‘पूर्वांचल के ज़िलों में इंसेफलाइटिस से कम से कम एक लाख मौतें हो चुकी हैं’

ग्राउंड रिपोर्ट: इंसेफलाइटिस पूर्वांचल का शोक बन चुका है लेकिन सरकारें व राजनीतिक पार्टियां इस पर मौन हैं.

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ग्राउंड रिपोर्ट: इंसेफलाइटिस पूर्वांचल का शोक बन चुका है लेकिन सरकारें व राजनीतिक पार्टियां इस पर मौन हैं.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

(यह रिपोर्ट पहली बार 03 मार्च 2017 को प्रकाशित हुई थी)

हम गुरु गोरखनाथ के शहर गोरखपुर पहुंचे तो एक मोटरसाइकिल रैली ने हमारा स्वागत किया. युवाओं का हुजूम सैकड़ों मोटरसाइकिल पर सवार नारे लगाता, झंडा थामे हुए आगे बढ़ रहा था. रैली गुज़र गई और पीछे उड़ती गुबार में हमें उन हज़ारों हज़ार बच्चों की चीख़ सुनाई दी जो इस पूरे इलाक़े में इंसेफलाइटिस से मारे जा चुके हैं.

हमें जगह जगह प्रचार वाहन मिल रहे थे. हर किसी वाहन से विकास की नई इबारतें लिखने की घोषणाएं हो रही थीं. शहर रोज़ की तरह अपने रोज़गार में मशगूल था. शहर के सियासी गलियारों में ख़ासी हलचल थी. लेकिन यहां पर बच्चों के लिए काल बन चुकी महामारी इंसेफलाइटिस का ज़िक्र कहीं नहीं था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जुलाई, 2016 में एम्स की स्थापना करने गोरखपुर गए तो वहां पर घोषणा की कि ‘एक भी बच्चे को इंसेफलाइटिस से मरने नहीं दिया जाएगा.’ इसके पहले जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, तब भी यह मसला उठाया था, लेकिन ढाई साल की सरकार में इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया, न ही उनकी पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव में यह कोई मुद्दा है. दूसरी पार्टियों के लिए भी यह कोई मुद्दा नहीं है. जबकि गोरखपुर समेत पूर्वांचल के ज़िलों में सभी दलों के बड़े नेताओं की सभाएं आयोजित हो चुकी हैं.

इंसेफलाइटिस उन्मूलन अभियान के प्रमुख डॉ. आर एन सिंह ने हमें बताया, ‘अब तक इस बीमारी से यूपी के गोरखपुर समेत 12 ज़िलों में एक लाख से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, लेकिन दुर्भाग्य से यह राजनीतिक दलों के लिए किसी चुनाव में कभी मुद्दा नहीं रहा. जबकि साल 2016 में पिछले सालों के मुक़ाबले इंसेफलाइटिस से होने वाली मौतों की संख्या 15 फीसदी बढ़कर 514 हो गई. यह आंकड़ा सिर्फ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का है.’

इधर चुनावी शोर और जीत के लिए ज़ोर आज़माइश जारी है, उधर, इंसेफलाइटिस से होने वाली मौतों और विकलांगता का सिलसिला जारी है. डॉ. आर एन सिंह कहते हैं, ‘यहां के सांसद योगी आदित्यनाथ ने तीन बार पांच सात हज़ार लोगों को लेकर दस दस किलोमीटर की यात्रा की, धरना दिया, लोकसभा में मुद्दा उठा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. हम लोग 2009 से लेकर 2011 तक सरकार को ख़ून से ख़त लिखते रहे. सात ज़िलों से कम से कम चालीस बार सौ-दो सौ की संख्या में ख़त भेजे गए. हम सभी अपना ख़ून निकाल कर यह ख़त लिखते थे.’13501709_1030372710372376_2617100803090028001_n

सरकार ने फिर भी इस मसले पर काफ़ी टालमटोल करने के बाद संज्ञान लिया और उसका परिणाम यह हुआ कि एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया गया. आर एन सिंह कहते हैं, ‘राहुल गांधी और ग़ुलाम नबी आज़ाद के निर्देश पर 2012 में राष्ट्रीय कार्यक्रम बना. इसके बाद 2014 में नई सरकार आई तो फिर से प्रोग्राम बना. लेकिन किसी भी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में इस बीमारी के उन्मूलन का ज़िक्र तक नहीं किया. यह प्रोग्राम सरकार की आलमारी में रखा हुआ है और बच्चे मर रहे हैं.’

