मोहन भागवत ‘वोक पीपल’ और ‘वोक़िज़्म’ को लेकर इतना ग़ुस्से में क्यों है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘सांस्कृतिक मार्क्सवादी’ और ‘वोक पीपल’ (Woke People) को लेकर संघ सुप्रीमो की ललकार एक तरह से उत्पीड़ितों की दावेदारी और स्वतंत्र चिंतन के प्रति हिंदुत्व वर्चस्ववाद की बढ़ती बेचैनियों  को ही बेपर्द करती है.

साल 2022 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘सांस्कृतिक मार्क्सवादी’ और ‘वोक पीपल’ (Woke People) को लेकर संघ सुप्रीमो की ललकार एक तरह से उत्पीड़ितों की दावेदारी और स्वतंत्र चिंतन के प्रति हिंदुत्व वर्चस्ववाद की बढ़ती बेचैनियों  को ही बेपर्द करती है.

साल 2022 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

मुल्क की दारूल हुकूमत अर्थात राजधानी दिल्ली- आए दिन कुछ न कुछ सेमिनार, संगोष्ठियां, विचारोें के अनौपचारिक आदान-प्रदान की मौन गवाह बनी रहती है. आम तौर पर वह ख़बर भी नहीं बन पाते, अलबत्ता कुछ तबादले खयालात कभी-कभी सुर्खियां बन जाते हैं.

पिछले दिनों यहां के भव्य ताज एम्बेसेडर होटल में एक विचार-विमर्श चला, जो अलग कारणों से सुर्खियां बना. आयोजक के चलते और जिस मसले पर वहां गुफ्तगू चली उसे लेकर. दरअसल इसका आयोजन भारतीय जनता युवा मोर्चा ने किया था, जो आम तौर पर ऐसी बौद्धिक गतिविधियों के लिए जाना नहीं जाता है.

दूसरी अहम बात थी कि इस विचार-विमर्श में अमेरिका, जर्मनी और चंद अन्य पश्चिमी मुल्कों के कई अनुदारवादी, रूढ़िवादी विचारक, अकादमिशियन जुटे थे और भारत के शिक्षा संस्थानों से जुड़े कई अकादमिशियन भी थे. बातचीत किन मसलों पर चली इसके आधिकारिक विवरण उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना तो समाचार में सुनने को मिला है कि वहां ‘वोकवाद’ (Wokeism-वोक़िज़्म) पर भी बातचीत चली थी.

याद रहे ‘वोक’ जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जगा हुआ अर्थात जाग्रत’ वह लफ्ज़ इन दिनों ग्लोबल हो चला है- जिसके तहत पश्चिमी जगत के राजनेता समावेशिता के विचारों  का ‘वोक’ कहकर मज़ाक उड़ाते दिखते हैं, जिसके तहत जेंडर समानता और पर्यावरण की सुरक्षा की भी बात होती रहती है.

निश्चित ही 1978 में बने ‘भारतीय जनता युवा मोर्चा’ की ‘वोक़िज़्म’ को लेकर अचानक बढ़ी रुचि/संलग्नता की बात तुरंत किसी के समझ  में  नहीं आएगी. इसे यूं समझा जा सकता है कि यह युवा मोर्चा राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषंगिक संगठन है और अमेरिका तथा कुछ अन्य पश्चिमी मुल्कों के रूढ़िवादी तबकों में  इन दिनों  धूम मचाए इस शब्द और संकल्पना को लेकर संघ के सुप्रीमो अचानक उद्वेलित दिखते हैं.

इसी ‘वोकवाद’ और ‘वोक पीपल’ को लेकर अपनी आधिकारिक बेचैनियां संघ के सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत ने पिछली विजयादशमी की अपनी तकरीर में खुलकर प्रगट की थी. जानकार बताते हैं कि संघ सुप्रीमो का यह सालाना भाषण इस स्वयंभू सांस्कृतिक जमात को और उससे जुड़े आनुषंगिक संगठनों  तथा उनमें सक्रिय हजारों  कारिंदों के लिए एक किस्म की रूपरेखा पेश करता है.

