चुनावी बॉन्ड के ज़रिये राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों में सड़क, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी बड़ी कंपनियों का शामिल होना दिखाता है कि भले चंदे की राशि राजनीतिक दलों को मिल रही है, लेकिन इनकी क़ीमत आम आदिवासी और मेहनतकश वर्ग को चुकानी पड़ रही है, जिसके संसाधनों को राजनीतिक वर्ग ने चंदे के बदले इन कंपनियों के हाथों में कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट की फटकारों और कड़ी हिदायतों के बाद अंततः स्टेट बैंक तथा चुनाव आयोग ने उन आंकड़ों को सार्वजनिक कर दिया है जिससे यह पता चलता कि किन कंपनियों और व्यक्तियों ने चुनावी बॉन्ड्स ख़रीदे थे तथा करोड़ों रुपये का भुगतान किया था. यह लेख इन आंकड़ों के आलोक में यह विश्लेषण करता है कि राजनीतिक सौदेबाज़ी और चंदे की आड़ में असल क़ीमत किसी और को चुकानी पड़ती है न कि इन कंपनियों को.
इन आंकड़ों के विश्लेषण से एक स्पष्ट पैटर्न उभरता है कि खनन, सड़क तथा अन्य सार्वजनिक निर्माण कंपनियां एवं बुनियादी संरचना निर्माण मुख्य तौर पर इस चंदागिरी में शामिल हैं. यह मिलीभगत यानी राजनीतिक प्रभु वर्ग तथा इन कंपनियों की जो सांठ-गांठ उजागर हुई है उसके असल मायने ये हैं कि जन संसाधन के संरक्षण की जद्दोजहद में बाड़ और चोरों की एकता के कारण जल जंगल ज़मीन का संघर्ष और ग़ैर बराबर हो जाता है.
दूसरे शब्दों में, राजनीतिक चंदे के रूप के दी गई राशि का भुगतान भले दिखाई ऐसा दे कि इन कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को किया गया लेकिन इसकी असली क़ीमत दरअसल उन गरीब जन, आदिवासी एवं मेहनतकश को चुकानी पड़ी है जो सदियों से इन जंगलों और ज़मीन एवं अन्य संसाधन पर निर्भर रहे हैं और जिससे उनका गहरा नाता है, लेकिन इन चंदा स्वरूपी घूस के एवज़ में राजनीतिक वर्ग ने इन संसाधनों का सौदा इन कंपनियों के हाथों कर दिया. कभी यह नीतियों में छूट के रूप के दिखेगा, कभी पर्यावरण क्लीयरेंस में रियायत और अकारण तेज़ी में.
चुनावी बॉन्डस के इस मसले राजनीतिक भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश के रूप मे देखना एक अहम नजरिया है लेकिन यह काफी नहीं है इसके कई पहलू और हैं जिन्हे थोड़ा और गहराई से समझना चाहिए. अभी आंकड़ों का तफ़सील से विश्लेषण बाकी है तथा चुनाव आयोग को भी बॉन्ड्स की खरीद तथा राजनीतिक पार्टियों खासकर सत्ताधारी पार्टी को इससे मिले लाभ के आंकड़े अभी स्पष्ट रूप में सामने आने बाकी हैं, फिर भी कई सनसनीखेज खुलासे तो सामने आ ही रहे हैं- मसलन ऑनलाइन गेमिंग कंपनी का सबसे बड़ा अदाकर्ता होना, कोविड टीका कंपनी का बड़ा चंदा दाता होना आदि सीधा रिश्ता उजागर करते हैं- इनका विश्लेषण होना ही चाहिए.
लेकिन इसके साथ ही हम कुछ विशेष पैटर्न देख पा रहे हैं जिन पर ध्यान आवश्यक है. अदाकर्ता इकाइयों के मुख्य क्षेत्र पर निगाह डाली जाए तो साफ दिखाई देता है कि खनन, निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर, इंटरनेट आधारित इंफ्रा के क्षेत्र मे काम करने वाली कंपनियां इन संदिग्ध उगाहियों में शामिल हैं जिन्हें अज्ञात कारणों से ‘दान’ कहा जा रहा है. यानि अधिकांश मामलों में जो भुगतान किया जा रहा है वो इन कंपनियों ने या तो इन प्राथमिक साझा संपत्ति स्रोतों (Common Property Resources-CPRs) को हासिल करके कमाया है या भुगतान की एवज मे भविष्य मे कमाने वाले हैं. इसलिए इसे केवल बिजनेस उद्यमों द्वारा किए भुगतान के रूप मे देकर मामूली बात साबित करने की बजाय इस तरह से देखना चाहिए की भले ही भुगतान कोई कर रहा हो असल कीमत इन साझा संसाधनों की लूट से हासिल है.
इस तरह कीमत की असल अदायगी कई गुणा है तथा वो सबको साझा तौर पर करनी पड़ रही है खासकर उस तबके को जो पारंपरिक तौर पर इन साझा स्रोतों पर निर्भर रहे हैं- आदिवासी, मेहनतकश और गरीब देशवासी.