आर एन सिंह इंसेफलाइटिस पर कई वर्षों से काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि उनके पास इसके उन्मूलन और बचाव का कारगर तरीक़र है लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता. उनके मुताबिक़, ‘यह बीमारी भारत के 19 प्रदेशों में है और 40 साल से है, सिर्फ़ पूर्वांचल में यह बीमारी हर साल पांच से सात हज़ार लोगों को मारती है. पांच-छह सौ के जो हर साल के आंकड़े हैं वे केवल एक अस्पताल बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज के हैं. लेकिन अगर पूर्वांचल के 12 ज़िलों के आंकड़े लें तो पांच से सात हज़ार मौतें केवल पूर्वांचल में होती हैं. यूपी के अलावा बिहार, असम, बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में भी यह बीमारी फ़ैली है. इसके बावजूद यह पार्टियों और सरकारों के लिए कोई मुद्दा नहीं है.’

गोरखपुर में इंसेफलाइटिस का पहला मामला 1977 में सामने आया था. तब से ही इस बीमारीका क़हर जारी है. यह दो तरह का है. एक जापानी इंसेफलाइटिस या जापानी बुखार, जो मच्छरों से फ़ैलता है. जापानी बुखार पर तो काफ़ी हद तक क़ाबू पा लिया गया है, क्योंकि उसका टीका विकसित कर लिया गया है. दूसरा है जलजनित इंसेफलाइटिस (जेईएस). यह गंदे पानी से फ़ैलता है. इसका वाइरस अभी नहीं खोजा जा सका है, इसलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है. इसका प्रकोप जुलाई से शुरू होता है और नवंबर के आसपास कम हो जाता है. हालांकि, अस्पतालों में मरीज पूरे साल आते रहते हैं. इसके वायरस के शरीर में पहुंचते ही तत्काल ही बुखार आता है और वायरस दिमाग़ पर अटैक करते हैं. तुरंत अस्पताल ले जाने पर तो कुछ हद तक कंट्रोल कर लिया जाता है, लेकिन ज़रा भी देर होने पर वायरस अपना काम कर चुका होता है. अगर मरीज की मौत नहीं हुई तो बहुत संभावना रहती है कि उसे मानसिक या शारीरिक अपंगता का शिकार होना पंड़ता है.

इंसेफलाइटिस का अब तक कोई कारगर इलाज तो नहीं है लेकिन यह बीमारी सावधानी बरत कर काफ़ी हद तक रोकी जा सकती है. इस बीमारी की मृत्युदर सबसे ज्यादा 35 प्रतिशत है. डॉक्टरों की सलाह है कि प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि ज़्यादा से ज़्यादा सावधानी बरती जाए. डेंगू की मृत्युदर दो से तीन प्रतिशत है, जबकि इंसेफलाइटिस की मृत्युदर 35 प्रतिशत है. अपंगता का भी प्रतिशत जोड़ लें तो 45 प्रतिशत मरीज इससे प्रभावित होते ही हैं.

यह मुद्दा कई बार संसद में उठ चुका है, लेकिन सरकारें इस पर कुछ भी क़ायदे का काम नहीं कर रही हैं. राष्ट्रीय कार्यक्रम को आलमारी में दफ़न कर दिया गया है. इसे देखते हुए इस बार चुनाव से पहले डॉ आर एन सिंह ने जनता का छह सूत्री घोषणा पत्र जारी किया, जिसकी 50 हज़ार प्रतियां आठ ज़िलों में बांटी गईं. आर एन सिंह ने कहा, ‘बावजूद इसके, किसी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में इस पर एक शब्द भी नहीं लिखा. किसी ने इस पर कोई बयान भी नहीं दिया. यह कैसा लोकतंत्र है जहां पर लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है?’

इन्सेफलाइटिस उन्मूलन अभियान की ओर से जारी जनता का घोषणा पत्र.
इंसेफलाइटिस उन्मूलन अभियान की ओर से जारी जनता का घोषणा पत्र.

आर एन सिंह नाराज़गी जताते हुए कहते हैं, ‘ये नेता लोगों को मार कर उनकी लाश पर राजनीति करेंगे, लेकिन मैं इस बार नोटा पर वोट दूंगा. भारतीय संविधान के तहत की धारा 21 के तहत नागरिकों के जीवन की रक्षा की ज़िम्मेदारी सरकारों पर जाती है. अगर सरकारें ऐसा नहीं कर पाती हैं तो उन्हें सत्ता में रहने का एक दिन का भी हक़ नहीं है. यह हाईकोर्ट का कहना है.’

