12 मार्च को जारी किया गया दस्तावेज़ तार्किकता से रहित, नागरिकों की स्वतंत्रता को नकारानेवाला और पूरी तरह से भ्रामक है.
12 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के भेदभावपूर्ण होने के आरोपों का खंडन करने की कोशिश के तहत सवालों और जवाबों की एक सूची जारी की. यह दस्तावेज़ बेतुकेपन की मिसाल है. यह एक जैसे-तैसे तैयार किया दस्तावेज है, जिसमें असंभव दावे किए गए हैं और यह अर्धसत्यों और यहां तक कि सफेद झूठों से भरा हुआ है.
मैं यहां गृह मंत्रालय द्वारा उठाए गए सवालों, उनके जवाबों और उनके हर जवाब का अपना विश्लेषण (सच्चाई) प्रस्तुत कर रहा हूं. बाद में गृह मंत्रालय ने इस शर्मनाक दस्तावेज़ को हटा दिया, लेकिन दस्तावेज की मूल कॉपी पीडीएफ के तौर पर सेव है, जिसे इस लिंक पर पढ़ सकते हैं.
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गृह मंत्रालय का दावा: आजादी के बाद से ही भारतीय मुसलमानों को जिस तरह से देश के किसी भी दूसरे धर्म के नागरिकों की तरह अपने अधिकारों का आनंद उठाने की आजादी और मौके प्राप्त रहे हैं, जिनका वे सामान्य तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं, उनमें किसी भी तरह की कटौती किए बगैर सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) 2019 ने नागरिकता के लिए आवेदन करने की अर्हता अर्जित करने की न्यूतम अवधि को 11 साल से घटाकर 5 साल कर दिया है. इसका लाभ अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित उन लोगों को मिलेगा, जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आ चुके थे. इसका उद्देश्य उनके उत्पीड़न के तुष्टीकरण के लिए मुआवजे के तौर पर उनसे उदारता दिखाना है.
हकीकतः मुइे इस बात की ज़रा भी जानकारी नहीं है कि ‘उनके उत्पीड़न के तुष्टीकरण के लिए मुआवजे’ का क्या मतलब है, लेकिन यह दावा बेईमानी भरा है. यदि मकसद सच में उत्पीड़न के पीड़ितों को लाभ पहुंचाना और उनके साथ ‘उदार व्यवहार’ करना है, तो जरूरत है कि सरकार यह समझाए:
– अगर इरादा लाभ देने का है, तो यह लाभ केवल इन तीन देशों के शरणार्थियों तक ही सीमित क्यों है?
– और सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न को ही लाभ देने का आधार क्यों बनाया जा रहा है जबकि इन तीन देशों में भी दूसरे रूपों के उत्पीड़न हैं, जिनसे पीड़ित होकर लोग इन देशों से पलायन कर रहे हैं. इनमें राजनीतिक उत्पीड़न या जातीयता या जेंडर या लैंगिक दृष्टिकोण के आधार पर होने वाले उत्पीड़न शामिल हैं.
– धार्मिक उत्पीड़न के शिकार मुस्लिमों को क्यों लाभार्थियों की इस सूची से बाहर रखा गया है जबकि इस बात के सबूत हैं कि कुछ खास मुस्लिम पंथों को वास्तव में इन देशों में उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है.
– यहां तक कि अगर सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न का शिकार गैर-मुस्लिमों को सहायता देना ही मकसद है, तो 31 दिसंबर, 2014 की कटऑफ तारीख क्यों तय की गई है? सरकार उन लोगों के साथ कैसा बर्ताव व्यवहार करने वाली है, जिनके पास इस तारीख के बाद अपने देशों से पलायन करने की पर्याप्त वजह थी. या वैसे लोगों के लिए सरकार के पास क्या नीति है, जो आज भी पलायन करके यहां आ सकते हैं.
मोदी सरकार के पास इनमें से किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं है, न ही वह यह बता सकती है कि सीएए को लागू करने और इन शरणार्थियों के साथ इस ‘उदार व्यवहार’ की व्यवस्था करने में साढ़े चार साल का समय क्यों लग गया.
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प्रश्न: भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए इस अधिनियम के क्या मायने हैं?
