समस्या सड़क पर नमाज़ पढ़ने में नहीं, उसे देखने के तरीके में है

क्या वाकई सड़कों पर सभी प्रकार के धार्मिक आयोजनों पर रोक लगा सकते हैं? तब तो बीस मिनट की नमाज़ से ज़्यादा हिंदुओं के सैकड़ों धार्मिक आयोजन प्रभावित होने लग जाएंगे, जो कई दिनों तक चलते हैं. बैन करने की हूक सड़कों के प्रबंधन बेहतर करने की नहीं है, एक समुदाय के प्रति कुंठा और ज़हर उगलने की ज़िद है.

दिल्ली के इंद्रलोक में नमाज़ियों से बदसलूकी करते दिल्ली पुलिस के एसआई. (स्क्रीनग्रैब साभार: सोशल मीडिया)

क्या वाकई सड़कों पर सभी प्रकार के धार्मिक आयोजनों पर रोक लगा सकते हैं? तब तो बीस मिनट की नमाज़ से ज़्यादा हिंदुओं के सैकड़ों धार्मिक आयोजन प्रभावित होने लग जाएंगे, जो कई दिनों तक चलते हैं. बैन करने की हूक सड़कों के प्रबंधन बेहतर करने की नहीं है, एक समुदाय के प्रति कुंठा और ज़हर उगलने की ज़िद है.

दिल्ली के इंद्रलोक में नमाज़ियों से बदसलूकी करते दिल्ली पुलिस के एसआई. (स्क्रीनग्रैब साभार: सोशल मीडिया)

क्या भारत में सड़क पर धार्मिक आयोजनों को बंद किया जा सकता है? क्या सभी धर्मों के आयोजन पर इस तरह के किसी कानून को एक साथ और बराबरी से लागू किया जा सकता है? इस सवाल का एक जवाब नहीं हो सकता है लेकिन इस सवाल की उग्रता के समय को हम पहचान ज़रूर सकते हैं. सड़कों पर आंदोलन से लेकर नमाज़ पढ़ने के विरोध के पीछे के स्वरों को हमें ठीक से सुनना चाहिए. यह भी देखना चाहिए कि पिछले दस साल में सड़क से जुड़ा राजनीतिक मुद्दा कितना बदल गया.

टोल टैक्स से लेकर ख़राब सड़कों पर जितनी बात नहीं होती है, उससे ज़्यादा इस पर हुई है कि सड़क पर नमाज़ क्यों पढ़ी जा रही है. नमाज़ के समय ही सड़क के इस्तेमाल का सवाल क्यों उग्र होता है?

सड़कों को लेकर राजनीति होती रही है लेकिन सांप्रदायिक राजनीति के हिसाब से सड़कों की राजनीति की प्रवृत्ति अलग है. सड़कों से किस तरह के लोगों को हटाया जाए, उन्हें एक्सेस नहीं दिया जाए, यह फ़ैसला राजनीति से भी तय होता है और क्लास के पावर से भी. सुपर एक्सप्रेसवे बनाने के लिए किसानों की ज़मीन ली जाती है मगर जब एक्सप्रेसवे तैयार होता है तब बैलगाड़ी से लेकर मोटरबाइक को जगह नहीं दी जाती है. बिल्कुल ठीक है कि सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से आती कार के बीच बाइक चलाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती लेकिन बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, बाइक और साइकिल के लिए लेन क्यों नहीं बनाई गई. लिहाज़ा, दुपहिया वाहन चालकों पर जुर्माना लगता है. दुर्घटनाएं होती हैं.

उसी तरह शहरों के भीतर सड़कों से फ़ुटपाथ ग़ायब हो गए. पैदल चलने वालों का अधिकार ख़त्म कर दिया गया और इसी दिल्ली में लाखों साइकिल वालों के लिए कोई लेन नहीं है. यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं ताकि दिखा सकूं कि सड़क इतनी भी सार्वजनिक और लोकतांत्रिक स्पेस नहीं है.

