कोयला-निर्भर समुदायों को नौकरी से ज़्यादा ज़मीन की चिंता क्यों है?

वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव लाने की प्रक्रिया को न्यायसंगत परिवर्तन यानी ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ का नाम दिया गया है. हालांकि, देश के दो राज्यों- छत्तीसगढ़ और झारखंड के कुछ कोयला-निर्भर गांवों के लोगों की दशा यह दिखाती है कि ऐसे सभी परिवर्तन न्यायसंगत नहीं हो सकते. 

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: International Accountability Project/ CC BY)

पिछले कुछ दशकों से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं. इनका मुख्य कारण ईंधनों से होने वाला कार्बन उत्सर्जन है. दुबई में 5 दिसंबर को हुए कॉप-28 जलवायु सम्मेलन (कांफ्रेंस ऑफ दी पार्टीज़) में जारी किए गए ग्लोबल कार्बन बजट रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में कार्बन उत्सर्जन अपने रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया था.

इसी क्रम में दुनिया भर के देश, वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को विकसित करने और इसके मुख्य पारंपरिक स्रोत कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए इसे बंद करने की बात कर रहे हैं.

जस्ट ट्रांज़िशन

दुनिया भर में ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव लाने की इस प्रक्रिया को न्यायसंगत परिवर्तन यानी ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ का नाम दिया गया है. इसके पीछे का मूल भाव यह है कि वातावरण और पर्यावरण में प्रदूषण को बढ़ाने वाले ऊर्जा के स्रोतों (मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन) का इस्तेमाल बंद करके इसकी जगह ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को अपनाने की ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो सभी के लिए उचित और न्यायसंगत हो.

आसान शब्दों में कहें, तो परिवर्तन की इस प्रक्रिया के केंद्र में आर्थिक, नस्लीय और लैंगिक न्याय होना चाहिए तथा सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदायों का हित ध्यान में रखा जाना चाहिए. ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ का एक उद्देश्य ऊर्जा के अन्य स्रोतों जैसे खनिज, तेल और गैस आदि को लेकर बनाई गई नीतियों में व्याप्त ग़लतियों को न दोहराते हुए लोगों की सहमति के बिना उनकी आजीविका के स्रोत जैसे ज़मीन, जंगल आदि न लेने के साथ ही उन्हें न्यायपूर्ण मुआवज़ा देना भी है.

लेकिन भारत के दो राज्यों- छत्तीसगढ़ और झारखंड के दस कोयला-निर्भर गांवों के लोगों की हालत देखकर यह कहा जा सकता है कि दुनिया में होने वाले सभी परिवर्तन न्यायसंगत नहीं हो सकते हैं. साथ ही इससे यह एहसास भी मजबूत होता है कि आर्थिक विविधीकरण, वैकल्पिक रोज़गारों, नौकरियों, प्रशिक्षण और लोगों को नए तरीक़े से दोबारा कुशल बनाने के विचार की आंच धीमी पड़ जाती है.

वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण की आवश्यकता

दुनिया के बाक़ी देशों में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद होने और ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ की प्रक्रिया से जुड़ी बातचीत के केंद्र में इससे प्रभावित लोगों के लिए आजीविका के वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण की बात कही गई है. लेकिन क्या भारत के लिए भी यही स्थिति संभव हो सकती है?

भारत में कोयला बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत है. साल 2022-23 में भारत ने अपने 73 फ़ीसदीी बिजली का उत्पादन कोयला से किया है. ऐसे में भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोयला खनन की पूरी प्रक्रिया से औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह से जुड़ा हुआ है.

कहने का मतलब यह है कि कोयला खदानों वाले क्षेत्रों जैसे कि झारखंड एवं छत्तीसगढ़ राज्य के हज़ारीबाग़, रामगढ़ और कोरबा ज़िलों के स्थानीय लोगों की आजीविका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में कोयला पर आधारित है. खदानों के शुरू होने से पहले इन ज़िलों के लोगों का मुख्य पेशा खेती था. लेकिन कोयला खनन के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में इनमें से अधिकतर की ज़मीनें चली गईं और वे भूमिहीन हो गए.