अपने इस भाषण में उन्होंने ‘सांस्कृतिक मार्क्सवादियों  अर्थात ‘वोक पीपल अर्थात वोक जनता’’ को देश की ‘धोखेबाज और विनाशकारी ताकतों ‘ के रूप में पेश किया था. एक तरफ ‘भारत ने जो प्रगति की हैउसके बरअक्स इन ताकतों को  खड़ा करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘यह ताकतें किसी विचारधारा का मुखौटा पहनी रहती है और किसी महान उद्देश्य के लिए सक्रिय रहने का दावा करती हैं, लेकिन उनका मकसद अलग होता है. यह विनाशकारी या सभी को नष्ट करने वाली ताकतें अपने आप को  सांस्कृतिक मार्क्सवादी या वोक कहती हैं, उनकी कार्यप्रणाली में  शामिल होता है मीडिया और अकादमिक जगत पर नियंत्रण कायम करना और संस्कृति , शिक्षा, राजनीति और सामाजिक पर्यावरण को दिग्भ्रम, अराजकता और भ्रष्टाचार की स्थिति में डाल देना.

उनके हिसाब से यही वह लोग हैं, जो ‘भारतीय लोकाचार/जातीय संस्कार’ को बर्बाद कर रहे हैं. शिक्षा, संस्कृति  को भी कमजोर कर रहे हैं, विवादों को बढ़ावा दे रहे हैं और सामाजिक एकजुटता को बिखेर रहे है.

वैसे ‘वोक’ लोगों को लेकर मोहन भागवत की बेचैनियां भले ही कुछ माह पहले प्रगट हुई हों, लेकिन बारीकी से पड़ताल करने पर पता चलता है कि संघ में आंतरिक चर्चाओं में इस शब्द, इस संकल्पना पर काफी समय से विचार चल रहा है.

डेढ़ साल पहले दिल्ली में एक किताब के विमोचन का कार्यकम हुआ था, जिस कार्यक्रम में  हिंदुत्व परिवार के बड़े-बड़े अग्रणी शामिल थे, उस दौरान भी ‘वोकवाद’ के मसले पर बात चली थी. संघ में भागवत के बाद के पद पर विराजमान समझे जाने वाले दत्तात्राय होसबोले, सुधांशु त्रिवेदी, स्वपन दासगुप्ता जैसे हिंदुत्व के कई मान्यवर इस विमोचन कार्यक्रम में शामिल थे.

किताब का शीर्षक था ‘स्नेक्स इन इंडिया: ब्रेकिंग इंडिया 2.0’ और उसका फोकस ‘एक नई विचारधारा के तहत एक वैश्विक मशीनरी द्वारा भारत की एकता के खिलाफ जारी सघन युद्ध’(intense warfare against India’s integrity is the work of a well-orchestrated global machinery driven by a new ideology)  पर था. किताब वोकवाद की भी चर्चा करती है और इस बात का उल्लेख करती है कि किस तरह ‘वोकवाद भारत सरकार की कई नीतियों में पहुंच चुका है. मिसाल के तौर पर, नई शिक्षा नीति 2020 हार्वर्ड के लिबरल आर्टस का प्रचार करती है.’

किताब अन्य तमाम बातों के अलावा अग्रणी लिबरल आर्टस और साइंस यूनिवर्सिटी अशोका पर भी संगठित हमला करती है और यह आरोप लगाती है कि वह किस तरह ‘वोकवाद को बढ़ावा दे रही है.’

किताब के लेखक भारतीय मूल के अमेरिकी राजीव मल्होत्रा की हिंदुत्व परिवार से नजदीकी एक खुला रहस्य है, जिसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि उन्हें वर्ष 2018 में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी ने ऑनररी विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त किया (2018) उनके बयान और उनकी लिखी किताबों को लेकर तमाम विवाद चलते रहते हैं, एक प्रोफेसर ने तो बाकायदा इन पर साहित्यिक चोरी के भी आरोप लगाए है.

किताब की सहलेखक विजया विश्वनाथन, मल्होत्रा द्वारा स्थापित इनफिनिटी फाउंडेशन से जुड़ी है.

‘वोकवाद’ को लेकर मोहन भागवत का गुस्सा और हिंदुत्व वर्चस्ववादी जमातों के बीच उठती सरगर्मी के मद्देनजर अगर हम पश्चिम के बौद्धिक-राजनीतिक दायरे की तरफ निगाह डालें, तो पता चलता है कि इस विचार को- अमेरिका के रास्ते या पश्चिम में पैदा बातों के जरिये हूबहू आयातित किया जा रहा है.