भारत में सड़कों पर एक ख़ास वर्ग का दबदबा रहा है, जिसे हम आम तौर पर कार वाला क्लास कहते हैं. दिल्ली जैसी राजधानी में एंबुलेंस के लिए रास्ता देने के लिए कितना लंबा अभियान चलाया गया, इसमें सुधार तो हुआ है मगर आज भी लोग एंबुलेंस को रास्ता देना भूल जाते हैं. प्रधानमंत्री के काफिले में एंबुलेंस को रास्ता देकर कितना प्रचार होता जैसे एहसान कर दिया गया जबकि यह तो स्वाभाविक रूप से होना ही चाहिए कि किसी का भी काफिला हो, एंबुलेंस को रास्ता सबसे पहले मिलेगा.

भारत में सड़कों का लोकतांत्रिकरण बेहद संकुचित अर्थों में हुआ है. अगर आप केवल निर्बाध यातायात के स्पेस के रूप में भी देखें, तो इसमें भी घोर बेईमानी नज़र आएगी. वैसे यह समझना होगा कि सड़कों का इस्तेमाल केवल दफ़्तर और अस्पताल जाने के लिए नहीं होता है. इसका इस्तेमाल सौ प्रकार की लोकतांत्रिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए भी होता है और होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो हो सके इसके लिए कई घंटे तक किसी शहर में सड़क को बंद कर दिया जाता है. राहुल गांधी का रोड शो चल रहा है. उसके लिए भी रूट की योजना बनती है और सड़क बंद की जाती है. रोड शो आज की राजनीति का अहम हिस्सा बन चुका है. चुनावी रैलियों के समय देश भर में सड़कों का इस्तेमाल और उनका प्रबंधन पूरी तरह बदल जाता है. दो महीने तक कई राज्यों में कई सड़कें रैलियों के कारण प्रभावित रहेंगी. बंद भी होंगी और रूट का डायवर्जन भी होगा.

जिस तरह से सड़क पर नमाज़ पढ़ने को लेकर बेचैनी हो रही है, क्या तब होती है जब प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी के रोड शो के लिए किसी सड़क को घंटों बंद किया जाता है. नमाज़ केवल बीस मिनट की होती है. बहुत से बहुत तीस-चालीस मिनट के लिए सड़क का एक हिस्सा बंद किया जाता होगा. उसी तरह लोग गंगा स्नान करने के लिए सड़क का इस्तेमाल करेंगे और किसी पारंपरिक मेले में जाने के लिए पैदल चल कर ही जाएंगे. किसान तो नमाज़ नहीं पढ़ रहे थे, फिर उन्हें रोकने के लिए हफ्तों तक सड़क को पूर्ण रूप से क्यों बंद किया गया?

नवंबर 2020 से लेकर नवंबर 2021 तक दिल्ली की सीमा बंद कर दी गई. क्योंकि किसानों को दिल्ली आने से रोकना था. किसानों को रोकने के लिए सरकार ने सड़कों को कितना नुकसान पहुंचाया है. अपनी ही बनाई हुई सड़क में गड्ढे खोदने से लेकर सीमेंट की दीवारें बनाने लग गई. क्या ऐसा करने से लोगों को दिक्कतें नहीं हुई? महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के लिए कितना लंबा मार्च निकला, मगर उसके लिए सड़क में गड्ढे नहीं खोदे गए. कीलें नहीं गाड़ी गई थीं. मगर किसानो के साथ ऐसा किया गया.

अगर सभी के लिए सड़कों के धार्मिक और राजनीतिक इस्तेमाल पर एक सिरे से रोक लग जाएगी तो क्या सरकार अपने हिसाब से राजनीति कर पाएगी? बताने का मकसद है कि सड़कों को लेकर राजनीति करने का अधिकार जब सरकार रख सकती है तो जनता के पास क्यों नहीं होना चाहिए?

सड़क किसके लिए बंद होगी, इसका कोई एक पैमाना नहीं हो सकता है. धर्म के आधार पर भी इसे लागू नहीं कर सकते और राजनीति के आधार पर भी नहीं. अगर धर्म के आधार पर सड़कों पर कोई रुकावट नहीं आ सकती तो फिर राजनीतिक रैलियों के लिए कैसे बंद करेंगे? इसलिए संविधान के चंद प्रावधानों और नागरिक समाज की दिक्कतों की आड़ में सड़क पर सभी धर्मों के कार्यक्रमों पर रोक लगाने की मांग को समझने की ज़रूरत है.