भारत के सभी राज्यों में मिलाकर इंसेफलाइटिस से कितनी मौतें हुई हैं, इसका सरकार की ओर से कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन कई वर्षों से इस पर काम करने वाले आर एन सिंह कहते हैं, ‘मेरे हिसाब से केवल पूर्वांचल के ज़िलों में इंसेफलाइटिस से कम से कम एक लाख मौतें हो चुकी हैं. यहां के एक मेडिकल कॉलेज में पांच से छह सौ मौतें होती हैं. गोरखपुर में 150 नर्सिंग होम हैं, जिनमें सिर्फ दो-दो मौतें मान लीजिए. ज़िला अस्पताल है जहां 50-100 मौतें होती होंगी. दस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं. तमाम छोटे-छोटे क्लीनिक हैं, झोलाछाप डॉक्टर हैं. ख़ाली गोरखपुर का आंकड़ा जो पांच सौ से छह सौ बताया जाता है, वह 1500 होगा. इसी तरह प्रभावित 12 ज़िलों में इसका आधा या उससे कम मान लीजिए तो भी प्रतिवर्ष पांच से छह हज़ार मौतें होती हैं. यह बीमारी 40 वर्षों से है. इस आधार पर मैं मानता हूं कि इससे मरने वालों की संख्या एक लाख से भी ज़्यादा है. यह अतिशयोक्ति नहीं है.’

लंबे समय तक मेडिकल की रिपोर्टिंग करने वाले स्थानीय पत्रकार राकेश राय कहते हैं, ‘जापानी बुखार पर तो टीका बन गया तो उससे मरने वालों की संख्या कम हो गई. लेकिन जेईएस पर कुछ ख़ास हो नहीं पाया. हर साल अमेरिकी टीम आती है और सर्वे करके ले जाती है. लेकिन कुछ हुआ नहीं, सिवाय इसके कि मौतों की संख्या बढ़ गई है. यह सिलसिला कई सालों से चल रहा है. राहुल गांधी, गुलाम नबी आज़ाद जैसे बड़े नेताओं के दौरे तो ख़ूब होते हैं. लेकिन कारगर उपाय नहीं हो सका. सुविधाएं उतनी पर्याप्त नहीं हैं. सीज़न में एक-एक बेड पर तीन-तीन बच्चे पड़े होते हैं. नेता सिर्फ़ ढोल बजाते हैं कि हम कर रहे हैं लेकिन वे कुछ नहीं कर रहे हैं.’

आरएन सिंह कहते हैं, ‘फ़िलहाल सभी चुनाव में व्यस्त हैं. जुलाई अगस्त से मौतें गिनेंगे. लेकिन बने हुए कार्यक्रम को लागू नहीं किया जा रहा है. मेरा सवाल है कि पोलियो का उन्मूलन हुए कई साल हो गए हैं, इसके बावजूद टीके लग रहे हैं. लेकिन जिस बीमारी से इतनी मौतें हो रही हैं उस पर कोई कार्यक्रम ही नहीं है. बच्चों के अच्छे दिन कब आएंगे? ये बच्चे सब मर जाएंगे तो मेक इन इंडिया कैसे होगा? हमने जनता की ओर से घोषणा पत्र जारी करके सब पार्टियों को भेजा लेकिन किसी ने संज्ञान नहीं लिया. मीडिया, ख़ासकर यहां का प्रिंट मीडिया मौन है. मुझे लगता है कि वह मोदी से डरा हुआ है, जबकि इस बीमारी की बात करने में कोई बात मोदी के ख़िलाफ़ नहीं जाती. इस ख़तरनाक बीमारी पर चुप रहना बेहद ख़तरनाक है.’

गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व महामंत्री नीरज शाही कहते हैं, ‘इंसेफलाइटिस सिर्फ़ गोरखपुर का मुद्दा नहीं है. इससे पूरा पूर्वांचल प्रभावित है. नेताओं ने अभी तक सिर्फ़ इस पर बयानबाज़ी की है. किसी सरकार ने अब तक इस पर कोई कारगर कार्यक्रम नियोजित नहीं किया है. पैदा होते ही बच्चे बीमारी से संघर्ष करते हैं और मर जाते हैं. इंसेफलाइटिस पूर्वांचल का शोक बन चुका है लेकिन सरकारें व राजनीतिक पार्टियां इस पर मौन हैं.’

राकेश राय कहते हैं, ‘चुनावों में इंसेफलाइटिस मुद्दा बनता था, लेकिन यह पहला चुनाव है जिसमें मैं देख रहा हूं कि इंसेफलाइटिस पर कोई चर्चा ही नहीं हो रही है. नेताओं के पास कोई सॉलिड प्लान हो तो उन्हें बताना चाहिए कि वे इंसेफलाइटिस के लिए ये करने जा रहे हैं. अगर एक बीमारी जारी है और कुछ हो नहीं रहा तो यह व्यवस्था पर गंभीर सवाल है.’ सवाल वाक़ई गंभीर है. यदि लोगों की मौतों पर सियासी गलियारे में सन्नाटा है तो लोकतंत्र में चुनाव किसके लिए होता है?

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