गृह मंत्रालय का जवाब: भारतीय मुसलमानों को चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सीएए ने उनकी नागरिकता को प्रभावित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया है और इसका वर्तमान 18 करोड़ भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है, जिनके पास अपने हिंदू समकक्षों के समान अधिकार हैं. इस कानून के बाद किसी भी भारतीय नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज पेश करने के लिए नहीं कहा जाएगा.
हकीकत: गृहमंत्री अमित शाह अतीत में कई बार शरणार्थियों और ‘घुसपैठियों’ के प्रति मोदी सरकार की नीतियों की एक ‘क्रोनोलॉजी’ की बात कर चुके हैं. अप्रैल, 2019 में, उन्होंने कहाः ‘पहले हम नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) लाएंगे, हर शरणार्थी को नागरिकता मिलेगी, इसके बाद हम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लाएंगे. इसलिए शरणार्थियों के पास चिंता करने की कोई वजह नहीं है. लेकिन घुसपैठियों के पास चिंता का एक कारण जरूर है. इसलिए क्रोनोलॉजी को समझिए.’ उन्होंने कहा कि एनआरसी केवल बंगाल के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए होगा क्योंकि घुसपैठिए हर जगह हैं.’ 10 दिसंबर, 2019 को शाह ने संसद को बताया कि एनआरसी निश्चित रूप से आ रहा है और जब यह लागू होगा तो ‘एक भी घुसपैठिया अपने को नहीं बचा पाएगा.’
शाह का क्या मतलब था? एनआरसी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत भारत में प्रत्येक व्यक्ति की नागरिकता की स्थिति का परीक्षण उनके द्वारा मुहैया कराए गए दस्तावेजों के आधार पर किया जाएगा. असम में, जहां एनआरसी का पहली बार परीक्षण किया गया था, नतीजे आपदाकारी थे: लगभग 19 लाख लोगों को नागरिकता से वंचित कर दिया गया था. ये वे भारतीय थे जो आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने में असमर्थ थे. इनमें बहुसंख्यक हिंदू थे.
सीएए के पीछे का मकसद एनआरसी की प्रक्रिया में खरे उतरने में नाकाम रहे हिंदुओं का आश्वस्त करना था कि उन पर निष्कासन या मताधिकार से वंचित किए जाने का खतरा नहीं मंडरा रहा है, क्योंकि सीएए उचित कागजात न रखनेवाले लोगों की नागरिकता का रास्ता तैयार करता है. लेकिन अगर मुसलमान इस प्रक्रिया को पूरा करने में नाकाम रहते हैं, तो उनके लिए कोई समाधान नहीं है. उन्हें ‘घुसपैठिए’ करार दिए जाने के खतरे का सामना करना पड़ेगा.
अगर मोदी सरकार सचमुच में एनआरसी लागू करने की अपनी योजना को औपचारिक रूप से त्याग देती है, तो भी गृह मंत्रालय का यह दावा कि भारतीय मुसलमानों को सीएए की वजह से नागरिकता प्रभावित होने के बारे में चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है- झूठ है.
जैसा कि मैंने एक अन्य लेख में लिखा है, दो भारतीय महिलाओं के उदाहरण से चीजें साफ हो जाती हैं. हम दो महिलाओं को ले सकते हैं, जिनमें से एक हिंदू है और एक मुस्लिम. एक ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जिसमें इनकी शादी दो अज्ञात बांग्लादेशी पुरुषों, क्रमशः एक हिंदू और एक मुस्लिम से हुई है. संशोधित नागरिकता अधिनियम के तहत, दोनों महिलाओं के बच्चों को ‘अवैध प्रवासी’ माना जाएगा और वे अपने-अपने पिता के साथ निर्वासन के पात्र होंगे. सीएए हिंदू महिला को निर्वासन के जोखिम से मुक्त होकर सामान्य पारिवारिक जीवन जीने का एक स्पष्ट रास्ता प्रदान करता है, लेकिन मुस्लिम महिला के पास अपने परिवार के भारत से निष्कासन के जोखिम के साथ रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. और उसके परिवार को निर्वासित कर दिए जाने की स्थिति में अगर वह वह उनके साथ रहना चाहती है तो उसके लिए एकमात्र रास्ता भारत छोड़ना ही होगा.