हालांकि, इस भूमि अधिग्रहण के बदले लोगों को मुआवज़ा और नौकरियां मिलीं हैं लेकिन यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें अपनी ज़मीन के बदले मिलने वाली नौकरियों पर भरोसा नहीं है. दरअसल इनमें से ज़्यादातर नौकरियां अनौपचारिक हैं और बहुत हद तक कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं. इसके अलावा उनके सामने खाद्य सुरक्षा का भी संकट खड़ा होने लगा है. ऐसी कई चिंताएं हैं जो इन लोगों को अपनी ज़मीनों पर मालिकाना हक़ के मुद्दे पर सोचने के लिए लगातार मजबूर कर रही हैं.

भारत में कोयला-खदान बंद होने की स्थिति में ग्रामीण इलाक़ों के लोगों का जीवन किस प्रकार प्रभावित होगा, इसका एक जीता-जागता उदाहरण झारखंड के रामगढ़ ज़िले का संथाल गांव महुआटांड है.

1980 के दशक में जब एक पीएसयू ने यहां अपनी खदान लगाई थी तब उसमें इस गांव के लोगों ने ना केवल अपनी ज़मीन गंवाई बल्कि अपनी पैतृक संपत्ति के समाप्त होने के कारण उनके सामने खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित भविष्य का संकट भी पैदा हो गया. ज़मीनों के अधिग्रहण के बाद यहां के लोग लगभग पूरी तरह से कोयला आधारित नौकरियों पर निर्भर हो गए थे.

गांव के लोगों का कहना है कि ऐसे भी बहुत कम लोगों को ही नौकरियां मिली थीं और साल 2019 में यहां के खदान बंद होने के बाद जल्दी ही वे नौकरियां भी चली जाएंगी और लोग पूरी तरह से बेरोज़गार हो जाएंगे.

इसी गांव के निवासी बबलू हेम्ब्रम कहते हैं, ‘मैंने कोयला खनन कंपनी में नौकरी के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी और अंत में साल 2016 में औपचारिक नौकरी हासिल की. और अब खदान में काम बंद होने के बाद से हर दिन केवल हाज़िरी बनाने के लिए जाता हूं.’

अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंता जताते हुए दो बच्चों के पिता बबलू हेम्ब्रम आगे कहते हैं, ‘हम में से ज़्यादातर लोगों को इस बात का अफ़सोस है कि हमारे बुजुर्गों ने साल 1964 में नौकरी या मुआवज़े के एवज़ में अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी थी. 1984 में कोयला खनन शुरू होने के बाद से मुआवज़े में मिले पैसे ख़त्म हो गए और नौकरी भी परिवार में केवल एक व्यक्ति को ही मिली थी. एक निश्चित उम्र के बाद यह नौकरी भी चली जाएगी. भविष्य में हम और हमारे बच्चे भीख मांगने की स्थिति में आ जाएंगे.’

इसी में अपनी बात जोड़ते हुए गांव की सरपंच किरण देवी ने कहा, ‘हमारे गांव की लगभग 75 फ़ीसदी आबादी बेरोज़गार है. पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके युवा भी आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर ही निर्भर हैं.’

बीजू उरांव कहते हैं, ‘अगर कोई नया उद्योग विकसित भी हो जाता है तो क्या उसमें हम सब के लिए पर्याप्त नौकरी होगी?’

अब तक दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में ही विकसित ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास से इन क्षेत्रों के लोगों को किसी भी तरह की मदद मिलती नहीं दिखाई पड़ रही है.

उरांव समुदाय के शिवपाल भगत छत्तीसगढ़ में रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव के सरपंच हैं. इस विषय पर पूछे जाने पर शिवपाल भगत ने बताया कि उनका परिवार पिछले चार पीढ़ियों से इस क्षेत्र में रह रहा है, लेकिन इससे पहले उनमें इस तरह की आर्थिक असुरक्षा का भाव कभी नहीं आया था.