अपने आपको ‘राष्ट्र्रवादी’ कहलाने वाले, इस जमीन की परंपरा, संस्कृति  की आए दिन दुहाई देने वाले ‘सांस्कृतिक संगठन’ संघ का पश्चिम के अनुदारवादी तबकों में इन दिनों उछाले जा रहे इस शब्द तथा संकल्पना को लेकर इस कदर उद्वेलित होना, गुस्सा प्रगट करना, आम जनों के लिए आकलन से परे जान पड़ सकता है.

लोग इस बात पर भी हैरान हो सकते हैं कि ‘वोक पीपल’, ‘वोक़िज़्म’ को लेकर जनाब मोहन भागवत अमेरिका के कई विवादास्पद राजनेताओं की पंक्ति में खड़े दिखते हैं, फिर चाहे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप- जो इन दिनों भ्रष्टाचार के तमाम मामलों का अदालत में सामना कर रहे हैं या अपनी पूर्व महिला सहयोगी की यौन प्रताड़ना करने तथा इस मामले को लंबे समय तक दबाने के लिए अदालत द्वारा दंडित किए गए हैं या रिपब्लिकन पार्टी के भारतीय मूल के लीडर विवेक रामस्वामी हों और एक अन्य नेता डे सान्तिस हों- जो फिलवक्त़ फ्लोरिडा के गवर्नर के तौर पर विराजमान हैं.

जानकार बताते हैं कि ट्रंप और उनके ऊपरोल्लखित सहयोगियों की ‘वोकवाद’ को लेकर बेचैनियां जहां अमेरिका में हुए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के पहले से ही रफ्ता-रफ्ता उभार पर रही हैं.

आखिर यह ‘वोक’ या ‘वोकवाद’ क्या बला है, जिसे लेकर जनाब भागवत की त्यौरियां चढ़ी हुई है ?

दरअसल ‘वोक’/Woke का खयाल, जाग्रत होने से है- अमेरिका में  खासकर लंबे समय से नस्लीय भेदभाव और अन्याय-अत्याचार झेल रहे अश्वेत समुदाय में आ रही जागरूकता के संदर्भ में  इसका प्रयोग होने लगा, अश्वेतों के अग्रणियों ने उनसे यही सवाल पूछा तुम लगे जगे तो हो न (वोक)- जब जब उन्हें पुलिसिया अत्याचार की घटनाओं  का या भीड़ द्वारा हत्याओं का सामना करना पड़ा और यह लब्ज ‘वोक’ एक तरह से अश्वेत शब्दसंग्रह में अधिक प्रमुखता से उभरा.

आज की तारीख में ‘वोक’ का मतलब अधिक व्यापक हो चला है, अगर हम अंग्रेजी शब्दकोश को पलटें, तो वह बता सकता है कि ‘वोक’ का मतलब है ‘संस्थागत अन्यायों और पूर्वाग्रहों के प्रति अपनी संवेदनशीलता को प्रकट करने के लिए उदार प्रगतिशील विचारधारा और नीति की हिमायत करना’ (‘promotion of liberal progressive ideology and policy as an expression of sensitivity to systemic injustices and prejudices) हम यह भी पाते हैं कि पर्यावरण के प्रति जागरूकता का पहलू भी इसमें जुड़ गया है.

गौरतलब है कि ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन और अश्वेतों के बीच बढ़ती अधिक दावेदारी की भावना से घबराए वर्चस्वशाली तबकों ने फिर इस शब्द को एक नकारात्मकता के साथ उल्लेख करना शुरू किया है.

कुछ माह पहले ‘सलोन’ (salon.com) नामक एक प्रसिद्ध अमेरिकी डिजिटल पत्रिका- जो एक तरह से प्रगतिशील पत्राकारिता की एक मिसाल है, में बाकायदा एक लेख ही छपा था जिसमें ‘वोक’ को लेकर दक्षिणपंथियोें में फैले इसी ‘आतंक’ पर फोकस किया गया था.

लेख का शीर्षक भी आकर्षित करने वाला था ‘आखिर दक्षिणपंथ ‘वोक’ से इतना आतंकित क्यों है, दरअसल ऐसी सच्चाइयां है जिनका वह सामना भी नहीं कर सकता’.