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प्रश्न: क्या अवैध मुस्लिम प्रवासियों को वापस बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान भेजने का कोई प्रावधान या समझौता है?
गृह मंत्रालय का जवाब: भारत का प्रवासियों को वापस इन देशों मे भेजने के लिए इनमें से किसी भी देश के साथ कोई सहमति या समझौता नहीं है. यह नागरिकता अधिनियम अवैध आप्रवासियों के निर्वासन से संबंधित नहीं है और इसलिए मुसलमानों और छात्रों सहित लोगों के एक वर्ग की सीएए के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने की चिंता वाजिब नहीं है.
हकीकत: यह एक चालाकी और छल भरा झूठ है. विदेशी अधिनियम (फॉरेनर्स एक्ट) (धारा 3) और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम (धारा 5) के तहत सरकार को पहले से ही उन लोगों को निर्वासित करने का अधिकार है, जो उसके हिसाब से देश में अवैध तरीके से रह रहे हैं (‘हटाने की शक्ति’). वापस भेजने के समझौते के न होने का मतलब है कि अवैध समझे जाने वाले व्यक्तियों को जेलों या डिटेंशन सेंटरों में लंबे समय तक कैद में रखा जा सकता है. अगर इसे एनआरसी के साथ जोड़कर देखा जाए, तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि ‘मुसलमानों और छात्रों सहित लोगों का एक वर्ग’ सीएए में दी गई प्रक्रिया को मुस्लिम विरोधी के तौर पर क्यों देखता है. भले ही इसका अंतिम नतीजा निर्वासन या हिरासत के तौर पर न निकले, तो भी यह तथ्य है कि बड़ी संख्या में भारतीय, जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम, मताधिकार से वंचित हो जाएंगे.
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प्रश्न: अवैध प्रवासी कौन है?
गृह मंत्रालय का जवाब: नागरिकता अधिनियम, 1955 के तरह, सीएए में अवैध प्रवासी को वैध दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश करने वाले एक विदेशी के रूप में परिभाषित किया गया है.
हक़ीक़त: 2003 में, तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने ‘अवैध प्रवासियों’ को देशीयकरण (नैचुरलाइजेशन) या विवाह द्वारा कभी भी भारतीय नागरिकता हासिल करने से प्रतिबंधित करने के लिए नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया था. 2016 में मोदी सरकार ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम ‘अवैध प्रवासियों‘, बशर्ते वे 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में दाखिल हुए हों, को इस प्रावधान से छूट देने के लिए नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया. 2019 में लाया गया सीएए नागरिकता के आवेदन पर त्वरित कार्रवाई की इजाजत देकर इस प्रक्रिया को और आगे लेकर जाता है.
दूसरे शब्दों में, वर्तमान कानून के अनुसार 31 दिसंबर 2014 तक वैध दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश कर चुके किसी विदेशी को अवैध प्रवासी तभी माना जाएगा जब वह मुस्लिम हो. सभी गैर-मुस्लिमों को अब अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा. धर्म के आधार पर यह भेदभाव भारतीय संविधान का हनन करता है. जैसा कि वकील एस. प्रसन्ना का कहना है, यह भेदभाव नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय कंवेंशन के तहत भारत के दायित्वों का भी उल्लंघन है, जिसके अनुच्छेद 26 में कहा गया हैः
‘कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं और किसी भेदभाव के बगैर कानून के समान संरक्षण के हकदार हैं. इस संबंध में कानून किसी भी भेदभाव पर रोक लगाएगा और सभी व्यक्तियों को जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीय या सामाजिक उद्भव, संपत्ति, जन्म या किसी अन्य स्थिति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ समान और प्रभावी सुरक्षा की गारंटी देगा.’
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प्रश्न: यह कानून इस्लाम की छवि को किस तरह से प्रभावित करता है?