वे कहते हैं, ‘2007 में हमने अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी. उसके बाद से अब तक हम लोग लगभग भटक रहे हैं. हमने सोचा था कि खदानों के आने से हमारे क्षेत्र में विकास आएगा और हमें स्थायी रोज़गार मिलेगा. लेकिन बदले में हम में से कुछ लोगों को ठेकेदारों के यहां मज़दूरी का काम मिला.’

उनके भाई कुलदीप भगत कहते हैं, ‘अपनी ज़मीनें कंपनियों के हाथों बेचते समय हमारे माता-पिता के पास आवश्यक सूचना और जानकारियां नहीं थीं.’

कोयले से जुड़े लोगों के जीवन की दुविधाएं

भारत में कोयला खनन की प्रक्रिया में लगातार तेज़ी देखने को मिली है. साल 2015 से 2022 के बीच भारत में कोयला की 22 नई खदानें खुलने के साथ ही 93 नई कोयला परियोजनाओं को मंज़ूरी दी गई. लेकिन इसके बावजूद भी कोयला क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि न के बराबर हुई है.

इसके अलावा, कोयला खनन की प्रक्रियाओं का मशीनीकरण, निजी ठेकेदारों की बढ़ती भागीदारी और खनन विकास ऑपरेटरों (एमडीओ) का बढ़ता वर्चस्व लोगों और कोयले के बीच के रिश्ते को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है. एक अनुमान के अनुसार, इस क्षेत्र में औपचारिक श्रमिकों की संख्या की तुलना में अनौपचारिक श्रमिकों की संख्या लगभग ढाई गुना अधिक है.

कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि खदानों के ठेकेदार और एमडीओ आमतौर पर दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को काम पर रखना पसंद करते हैं. खदानों में काम करने वाले प्रवासी कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था भी कंपनी के परिसर में ही की जाती है और वे कई महीनों तक बिना छुट्टी लिए लगातार काम करते हैं.

इस मुद्दे पर एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा, ‘कंपनी के लोगों का मानना है कि हम लोग बहुत अधिक छुट्टियां लेते हैं, जिसके कारण उनका काम प्रभावित होता है.’

नौकरी को लेकर असुरक्षा

कोयला क्षेत्र में काम करने वाले ज़्यादातर स्थानीय लोगों के जीवन में कोयला की भूमिका विवादास्पद है. झारखंड के हजारीबाग ज़िले के चुरचू गांव के दो लोगों को इस बात की ख़ुशी है कि वे लोग अपनी पूर्वजों की ज़मीन के बदले मुआवज़े में नौकरी पाने में सफल रहे.

हालांकि, नाम न बताने की शर्त रखते हुए इन दोनों ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें हर दो महीने में अलग-अलग कंपनियों से वेतन पर्ची मिलती है. ऐसी स्थिति में उन्हें कई तरह की चिंताएं सताती हैं जैसे कि वे किन लोगों के लिए काम कर रहे हैं, और ऐसी कौन-सी शर्तें हैं जिनके आधार पर उनकी नौकरी जा सकती है या फिर रोज़गार चले जाने की स्थिति में वे किसी तरह के मुआवजे के हक़दार होंगे भी या नहीं.

सारसमाल में अब एक ठेकेदार के लिए गार्ड की नौकरी करने वाले एक आदमी का आरोप है कि उसे खनन कंपनी में सफाई के काम से हटा दिया गया क्योंकि मेडिकल जांच के बाद उसकी एक आंख कमजोर पाई गई. इसी क्रम में, रायगढ़ के टपरंगा में स्थानीय कर्मचारियों के यूनियन नेता ने बताया कि जल्द ही उनसे उनकी नौकरियां चली जाएंगी और इसके बाद उन्होंने हमें अपनी वह बस्ती दिखाई जहां के घरों में खदानों में होने वाले विस्फोट के कारण या तो दरारें आ गई हैं या फिर वे पूरी तरह से ढह चुके हैं.