मूल बात है कि चाहे मुसलमान हो या किसान या फिर कोई नागरिक संगठन, सत्ता पक्ष के समर्थक नहीं चाहते हैं कि सड़कों का लोकतांत्रिक इस्तेमाल हो. यह जो अचानक सड़क को लेकर जागरूकता आई है, उसके पीछे की सांप्रदायिक और अलोकतांत्रिक राजनीतिक सोच को ठीक से देखा जाना चाहिए.

दिल्ली पुलिस के अफसर मनोज कुमार तोमर ने सजदे में झुके नमाज़ियों को लात मारी. यह प्रशासनिक दायित्व के तहत किया गया कार्य नहीं था, जिसे करने में चूक हो गई या ज़्यादती हो गई. सजदे में झुके व्यक्ति को पीछे से लात मारना उस सोच की कोख से जन्मा है जो मुसलमानों को लेकर दिन-रात फैलाई जाती है. दिल्ली पुलिस ने लात मारने या थप्पड़ मारने के कारण ही मनोज कुमार तोमर के ख़िलाफ़ एक्शन नहीं लिया होगा. कई लोगों ने इस पहलू को समझा है और निंदा की है मगर कई लोग अब भी मासूम बन रहे हैं. वे मनोज कुमार तोमर को ग़लत बोलकर तुरंत सड़क पर नमाज़ पढ़ने के सवाल पर आ जाते हैं जैसे तोमर ने जो किया वो इसी ग़लती के कारण किया. यानी ग़लती पहले मुसलमान कर चुके थे, उसे ठीक करने के लिए मनोज कुमार तोमर ने लात चला दी. कई लोग लेक्चर दे रहे हैं कि सड़क पर नमाज़ क्यों पढ़ी जा रही है?

क्या वाकई आप एक साथ सड़कों पर सभी प्रकार के धार्मिक आयोजनों पर रोक लगा देंगे? तब तो बीस मिनट की नमाज़ से ज़्यादा हिंदुओं के सैकड़ों धार्मिक आयोजन प्रभावित होने लग जाएंगे, जो कई दिनों तक चलते हैं. बैन करने की हूक सड़कों के प्रबंधन बेहतर करने की नहीं है, एक समुदाय के प्रति कुंठा और ज़हर उगलने की ज़िद है.

केवल सड़क पर नमाज़ से दिक्कत नहीं है. चलती ट्रेन में किसी ने नमाज़ पढ़ ली तो क्या दिक्कत हो गई? ज़माने से लोग पढ़ते रहे हैं और किसी को फर्क नहीं पड़ता था, मगर अब वीडियो बन जाता है और टीवी पर डिबेट होता है और नमाज़ी गिरफ्तार होता है. मॉल में पढ़ लेता है तो उसका वीडियो बनाकर नफरत फैलाई जाती है और हंगामा किया जाता है. मॉल या कोचिंग सेंटर के भीतर किसी किनारे नमाज़ पढ़ने से भी ट्रैफिक जाम हो जाता है क्या?

अभी हमने देखा राम मंदिर के दर्शन के लिए जा रहे विमानों में भजन गाया गया, जय श्री राम के नारे लगे. क्या तब हंगामा हुआ, खासकर उन लोगों ने कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए था? ट्रेन में ज़माने से लोग कीर्तन-भजन करते जाते हैं. यह हमारी ट्रेन यात्रा का हिस्सा रहा है. इस पर रोक लगाने की बात विचित्र है. फिर तो लोग ट्रेन में अंताक्षरी भी नहीं खेल सकते हैं.

मूल बात है कि आप भारत में सड़कों को लोकतांत्रिक और धार्मिक कार्यों से अलग नहीं कर सकते हैं. कुंभ के समय प्रयागराज में आने वाले करोड़ों लोगों के लिए सड़कों पर कितने तरीके के बैरिकेड बनाए जाते हैं. प्रशासन इस काम में टेक्नोलॉजी से लेकर विज्ञान के सौ तरीके अपनाता है और लाखों रुपये खर्च करता है. सैकड़ों सिपाहियों की तैनाती करता है. कई रास्ते पूरी तरह से बंद किए जाते हैं, कुछ को आधा बंद किया जाता है और कइयों के रूट बदले जाते हैं. मेला है. गंगा स्नान है. लोग उसी सड़क से जाएंगे और कई किलोमीटर चलते हुए पैदल ही जाएंगे. आज इस काम को प्रशासन बेहतर तरीके से करता है, लेकिन दो दशक पहले उतनी दक्षता नहीं होती थी. समय के साथ कुंभ का आयोजन बेहतर ही होता जा रहा है. मगर यह कहना कि कुंभ को सड़क से अलग कर दिया जाए, मूर्खता है.