लेख का उपशीर्षक है कि ‘रूढ़िवादी श्वेत विशेषाधिकार की बात सुनना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने सच्चाई को त्यागा और नारंगी आदमी के संप्रदाय में जुड़ गए’ (Conservatives didn’t want to hear about white privilege. So they abandoned reality and joined the orange man’s cult) यहां नारंगी आदमी से डोनाल्ड ट्रंप  की तरफ संकेत है, जिनकी त्वचा थोड़ी अलग रंग की है.

आलेख में कीर्क स्वेयरिंगइन बताते हैं कि किस तरह आज ‘वोक’ के खिलाफ संघर्ष दक्षिणपंथ के उन संघर्षों से जुड़ गया है, एक किस्म का ऐसा संघर्ष जो

‘… उसके अस्तित्व से जुड़ा है ताकि लोग जाग्रत न हों- उपन्यास पढ़कर और इतिहास को जानकर, नाटकों को देखकर या समाचारों को देख या सुनकर – विशेषाधिकार को लेकर या व्यवस्थागत नस्लवाद के बारे में खुली चर्चाओं मेंं शामिल होकर या अगर एक अलग अलबत्ता जुड़ा हुआ शब्द इस्तेमाल करें तो, अमेरिका में जाति में अंतर्निहित और लगभग अदृश्य संरचनाओं के बारे में बात करके. यह संघर्ष है कि लोग इन सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ बात न करें, या किस तरह धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक विचारधारा का संयोग सक्रिय है ताकि स्त्रियों की शारीरिक स्वायत्तता की बातें दबा दी जाएं. यह संघर्ष है युवाओं को अपने यौनिक और जेंडर आग्रहों  को अभिव्यक्त करने से रोकने के लिए, यह संघर्ष है खास किस्म के नागरिकों को वोट देने से वंचित करने के लिए और ऐसी किताबों को सार्वजनिक पुस्तकालयों और पब्लिक स्कूलों से दूर करने के लिए जो किताबें अत्यधिक पाखंडी और बंद दिमागी का प्रतीक बने ईसाई पादरियों को विचलित कर दें .

(... is an existential battle against allowing people to be awakened — by reading novels and history, by attending plays, by watching and listening to actual news — through open discussion of privilege or systemic racism or, to use a different but related term, the underlying and nearly invisible structures of caste in America. It is a fight to stop people from talking about those social structures, or about the combination of religious zealotry and political ideology at work to foreclose women’s bodily autonomy. It’s a fight to prevent young people from expressing their sexual and gender preferences, to make it more difficult for certain groups of citizens to vote, and to keep books that might make the most hypocritical and closed-minded evangelical Christian pastors uncomfortable off the shelves of public schools and libraries…)

‘वोक संस्कृति’ को लेकर अनुदारवादी तबकों, रूढ़िवादी खेमों में व्याप्त डर- महज जबानी जमाखर्च तक सीमित नहीं है. किताबों पर बढ़ती पाबंदी इसी का सीधा परिणाम नज़र आता है.

पेन अमेरिका (Pen America), जो एक गैर-लाभकारी संस्था है, जो पब्लिक स्कूल कक्षाओं और पुस्तकालयों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करती है, बताती है कि वर्ष 2022-23 में पुस्तकों पर पाबंदी के 3,362 मामले सामने आए और इस तरह विगत साल की तुलना में इनमें 33 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई.

गौरतलब है इनमें से अधिकतर घटनाएं फ्लोरिडा और टेक्सास जैसे (रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य/गवर्ननर द्वारा संचालित) राज्यों में सामने आईं, जिन्होंने पुस्तकों पर पाबंदी का इस आधार पर समर्थन किया क्योंकि वह उनके हिसाब से ‘वोक विचारधारा’ की चुनौती का जवाब है. जाहिर है जिन किताबों पर पाबंदी लगी, उनमें  विषय थे ‘स्त्रियां, एलजीबीटी समुदाय और कलर्ड समुदाय के सदस्य आदि.

‘अमेरिकी शिक्षा मे ‘काबू से बाहर हो चुके ‘वोकनेस’ को लेकर अमेरिकी दक्षिणपंथ में एक व्यापक तैयारी हो रही है.’