भगवान दास* भुजांगकछार के रहने वाले हैं. यह गांवछत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में कोयला की एक खदान के बिल्कुल नज़दीक बसा हुआ है. बातचीत के दौरान भगवान दास बताते हैं कि पहले उनकी खेती वाली ज़मीन खदान में चली गई थी और अब खनन का काम उनके घर के बिल्कुल क़रीब पहुंच चुका है. दिन-रात उन्हें इसी बात की चिंता सताती रहती है कि देर-सवेर उनका घर भी कोयला-खदान की बलि चढ़ जाएगा.

उनके साथ रहने वाला उनका बेटा श्याम दास* उसी खदान वाली कंपनी में एक ठेकेदार के लिए काम करता है और कंपनी जल्दी ही उनकी घर वाली ज़मीन पर भी कब्ज़ा करने वाली है. उसके कई साथी इसी असमंजस में जी रहे हैं.

उनमें से ही एक रनसाही सोनपकट का कहना है कि वे अपना भविष्य दांव पर लगा रहे हैं. वे कहते हैं, ‘हालांकि मेरे पास पहले उतनी ज़मीन नहीं बची है लेकिन फिर भी मैं अपनी बची हुई ज़मीन पर खेती का काम जारी रखना चाहता हूं. संभव है कि मेरे बच्चों को नौकरी मिल जाएगी. लेकिन अगर नहीं मिली तो उस स्थिति में उनके पास अपनी खेती के लिए ज़मीन तो होगी न!’

ज़मीन नहीं तो खाना नहीं

झारखंड की लगभग 42 फ़ीसदी और छत्तीसगढ़ की लगभग 29 फ़ीसदी आबादी कई स्तरों पर ग़रीबी की मार झेल रही है. इन क्षेत्रों में रहने वाले ज़्यादातर लोगों का मानना है कि ज़मीन पर मालिकाना हक़ का सीधा संबंध खाद्य सुरक्षा से है.

झारखंड के ढेंगा में बने एक पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाले राम सेवक बादल कहते हैं, ‘जब हमारे पास अपनी ज़मीन थी तब हमें कभी भी खाने की कमी नहीं हुई. अब हमें सब कुछ ख़रीदना पड़ता है और हमारा वेतन इतना नहीं है कि हम सब कुछ ख़रीद सकें.’

सारसमाल की 60 वर्षीय भगवती भगत महुआ, तेंदू और अन्य वनोपज के सहारे अपना घर चलाती थीं. वे कहती हैं, ‘मैं साल के छह महीने काम करती थी और बाक़ी के छह महीने बिना काम किए भी मेरा आराम से गुजर-बसर हो जाता था. छह महीने की कमाई से मैं साल भर अपने परिवार का पेट भर सकती थी. अब ज़मीनों के खदान में चले जाने के कारण वनोपज में भी कमी आ गई है. इसके अलावा, जंगल में जाने के लिए खदान के टीलों पर चढ़कर जाना पड़ता है जो बहुत ही ख़तरनाक है. पहले हम लोग बहुत ज़्यादा मोरिंगा खाते थे. अब इनके पेड़ कोयला से ढंक गए हैं और इन्हें पकाने से पहले कई बार धोना पड़ता है.’

कोयला-संबंधित विस्थापन के कारण भगवती भगत जैसी स्थानीय महिलाओं का जीवन बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ है जिनके लिए खेतिहर मज़दूरी करके या वनोपज के सहारे अपनी आजीविका चलाना ज्यादा बेहतर था.

महुआटांड की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जहां अपने जीवनयापन के लिए अन्य क्षेत्रों और राज्यों में पलायन कर चुका है, वहीं वहां बच गए लोगों के लिए अनौपचारिक कोयला खनन ही एकमात्र विकल्प रह गया है. महिलाओं और किशोर लड़के-लड़कियों की एक लंबी क़तार नीचे खदान के अंदर अंधेरे में जाती हुई दिखाई पड़ती है. इनमें से कुछ के हाथ में मोबाइल फ़ोन होता है जिसका इस्तेमाल वे टॉर्च के रूप में करते हैं.

