने आतंरिक सर्वे का हवाला देकर पार्टी के जीते हुए विधायकों का टिकट काट दिया था. इस रणनीति के पीछे दलितों और ख़ास तौर पर आदिवासी नेतृत्व को छत्तीसगढ़ राज्य की राजनीति में हावी होने से रोकने के मकसद के अलावा कोई अन्य कारण नहीं जान पड़ता है.
बावजूद इसके चुनाव परिणामों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल सीटों में से अधिकतर में कांग्रेस को जीत मिली है, लेकिन कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे सतनामी समाज के प्रभावशाली गुरु वंशज रुद्र कुमार को दोहराया नहीं जाना एक अहम राजनीतिक परिघटना है, जो कि निःसंदेह दलितों के सामूहिक राजनीतिक चेतना के स्तर में बदलाव की ओर इशारा करता है.
इसके माध्यम से दलितों ने अपने समुदाय के प्रति हो रहे जातिगत जुल्मों और हकमारी के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाने वाले अपने जनप्रतिनिधियों के लिए एक साफ़ संदेश दिया है.
असल में कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व एक धूर्ततापूर्ण नाम है. हिंदुत्व, चाहे यह उदार हो अथवा अपने कट्टर रूप में हो, हमेशा से ही इसका मकसद राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणवादी जातीय वर्चस्व तथा उसके निर्वहन के आसपास केंद्रित होता है.
कांग्रेस सरकार द्वारा राम वनगमन पथ परियोजना के क्रियान्वयन का मकसद समाज में लोगों के बीच जातिगत और लैंगिक भूमिकाओं की जड़ों को और भी मज़बूत करना था. इसका क्रियान्वयन हिंदुत्व सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विस्तार के अलावा और कुछ भी नहीं था.
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चाहते थे कि रामायण एवं महाभारत जैसे हिंदू पौराणिक कथाओं पर टीवी श्रृंखलाओं का निर्माण हो और उसे प्रसारित किया जाए.
यह कहने की जरूरत नहीं है कि रामायण, रामकथा और इसका आयोजन दलित और आदिवासी समुदायों पर वर्चस्व के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल होता आया है. इस तरह के कार्यक्रम ब्राह्मणवादी नायकत्व को स्थापित करने के उद्देश्यपूर्ति में कारगर होते हैं.
समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. 2014 के आम चुनावों से पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) एक धर्मनिरपेक्ष और गैर-सांप्रदायिक मंच के रूप में सत्तारूढ़ हुआ था. तब उम्मीद थी कि यह गठबंधन धर्मनिरपेक्षता को बहाल करने के लिए कोई ठोस कदम उठाएगा, लेकिन उस गठबंधन ने ऐसा संभव करने की कोई कोशिश नहीं की.
अफ़सोस कि उस गठबंधन ने चुनावी जीत को धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के व्यापक जन समर्थन के रूप में निहित संदेश को दरकिनार करते हुए मात्र सत्ता हासिल करने तक के संकीर्ण दायरे में देखा. देश में प्रायोजित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद के माहौल में कांग्रेस का हिंदुत्व के होड़ में शामिल होने की विवशता ही भाजपा के लिए अमृतकाल साबित हुआ है.
(लेखक पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीए), छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष हैं)