नमाज़ियों के साथ जो घटना हुई है यह उस पर एक तरह से छिपकर आनंद लेने की घटिया सोच है. उन्हें भी पता है कि वे केवल नमाज़ बंद कराने की ही बात कर रहे हैं, इधर-उधर की बात तो केवल दिखावे के लिए है.

कांवड़ यात्रा के दौरान तो महीने भर के लिए सड़कें बंद होती हैं. सड़क के किनारे यात्रियों के विश्राम के लिए टेंट बनाए जाते हैं. आप यह लेक्चर नहीं दे सकते कि कांवड़ यात्रा के समय सड़क के किनारे टेंट न लगे. टेंट के आगे बैरिकेड से सड़क ने घेरी जाए. शहरों में अब जगह नहीं है कि सड़क से दूर टेंट लग जाए, तो टेंट सड़क पर ही लगेगा. कांवड़ यात्री पैदल जाते हैं. उनके लिए सड़क बंद करनी ही होगी. तेज़ गाड़ी से दुर्घटना होने का ख़तरा रहता है और इतने इंतज़ाम के बाद भी कांवड़ यात्री मारे जाते हैं. आज इंतज़ाम बेहतर हुआ, उसी सड़क पर हुआ है तो कांवड़ यात्रियों के प्रति नज़रिया भी बदला है.

मुझे याद है जब दिल्ली आया था तो इन कांवड़ यात्रियों से लोग भयभीत नज़र आते थे क्योंकि उनके हाथ में डंडा होता था. लोग डंडों और हॉकी स्टिक को देखकर क्या-क्या बातें करते थे कि ये यात्री नहीं हैं, इन्हें धर्म से लेना-देना नहीं, गुंडा हैं, बदमाश हैं. आप दो दशक पहले अंग्रेज़ी के अख़बारों में कावंड़ियों को लेकर रिपोर्टिंग देख लीजिए, इसी तरह के स्वर मिलेंगे.

मैं जिस परिवेश से दिल्ली आया था, उसके हिसाब से कांवड़ यात्रियों को देखने लगा. बिहार में भी लोग कांवड़ लेकर पैदल जाते थे मगर वहां तो कोई ऐसा नहीं कहता था, दिल्ली में क्यों कहा जाता है. हर बार लगता था कि चलते-चलते तो इनके पांव में ज़ख़्म हो गए है, ख़ून बह रहा है फिर इनके बारे में ऐसी बातें क्यों होती है? कांवड़ियों के हाथ में डंडा तो इसलिए होता है कि बिना डंडे के वे चल भी नहीं सकते हैं. दूसरा पहले के समय में रास्ते में सुरक्षा कम होती थी और सड़कें बंद नहीं होने के कारण दुर्घटनाएं ज़्यादा. ऐसे में यात्री समूह में चलते थे और दुर्घटना होने पर कार या ट्रक वालों से टकराव हो जाता था. हिंसा भी भड़क जाती थी.

कांवड़ यात्रा के लिए महीने भर के लिए रास्ते बंद किए जाते हैं और रूट बदले जाते हैं. लोगों को दिक्कतें भी होती हैं मगर इसके अलावा और क्या किया जा सकता है. क्या कांवड़ यात्रा को पूरी तरह बंद हो सकती है? इस तर्क से कि सड़क पर किसी तरह का धार्मिक आयोजन न हो? ऐसा कहना मूर्खता और उदंडता होगी. कांवड़ यात्रा जब भी होगी पैदल होगी और सड़क का इस्तेमाल होगा ही. तो नमाज़ के बहाने जो लोग सड़क पर एक भी धार्मिक कार्य न होने का लेक्चर दे रहे हैं वो जानबूझकर इन तमाम जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं.

आज पुलिस प्रशासन ने कांवड़ यात्रा का इंतज़ाम काफी बेहतर किया है. इससे पहले की तुलना में दिक्कतें भी कम हुई हैं और टकराव भी कम हुए हैं. कांवड़ यात्रा के दौरान मांस की बिक्री पर रोक लगा दी जाती है. इसका सड़क से तो कोई लेना-देना नहीं, मगर इससे सबसे अधिक कौन प्रभावित होता है, किस समुदाय के लोग प्रभावित होते हैं?