जब हम एक तंत्र के रूप में राजनीतिक तंत्र और पूंजीपति वर्ग के बीच के गर्भनाल बद्ध रिश्ते को देश की संप्रभु गोपनीयता के लबादे की सुरक्षा दे देते हैं, जैसे कि इन चुनावी बॉन्डस के मामले में किया गया तो ये कई स्तर पर विकृतियां पैदा करता है जिन्हें गंभीरता से समझना जरूरी है वरना ये मामूली विचलन जैसा दिखाई देगा जो दुर्भाग्य से इस अशुभ कानूनी आवरण के कारण अपराध तक नहीं माना जाएगा.
पहली विकृति तो यही है कि सांठगांठ के कारण ये ऐसा लगने लगता है कि यह राजनीतिक वर्ग तथा पूंजीपतियों के बीच का मसला है और उस पक्ष का इस प्रकरण से पूर्ण विलोपन हो जाता है जो दरअसल इस सौदे की असल कीमत अदा करता है- आमजन, आम नागरिक, आदिवासी वर्ग. इसलिए जम्हूरियत की समझ का तकाजा है कि इसे कम कम तीन चर (वेरीयबल) के समीकरण के रूप मे देखा जाए. पूंजीपति वर्ग, राजनीतिक वर्ग तथा आम गरीब जनता. स्वाभाविक है असल परिदृश्य इससे भी ज्यादा जटिल है लेकिन न्यूनतम मांग इसे त्रिपक्षीय जटिल समीकरण के रूप मे देखने की तो है ही.
अर्थशास्त्र और गणित में इस विश्लेषण के लिए आजकल गेम थ्योरी विश्लेषण का इस्तेमाल किया जाता है, हम इसी पद्धति से ही इसे समझने का प्रयास करते हैं-
हमारी यह गेम थ्योरी चर्चा एक रणनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया पर आधारित है, जिसमें तीन प्रमुख पात्र हैं: पूंजीपति (कारोबारी), राजनेता, और मतदाता. हर एक अपने फैसले लेते हैं, जो कि एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं.
- पूंजीपति (कारोबारी): ये लोग सबसे पहले निर्णय लेते हैं कि क्या उन्हें राजनीतिक दलों को चंदा देना चाहिए. यह निर्णय इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे इस चंदे के बदले में सरकार से अपने हित में नीतियां बनवा पाएंगे अथवा अपने धतकर्मों को छिपाए रख पाएंगे.
- राजनेता अथवा दल: जब उन्हें चंदा मिलता है, तो उनके सामने दो रास्ते होते हैं: या तो वे उसके बदले में पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां बनाएं (चंदा स्वीकार कर फायदा पहुंचाना) या फिर बिना किसी विशेष सुविधा के चंदा स्वीकार करें (चंदा स्वीकार करना पर फायदा न देना ).
- मतदाता: अंत में, मतदाता अपना वोट डालते हैं, जो कि उनके द्वारा देखी गई घटनाओं और परिणामों पर आधारित होता है. यदि मीडिया द्वारा पूंजीपतियों और राजनेताओं के बीच की सांठगांठ को उजागर किया जाता है, तो मतदाता जागरुक हो सकते हैं. लेकिन अगर यह सांठगांठ छिपी रह जाती है, तो नीतियां अमीरों के हित में बनाई जाती हैं, जिससे समाज के कमजोर वर्गों की भलाई की अनदेखी होती है.
इस खेल में सबसे अच्छा परिणाम तब आता है जब कोई चंदा नहीं दिया जाता और नीतियां समाज के सर्वोत्तम हित में बनाई जाती हैं.
इस विश्लेषण से समझ में आता है कि कैसे विभिन्न पात्रों के निर्णय समाज पर व्यापक प्रभाव डाल सकते हैं, और कैसे एक आदर्श समाज की रचना के लिए पारदर्शिता और नैतिकता महत्वपूर्ण हैं.
यदि चुनावी बॉन्ड्स पर इस नजरिये से देखें तो वे आम मतदाता, विशेषकर वंचित वर्ग के लोगों को असहाय बना देने की नीयत से लागू की गई योजना दिखाई देते हैं. सबसे पहले यदि गोपनीयता के प्रावधानों को देखें तो स्पष्ट होता है कि पहले से गैर बराबर इस समीकरण में आम मतदाता जानकारी के अभाव में अपने चुनावी फैसले में विवेकशील निर्णय से वंचित हो जाता है जबकि अधिक धन प्राप्त हो जाने के उग्र चुनाव प्रचार में समर्थ सत्तावर्ग उसके फैसले को अपने हित झुकाने में सफल हो जाता है.
इस तरह चुनावी चंदे के नाम पर खुद मतदाता को बेज़बान बना देने की साजिश दिखाई देती है. यही गोपनीयता सुनिश्चित करती है लोकतंत्र में राजनेता तथा पूंजीपति कारोबारी संख्या मे काम होने के बावजूद बहुत अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं.
इसी क्रम में यह भी ध्यान रखना होगा कि यह राय बेहद अबोध है कि कारोबारी अपनी जेब से यह भुगतान करता है सच्चाई ये है कि जमीन, खनन, पानी, जंगल, सड़क आदि के ठेकों की लूट से दरअसल इनका वास्तविक भुगतान भी साझा संपत्ति संसाधन (CPR) के जरिये उन्हीं सामान्य जन को करना पड़ रहा है जिन्हें ये सांठगांठ बेज़बान बनाकर लोकतंत्र से बहिष्कृत एवं अप्रासंगिक बनाती है.
(दोनों लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)