अमूमन पतले और छोटे कद वाले लोगों के लिए इन भूमिगत खदानों में प्रवेश कर पाना अपेक्षाकृत आसान होता है. हालांकि कंपनी ने इस अवैध खनन को रोकने के लिए खदानों के चारों ओर गहरे गड्ढे खोद दिए हैं लेकिन भूख और ज़रूरत के मारे लोगों ने इसमें से भी अपने लिए रास्ता ढूंढ़ निकाला है.

इस बारे में पूछे जाने पर राम मांझी* कहते हैं, ‘अगर मैं कोयला इकट्ठा करके इसे नहीं बेचूंगा, तो मेरे घर में रात का चूल्हा नहीं जल पाएगा. अगर इसी कोयला को कंपनी वाले ट्रक में लादकर ले जाते हैं तो इसे विकास कहा जाता है. लेकिन जब हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने और पेट भरने के लिए साइकिल और बाइक पर कोयला ढोते हैं तो उसे चोरी का नाम दे दिया जाता है.’

मांझी भी खनन के कारण विस्थापित हुए ऐसे हज़ारों-लाखों लोगों में से एक हैं जिन्हें न तो मुआवज़ा मिला और न ही नौकरी. मांझी आगे बताते हैं, ‘कोयला खनन कंपनी ने हमसे हमारा घर खाली करवा दिया. अपने घर से निकलकर मैंने पास के ही एक जंगल में अपने रहने की व्यवस्था की. लेकिन अब वन विभाग के अधिकारियों ने मुझ पर वन भूमि पर अतिक्रमण का मामला दर्ज करवा दिया है.’

ज़मीन नहीं तो जीवन नहीं

नई खनन परियोजनाओं द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले से जूझ रहे ग्रामीण समुदायों ने ‘कोयला’ गांवों के इतिहास से सीखा है. झारखंड के जुगरा और छत्तीसगढ़ के पेल्मा जैसे गांवों में स्थानीय लोग लगातार विस्थापन का विरोध कर रहे हैं.

इस बारे में झारखंड के विष्णुगढ़ के एकता परिषद के कार्यकर्ता चुन्नूलाल सोरेन का कहना है कि स्थानीय लोगों को इस बात की जानकारी है कि कोयला उद्योग का जीवन बहुत लंबा नहीं है और संभव है कि उन्हें मुफ़्त में अपनी ज़मीन खोनी पड़े.

सुधलाल साव जुगरा में गन्ना किसान हैं और वे अपने दो बेटों, बहू और पोते-पोतियों के साथ मिलकर गुड़ बनाने का काम करते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं पैसों के लिए अपनी इस पैतृक संपत्ति को किसी को नहीं दे सकता हूं. इससे हम मालिक से नौकर में बदल जाएंगे. आप देख सकते हैं मेरे आसपास क्या हो रहा है. क्या वे पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के प्रत्येक सदस्य को नौकरी देंगे?’

इसी गांव के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश साव मानते हैं कि गांव की उपजाऊ ज़मीन पर कोयला खनन करना मूर्खता है. वे कहते हैं, ‘बरकागांव (जहां वे रहते हैं) को इस क्षेत्र में चावल का कटोरा कहा जाता है. इतनी उपजाऊ ज़मीन का उपयोग कोयला खनन के लिए क्यों किया जा रहा है?’

जुगरा के एक सरकारी स्कूल के संविदा शिक्षा रामदुलार साव बताते हैं, ‘अगर उन्हें तीन या चार दशकों में खदान बंद करनी है तो वे अब जमीन क्यों अधिग्रहित कर रहे हैं. इतिहास ने हमें सिखाया है कि तुरंत मिलने वाले फ़ायदों के लिए हमें अपनी ज़मीनें किसी को नहीं दे देनी चाहिए.’

साल 2018 में जुगरा के निवासियों ने ज़िला प्रशासन को शिकायत की थी कि उनसे जबरदस्ती जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है.