मगर लोगों ने इसे भी स्वीकार तो किया ही है. क्या सरकार इसके बदले एक महीने का ख़र्चा देती है? कांवड़ यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में मुसलमान भी सेवा करते हैं, सामाजिक सद्भाव के ऐसे कई प्रसंग मीडिया में रिपोर्ट हो चुके हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि कांवड़ यात्रा का राजनीतिकरण भी ख़ूब हुआ है.

कांवड़ यात्रा ही नहीं, गणपति पूजा से लेकर दुर्गा पूजा पर इस कानून को लागू कर ही नहीं सकते हैं कि सड़क पर किसी भी धर्म का एक भी आयोजन नहीं होगा. क्या यह संभव है कि मूर्ति विर्सजन के लिए सड़क बंद न हो? पूजा आयोजन के लिए मुख्य सड़क से लेकर मोहल्ले के भीतर की किसी सड़क का इस्तेमाल होता ही होता है. हाउसिंग सोसाइटी के पार्क में पंडाल लगता ही है. हमारी पुलिस ने मेला और पूजा समितियों से मिल कर इंतज़ाम में सुधार किया है. दिक़्क़तें कम हुई हैं और इसमें अभी और गुंजाइश है, लेकिन कोई यह कह दे कि सड़क पर दुर्गा पूजा का पंडाल नहीं लगेगा तो पुलिस दुर्गा पूजा त्योहार के समय पंडाल हटाने में ही लगी रहेगी और जगह-जगह तनाव होता रहेगा. वैसे भी अब कई आयोजन समितियां पुलिस के साथ मिलकर इस बात का ध्यान रखती हैं कि ट्रैफ़िक कम से कम प्रभावित हो.

जो लोग सड़क पर नमाज़ नहीं पढ़ने के सख़्त ख़िलाफ़ हैं उन्हें भाजपा से लेकर बजरंग दल को लेक्चर देना चाहिए कि रामनवमी की शोभा यात्रा बंद हो और डीजे बजाने की अनुमति न दी जाए. यही नहीं, दूसरे समुदाय के इलाके से यात्रा निकालने की ज़िद के समय उन्हें सड़क और तमाम दिक्कतों का ध्यान नहीं आता है? प्रशासन ने कई जगहों पर तनाव को देखते हुए शोभा यात्रा को अनुमति नहीं दी है, और कई जगहों पर अनुमति दी भी जाती है. इसमें भी फैसला राजनीति के बिना नहीं होता है.

मगर क्या एक साथ सभी राज्यों में रामनवमी की शोभा यात्रा पर प्रतिबंध लग सकता है? क्या आप नहीं जानते कि रामनवमी के समय इन यात्राओं में एक ख़ास दल की राजनीति का कितना निवेश होता है. समय के साथ इन यात्राओं के प्रबंधन में सुधार किया जा सकता है, डीजे की आवाज़ कम की जा सकती है और एक निश्चित रूट का बंदोबस्त हो सकता है और हुआ भी होगा लेकिन शोभा यात्रा बंद कर दी जाए, विचित्र बात है. रामनवमी के समय हज़ारों यात्राओं को पूरा करने में पुलिस और प्रशासन की जान निकल जाती है. वही पुलिस दिन रात खड़ी रहती है, हफ्तों घर नहीं जाती है.

दिल्ली में लंगर और भंडारा केवल धार्मिक आयोजन नहीं है. यह दिल्ली की सबसे खूबसूरत चीज़ है, जिससे प्रेरित होकर दूसरे शहरों में भी इसका चलन बढ़ा है. भंडारा के समय भी ट्रैफिक व्यवस्था प्रभावित होती है लेकिन जब भी कोई भंडारा करेगा, वह सड़क का ही इस्तेमाल करेगा. यह कहा जा सकता है कि भंडारा करने वाला स्थानीय पुलिस की मदद ले मगर पुलिस क्या क्या करेगी और किस-किस बात की अनुमति ली जाती रहेगी? अंत में लोगों को भी सीखना होगा कि भंडारा इस तरह से करें कि ट्रैफिक में कम से कम व्यवधान हो लेकिन जहां सौ दो सौ लोग होंगे, व्यवधान तो होगा ही.