गृह मंत्रालय का जवाब: इन तीन मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के चलते पूरी दुनिया में इस्लाम का नाम बुरी तरह से बदनाम हुआ है. हालांकि, इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म होने के नाते कभी भी धार्मिक आधार पर घृणा/हिंसा/किसी उत्पीड़न का संदेश या सुझाव नहीं देता है. उत्पीड़न के प्रति संवेदना और मुआवज़ा दर्शाने वाला यह कानून उत्पीड़न के आरोपों के नाम पर इस्लाम को बदनामी से बचाता है.
हक़ीक़त: यदि हम इस उत्तर के बेहद फूहड़ प्रारूप को नजरअंदाज भी कर दें, तो भी गृह मंत्रालय और मोदी सरकार यह समझाने में समर्थ नहीं हो पाए हैं कि केवल मुस्लिम देशों के धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों को ही अपनाने के लिए कानून क्यों बनाया गया है, और गैर-मुस्लिम पड़ोसी देशों- म्यांमार, चीन और श्रीलंका को इससे बाहर क्यों रखा गया है. क्या सरकार यह संदेश नहीं दे रही है कि मुस्लिम देशों का उत्पीड़न कुछ अनोखा है जिसके कारण उसे इनके पीड़ितों के लिए एक नया कानून बनाना पड़ रहा है? दूसरे धर्मों की तुलना में इस्लाम और मुस्लिमों के प्रति सरकार के नजरिए के बारे में यह क्या बताता है?
सरकारी ‘सूत्रों’ का दावा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के शरणार्थियों को इसलिए खासतौर पर चुना गया है क्योंकि ये तीनों भारत के पड़ोसी मुल्क हैं और उनका एक ‘आधिकारिक (राज्य) धर्म’ हैः उनका दावा है, ‘एक आधिकारिक (राज्य) धर्म का होना पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के लिए नुकसानदेह हो साबित हो रहा है.’
लेकिन तथ्य यह है कि श्रीलंका भी एक राज्य धर्म (बौद्ध धर्म) वाला देश है और जैसा कि अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर समिति का म्यांमार के बारे में कहना है,‘यद्यपि वहां कोई आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है, लेकिन वहां के संविधान में कहा गया है कि सरकार ‘ देश के नागरिकों के विशाल बहुमत द्वारा अपनाए गए आस्था पद्धति के रूप में बौद्ध धर्म की विशेष स्थिति को मान्यता देती है.’
दूसरी बात, सीएए का इस्लाम की छवि पर कोई असर हो या न हो लेकिन देश की छवि पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ चुका है. भारत ने तीन हजार वर्षों से अधिक समय से दुनिया के सभी हिस्सों से आए शरणार्थियों और लोगों का स्वागत किया है और उन्हें रिहाइश मुहैया कराई है. लेकिन अब इतिहास में पहली बार तीन देशों के शरणार्थियों के लिए नागरिकता (और रिहाइश का अधिकार) प्राप्त करने के लिए धर्म को एक पैमाना बनाया गया है. व्यापक दुनिया इसे भारत द्वारा अपने संचित मूल्यों और संस्कृति के साथ विश्वासघात के रूप में देखती है, संविधान और मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता की तो बात ही रहने दें.
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प्रश्न: क्या मुसलमानों के लिए भारतीय नागरिकता हासिल प्राप्त करने पर कोई रोक है?
गृह मंत्रालय का जवाबः नहीं. नागरिकता अधिनियम की धारा 6 के तहत दुनिया के किसी भी हिस्स्े के मुसलमानों के लिए भारतीय नागरिकता लेने पर कोई रोक नहीं है. यह धारा नैचुरलाइजेशन के जरिए नागरिकता से संबंधित है.
हक़ीक़त: 2003 से नागरिकता अधिनियम, किसी भी अवैध प्रवासी को भारत की नागरिकता हासिल करने से रोकता है. सीएए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम अवैध प्रवासियों और उनके भारत में जन्मे बच्चों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का दरवाजा खोलता है. लेकिन, अवैध मुस्लिम प्रवासियों और भारत में जन्मे उनके बच्चों के नागरिकता हासिल करने पर रोक जारी रहेगी.
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प्रश्न: संशोधन की जरूरत क्या है?