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जनाब मोहन भागवत और हिंदुत्व वर्चस्ववादी आंदोलन से जुड़े उनके तमाम सहयोगियों  की ‘वोक’ के बारे में चिंताओं की जड़ अब आसानी से समझी जा सकती है और यह भी समझा जा सकता है कि अपने आप को चरित्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध समझे जाने वाले संघ परिवार के लिए डोनाल्ड ट्रंप जैसे भ्रष्ट और बेईमान व्यक्ति- जिस पर एक जमाने की अपनी सहयोगी से यौन अत्याचार के आरोप प्रमाणित हो चुके हैं और जो आए दिन स्त्रीविरोधी या तर्कविरोधी बातें करने के लिए कुख्यात है- और उसकी पार्टी के वरिष्ठ सहयोगियों के साथ कमसे कम विचारों के स्तर पर खड़े होने से क्यों गुरेज नहीं है.

मालूम हो आज की तारीख में अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी- अश्वेतविरोधी मानी जाती रही है या उन्हें एफर्मेटिव एक्शन के जरिये विशेष अवसर प्रदान करने के खिलाफ रहते आई है. और दलितों तथा सामाजिक उत्पीड़ितों को विशेष अवसर प्रदान किए जाने चाहिए, इसके बारे में खुद राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके अग्रणी या उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों  का रिकाॅर्ड कतई अच्छा नहीं है.

फिलवक्त़ इस बात पर अधिक चर्चा करना मौजूं नहीं होगा, लेकिन इस बात पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि किस तरह दलितों, पिछड़ों, स्त्रियों को सदियों से चले आ रहे शोषण, उत्पीड़न से मुक्त करने के इरादे से नवस्वाधीन भारत में संविधान निर्माण का काम शुरू हुआ, तब संघ के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर और उनके सहयोगियों ने उसका विरोध किया था और मनुस्मृति को ही भारत का संविधान बनाने की या उससे दिशानिर्देशित होने की बात की थी.

इतना ही नहीं जब डॉ. आंबेडकर की पहल पर ‘हिंदू कोड बिल’ के जरिये हिंदू स्त्रियों को संपत्ति में अधिकार देने, बहुविवाह पर रोक लगाने की बात चली तब न केवल धार्मिक सनातनी ताकतों ने इसका विरोध किया था, राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने भी डॉ. आंबेडकर के आवास पर प्रदर्शन किए थे.

2015 में बिहार विधानसभा के चुनावों के पहले आरक्षण की समीक्षा की बात कर, खुद मोहन भागवत अपने आरक्षण विरोधी मानस का परिचय भी दे चुके हैं, जिसका राजनीतिक स्तर पर खामियाजा भी भाजपा को झेलना पड़ा था.

अंत में, ‘वोक पीपल’ अर्थात वोक जनता और ‘वोकिज़म/वोकवाद को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अग्रणियों की बेचैनियां तमाम सवाल खड़ी करती है.

सबसे अहम बात है कि कितनी आसानी से वह पश्चिम जगत में उपजी अवधारणाओं लपककर अपना रहे हैं. यह वही संघ है, जो आए दिन अपनी देशज जड़ों का ढिंढोरा पीटता है, अपनी संस्कृति, सभ्यता का गुणगान करता है और वामपंथियों की इस बात के लिए आलोचना करता है कि वह ‘पश्चिमी विचारों’ को अपनाए हुए हैं.

दरअसल राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ की लगभग सौ साल पूरी हो चुकी यात्रा की विवेचना करेंगे तो उनकी कथनी और करनी में इसी तरह जबरदस्त अंतराल दिख सकता है. ‘पश्चिमी विचारों’ के प्रति उनकी ऊपरी दूरी और वास्तविकता में उन्हें अपनाने के मामले में तो उसने रिकॉर्ड कायम किए हैं. उनका सौ साला इतिहास में ऐसे कई मसले मिलते हैं जब पश्चिमी विचारों/अवधारणाओं को संघ ने बेझिझक अपनाया और उसकी चर्चा तक नहीं की.