भंडारे को आप मानवीय नज़र से भी देखिए. भारत एक ग़रीब देश है. लोग आधा पेट भोजन कर घर से काम पर निकलते हैं. दिन भर काम करते-करते भूख लग जाती है. ऐसे में कोई भंडारा दिख जाए तो लोगों का दिन बन जाता है. खिलाने वाला भी चाहता है कि लोग आएं. कितना स्वादिष्ठ भोजन होता है. दिल्ली और तमाम शहरों में लोग गर्मी के दिनों में बसों को रोक कर शर्बत पिलाते हैं. इससे ट्रैफिक में दिक्कत हो जाती है. शहर के लोग इन दिक्कतों के साथ एडजस्ट कर लेते हैं. बेशक थोड़ी व्यवस्था हो जाए ताकि परेशानी कम हो लेकिन ये कहना कि लंगर सड़क पर नहीं हो तो फिर कहां होगा? भंडारा तो आते-जाते लोगों के लिए किया जाता है. यह भोज नहीं है कि घर के भीतर होगा, जिसके लिए लोग बुलाए गए हैं. अमेरिका का समाज ऐसा नहीं करता है तो वहां ऐसी दिक्कत नहीं आती है. वहां पहुंचे भारतीय सड़क पर बुलडोज़र लेकर शोभा यात्रा निकाल ही रहे हैं.

बात यहां सड़क की नहीं है, नमाज़ है और नमाज़ पढ़ने वाला मुसलमान है. चूंकि आप लात मारने की घटना को सही नहीं ठहरा सकते तो सड़क पर नमाज़ पढ़ने को ग़लत ठहराने लगे हैं. एक समुदाय को लगातार अपमानित करने और उसे पीछे धकेलते रहना चाहते हैं. गुड़गांव की घटना भूल गए. वहां लोग सड़क पर नमाज़ नहीं पढ़ रहे थे. मैदान पर पढ़ रहे थे तब भी लोग विरोध करने पहुंच गए. इस बहस के केंद्र में सड़क नहीं है, मुसलमान है. उसके धार्मिक अधिकारों पर लगातार प्रहार हो रहा है.

बहुत जगहों पर सड़कों पर नमाज़ का पढ़ना बंद भी हुआ है लेकिन उन्हीं जगहों पर दूसरे धर्मों के कार्यक्रम ख़ूब हो रहे हैं. ईद की सामूहिक नमाज़ कई जगहों पर नहीं होती है, क्योंकि एक साथ हज़ारों लोग पढ़ेंगे तो सड़क का इस्तेमाल होगा ही. कई पारियों में नमाज़ पढ़ी जा रही है. ऐसा नहीं है कि कोई समुदाय सड़क पर नमाज़ पढ़ने की ज़िद लेकर बैठा हुआ है, इसकी दिक्कतें हैं इसलिए पढ़ता है. मगर दिक्कत तो पार्क में नमाज़ पढ़ने से भी है.

बेहतर है हम साथ जीना सीखें. एक दूसरे को समझते हुए आगे चलें. सड़कों पर धार्मिक आयोजन से जो दिक्कतें होती हैं, उन्हें कम करें, व्यवस्था बेहतर करें न कि अपनी नफ़रत को परवान चढ़ाएं.

भारत के प्रशासन ने इस मामले में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं और आयोजनों को बेहतर किया है. लेकिन इसके नाम पर सामने से और पीछे से जो नफ़रत फैलाई जा रही है, उसे समझने की ज़रूरत है. इस नफ़रत से कोई चेतन सिंह बनेगा और कोई मनोज कुमार तोमर, जो जेल जाएगा या सस्पेंड होगा. इनका किसी भी तरह से बचाव आप भीड़ बनकर ही कर सकते हैं क्योंकि आपको अच्छी तरह पता है कि यह तर्क सम्मत नहीं है, समाज सम्मत नहीं है. धर्म सम्मत नहीं है और न ही संविधान सम्मत है.

ज़रूर आपकी सत्ता है, आपकी भीड़ है, जो मन आए कर लीजिए लेकिन आपको भी पता है कि क्या ग़लत है. समस्या सड़क पर नमाज़ पढ़ने में नहीं है, समस्या है किसी को नमाज़ पढ़ते हुए देखने के तरीके में. बेहतर है उसे स्वीकार कर लें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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