गृह मंत्रालय का जवाब: उन तीन देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों पर दया दिखाने के लिए यह कानून भारत की सदाबहार उदार संस्कृति के अनुरूप उन्हें सुखी और समृद्ध भविष्य देने के लिए भारत की नागरिकता अर्जित करने का अवसर देता है. नागरिकता व्यवस्था को इस जरूरत के हिसाब से ढालने और अवैध प्रवासियों को नियंत्रित करने के लिए इस अधिनियम की जरूरत थी.
हक़ीक़त: उत्पीड़ित व्यक्तियों के प्रति उदारता दिखाने के लिए धर्म-आधारित छूट का प्रावधान करना जरूरी नहीं था. सरकार को बस इतना कहना था कि भारत में किसी भी अवैध प्रवासी, जिसे अपने मूल देश में उत्पीड़न का डर है, को अनिश्चितकाल तक भारत में रहने की अनुमति दी जाएगी और उचित समय पर वह भारतीय नागरिकता के लिए पात्र होगा. दरअसल, दुनियाभर के देश शरणार्थियों के देशीयकरण (नैचुरलाइजेशन) के लिए इसी रास्ते का अनुसरण करते हैं और इसके लिए शरणार्थियों का किसी विशेष धर्म का होना जरूरी नहीं है.
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प्रश्न: सरकार की इससे पहले की पहल क्या रही हैं?
गृह मंत्रालय का जवाब: 2016 में केंद्र सरकार ने उन तीन देशों के अल्पसंख्यकों को भारत में रहने के लिए दीर्घकालिक वीज़ा का पात्र बना दिया.
हक़ीक़त: यहां कुछ ‘पहलकदमियां’ हैं जिनका उल्लेख करना गृह मंत्रालय भूल गया. सरकार अफगानिस्तान, पाकिस्तान और आसपास के इलाकों में धार्मिक रूप से सताए गए लोगों के प्रति इतनी मददगार रही है कि इसने अफगानिस्तान में सिखों के लिए भारतीय वीजा प्राप्त करना और तालिबानी शासन से भागना बेहद मुश्किल बना दिया है.
काबुल में आतंकवादियों द्वारा मारे गए एक सिख व्यक्ति के एक मामले को यहां याद किया जा सकता है, जिसका भारत का वीज़ा कभी नहीं आया. सिर्फ 2021-22 में, भारत में रहने के इच्छुक 1,500 पाकिस्तानी हिंदुओं को सरकार द्वारा उनकी राह में खड़ी की गई अड़चनों के कारण घर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा. म्यांमार में धार्मिक उत्पीड़न के कारण भाग रहे रोहिंग्याओं को भारत सरकार ने देश से निर्वासित कर दिया है.
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प्रश्न: क्या किसी विदेश देश से आने वाले मुस्लिम प्रवासियों के लिए कोई प्रतिबंध है?
गृह मंत्रालय का जवाब: सीएए देशीयकरण (नैचुरलाइजेशन) कानूनों को रद्द नहीं करता. इसलिए, किसी भी विदेशी मुल्क से आए मुस्लिम प्रवासियों सहित कोई भी व्यक्ति, जो भारतीय नागरिक बनना चाहता है, मौजूदा कानूनों के तहत इसके लिए अर्जी दे सकता है. यह अधिनियम इन तीन देशों में इस्लाम के अपने संस्करण का पालन करने के कारण प्रताड़ित किए गए किसी भी मुस्लिम को मौजूदा कानूनों के तहत भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने से नहीं रोकता है.
हक़ीक़त: इस उत्तर में गृह मंत्रालय के मुंह से गलती से सच निकल गया है. उसे भली-भांति मालूम है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में ऐसे मुसलमान हैं जिन्हें इस्लाम के अपने संस्करण का पालन करने के लिए उत्पीड़ित किया जाता है. लेकिन अगर वे वैध कागजात के बिना भारत में प्रवेश करते हैं, या अपने वीज़ा की अवधि से अधिक समय तक रहते हैं, तो वे स्वतः अवैध प्रवासियों के रूप में वर्गीकृत हो जाते हैं और इस प्रकार मौजूदा कानूनों के तहत भारतीय नागरिकता के लिए अयोग्य हो जाते हैं. यानी सीधे तौर पर कहा जाए तो, वे मौजूदा कानूनों के तहत भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन नहीं कर सकते.
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