पहला मुक़ाम कहा जा सकता है हिंदू राष्ट्र की उनकी संकल्पना के निर्माण में औपनिवेशिक विचारकों  से ‘प्रेरित’ होने का प्रसंग- ब्रिटिशों के भारत आगमन के बाद एक ब्रिटिश विद्वान जेम्स मिल ने भारत पहुंच रहे ब्रिटिश कर्मचारियों के लिए- ताकि वह भारत के ‘इतिहास’ से वाकिफ हो जाएं, एक किताब लिखी थी. अपनी इसी किताब में उन्होंने ब्रिटिशपूर्व दौर से लेकर ब्रिटिश आगमन तक के भारत का तीन हिस्से में बांटा ‘हिंदू कालखंड’, ‘मुस्लिम कालखंड और ब्रिटिश कालखंड’ तक का बंटवारा किया था, एक तरह से तथ्य के तौर पर यह गलत था, लेकिन इसे अपनाने में उन्हें  कोई संकोच नहीं हुआ.

दूसरा, नाज़ीवाद और फासीवाद जैसे मानवद्रोही प्रयासों के बारे में.

मालूम हो कि इन जैसी मानवद्रोही धारणाएं और उनके नेतृत्व में चले प्रयोगों की उनके द्वारा की गई तारीफ को देखें या उनके ‘समाधानों- को सही मानना देखें- उन मुल्कों में नस्लीय संहारे को दिए अंजाम को देखें- हम इस बात के लिखित प्रमाण पाते हैं कि पूर्व के उनके सुप्रीमो किस तरह ऐसे प्रयोगों से सीखने की बात करते मिलते थे.

तीसरा, वोकवाद , पश्चिमी जगत मेें निर्मित तीसरी संकल्पना है, जिसे संघ परिवार ने अब अपनाया है.

क्या कहा जा सकता है कि वोकवाद उसके लिए एक ऐसा अवसर प्रदान करता है जिसके तहत हिंदू एकता की अपनी बातों को वह अधिक साफ-सुथरे रूप में/सैनिटाइज्ड तरीके से पेश कर सकता है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिंदू समाज ने अपनी आंतरिक विसंगतियों पर कभी खुद उंगली रखने की कोशिश नहीं की है, इसके लिए उसने हमेशा बाहरी तत्वों का जिम्मेदार ठहराया है.

निश्चित संघ के विचारक संघ के विश्व नज़रिये में दिख रहे तमाम अंतर्विरोधों को कभी समेटने की कोशिश नहीं करते और न इस बात की चर्चा करेंगे.

हक़ीकत में वह उन तमाम ऐतिहासिक अपमानों को भुला देने की या उन्हें आम शिकायतों के साथ घालमेल करने की बात करते हैं. ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, खासकर तबसे जबसे भाजपा केंद्र में आई है , वहां एक सचेत प्रयास दिखता है कि जातिगत विभेद को नकारा जाए और उसे अपराध के अन्य मामलों के साथ जोड़ा जाए. ऐसे उदाहरण भी हैं कि डीरिजर्वेशन की बात भी की रही है. इतना ही नही ‘ऊंची’ जातियों को भी आरक्षण देने की कवायद जारी है और इस तरह ऐतिहासिक दरारों का ऊपरी तौर पर ढंक दिया जा रहा है.

स्वतंत्र चिंतन और प्रगतिशील राजनीति पर ‘वोकवाद’ पर हमला एक तरह से संघ, भाजपा और उनसे जुड़े संगठनों की कार्यप्रणाली के साथ मेल खाता दिखता है. ऐसी ताकतें जो औपचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक, समाजवादी और संप्रभु भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना चाहती है, उन्हें भी हर दूसरा विचार विचारद्रोह ही लगती है.

यह भी कहा जा सकता है कि जितनी तेजी से टुकड़े-टुकड़े गैंग या अर्बन नक्सल जैसे लफ्ज़- जिन्हें खुद हिंदुत्व की टोल गिरोहों ने गढ़ा था– अब चुकते दिख रहे हैं,  इस पृष्ठभूमि में ‘वोकवादी’ और ‘वोक जनता’ जैसे लफ्ज़ अधिक सेनिटाइज्ड लग सकते है.

ताज एम्बेसेडर होटल में युवा मोर्चा के कारिंदों और रूढ़िवादी बुद्धिजीवियों का समागम समाप्त हो चुका है, सब अपने अपने घर लौट गए हैं, लेकिन इसने प्रगतिशील और उदार तबकों के सामने एक नई चुनौती भी पेश की है कि वह किस हद तक तैयार है विचारों और कार्रवाई के क्षेत्र में नई जमीन तोड़ने के लिए.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)

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