छत्तीसगढ़ में स्थानीय लोग 2011 से कोयला सत्याग्रह के माध्यम से औद्योगिक खनन का विरोध कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव के लगभग सभी निवासी इस बात से सहमत हैं कि उनके गांव में कोयला खनन शुरू हो जाने से उनका भविष्य बेहतर नहीं बल्कि स्थिति ज्यादा बदतर हो जाएगी.

पेल्मा की ही निवासी राजबाला* का मानना है कि अगर उसकी ज़मीन ले ली गई तो यह उसके लिए विनाशकारी होगा. वे कहती हैं, ‘यह एक बहुत बड़ा नुक़सान होगा. मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे यहीं रहकर खेती-किसानी करें.’

शिवपाल भगत बताते हैं कि भावी उद्यमों में मिलने वाली नौकरियां उनके और उनके लोगों की जीविका को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगी, इसलिए वे अपने इलाक़े में होने वाले खनन से प्रभावित अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका कहना है, ‘हमारे अस्तित्व के बचे रहने के लिए खेती की ज़मीन का होना बहुत ज़रूरी है.’

भगत उन लोगों में से हैं, जिन्होंने अन्य कारणों के अलावा खनन द्वारा नष्ट की गई ऊपरी मिट्टी की भरपाई करने में विफल रहने के लिए एक खनन कंपनी से पर्यावरणीय क्षति की मांग करते हुए याचिका दायर की थी. उनकी मांग है कि खनन करने वाली कंपनियों को क़ानून का पालन करना चाहिए. खनन पूरा हो जाने के बाद कंपनियों को गड्ढों में मिट्टी को भरकर ज़मीन समतल करने के बाद उसके ऊपरी परत के संरक्षण के उपाय करने चाहिए ताकि स्थानीय समुदाय दोबारा इन ज़मीनों का इस्तेमाल कर सकें.

टपरंगा के यूनियन नेता का कहना है, ‘बंजर ज़मीन भी हमारे लिए उपयोगी हो सकती है. हम लोग इन ज़मीनों का उपयोग आजीविका के अन्य विकल्पों जैसे कि मछली पालन, पशुपालन आदि के लिए कर सकते हैं.’

हालांकि, एक पहलू यह भी है कि भारत में समुदायों को उनकी ज़मीन वापस देने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने वाले क़ानूनों की कमी है.

एकता परिषद के राष्ट्रीय संयोजक रमेश शर्मा कहते हैं, ‘एक बार जब सरकार खनन के लिए भूमि अधिग्रहण कर लेती है तो बाद में वह इसका इस्तेमाल अन्य परियोजनाओं के लिए कर सकती है या फिर किसी निजी कंपनी को पट्टे पर दे सकती है. यहां तक कि ऊर्जा के वैकल्पिक और नवीकरणीय स्त्रोतों जैसे कि सौर या पवन ऊर्जा के संयंत्रों के लिए भी निजी कंपनियों को अगर ज़मीन की ज़रूरत है तो उन्हें और बड़ी मात्रा में ज़मीनें मिलेंगी. हालांकि ये ज़मीनें इसके मूल निवासियों और उन किसानों को वापस लौटा दी जानी चाहिए जो इसके असली मालिक हैं. कई समुदाय मिलकर भी इन ज़मीनों पर अपना मालिकाना हक़ बनाए रख सकते हैं.’

देश के लगभग 120 जिलों के लोगों का जीवन यहां पाए जाने वाले जीवाश्म-ईंधन या इससे जुड़े उद्योगों पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है. न्यायसंगत परिवर्तन की दिशा में किसी भी तरह की रणनीति बनाने से पहले यह आवश्यक है कि भारत इन सबसे अधिक प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों की ज़रूरतों को केंद्र में रखे और तभी आगे बढ़े.

मौजूदा हालात को देखते हुए इस बात की संभावना से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि खनन वाले क्षेत्रों के स्थानीय लोगों की ज़रूरतें संभवतः बहुत गहराई से उनकी ज़मीनों से जुड़ी होती हैं.

*परिवर्तित नाम.

(यह लेख पूर्व में आईडीआर की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है. अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)