ग्राउंड रिपोर्ट: झारखंड के दूरदराज़ के आदिवासी इलाकों में स्थित आंगनबाड़ी केंद्रों को कई महीनों से नहीं मिल रहा है अनाज. लिहाज़ा लाखों बच्चों को दिन का गर्म खाना मिलना बंद हो गया.
वे आदिवासी गांवों के मासूम बच्चे हैं. सरकार किसकी और योजनाएं कैसी, उन्हें नहीं पता. वाकिफ नहीं कि कुपोषण उनकी ज़िंदगी के अहम हिस्से हैं.
सर्द हवाएं परेशान करती हैं, पर गरीबी में गर्म कपड़े मयस्सर नहीं. अब ये भूख सताती है, तो सब्र किया नहीं जाता. आंखें बार-बार लकड़ी के बूझे चूल्हे की ओर ताकती हैं.
उन्हें देख दीदियों के ज़ेहन में सवाल आता है आज भी खाना नहीं पका, अब इन मासूमों का मन कैसे बहलाएं. तब वे गीत गाकर बच्चों को फुसलाने की कोशिश करती हैं.
झारखंड के दूरदराज़ के इलाकों के आंगनबाड़ी केंद्रों में जाकर अगर कुछ वक़्त गुज़ारें तो यही तस्वीर सामने होगी. दरअसल बड़ी तादाद में राज्य के आंगनबाड़ी केंद्रों में मासूमों को दोपहर का गर्म भोजन मिलना बंद है. इसका जबरदस्त असर बच्चों की उपिस्थिति पर भी पड़ने लगा है.
केंद्र सरकार से चावल का आवंटन समय पर नहीं होने की वजह से यह विकट स्थिति बनी है.
आंगनबाड़ी संभालने का ज़िम्मा सेविका और सहायिका पर होता है. गांवों की इन स्थानीय महिलाओं को बच्चे ‘दीदी’ के नाम से जानते-पुकारते हैं. झारखंड में आंगनबाड़ी केंद्रों की संख्या 38 हज़ार 432 है. इनसे जुड़े बच्चों की संख्या 9 लाख 27 हजार 533 है.
गांवों में लोग बताते हैं कि कथित तौर पर भूख से होने वाली मौतों और कुपोषण को लेकर सुर्ख़ियों में रहे झारखंड के सामने फिलहाल यह बड़ा संकट है.
कार्यक्रम और मकसद
समेकित बाल विकास परियोजना कार्यक्रम के तहत संचालित इन आंगनबाड़ी केंद्रों की भूमिका छोटे बच्चे, किशोरियों, गर्भवती के अलावा धातृ (जिनके छह महीने तक के शिशु हैं) महिलाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
इस कार्यक्रम का मकसद किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और बच्चों के बीच कुपोषण तथा मृत्यु दर में कमी लाना, टीकाकरण की सुविधा उपलब्ध कराना, स्वास्थ्य व पोषण की जानकारी देना है.
गर्भवती और धातृ महिलाओं को रेडी टू ईट फूड (फोर्टिफाइड न्यूट्रो पंजरी जिसे उपमा कहा जाता है) उपलब्ध कराई जाती है. फिलहाल आंगनबाड़ी केंद्रों में रेडी टू ईट फूड उपलब्ध हैं.
तीन से छह साल के बच्चों को सुबह के नाश्ते में दलिया, सत्तू का घोल और बारह बजे गर्म खाना दाल-भात सब्जी या खिचड़ी देने का प्रावधान है.
जानकारी मिली कि कई जगहों पर सुबह में अंडे भी दिए जा रहे थे, लेकिन अब मासूमों के लिए अंडे भी सपने हो गए.
हालांकि पहली नज़र में आंगनबाड़ी केंद्रों की दीवारों पर लिखे स्लोगन, भोजन के चार्ट (मेनू) देखकर एहसास हो सकता है कि वाकई यह कार्यक्रम झारखंड में महिला और बाल कल्याण के क्षेत्र में परिवर्तन की कहानी लिखता रहा है, लेकिन तह में जाने की कोशिशों के साथ ही सिस्टम पर सवाल खड़े होते दिख जाएंगे.
राज्य के खूंटी ज़िले का आदिवासी गांव चलागी
सुबह के 9:30 बज रहे हैं. द वायर के लिए हम खूंटी ज़िले के सुदूर आदिवासी गांव चलागी पहुंचे हैं. यहां की आंगनबाड़ी सेविका जयंती सांगा और सहायिका हाना विश्वासी लुगून स्थानीय भाषा में गीत के ज़रिये गंवई बच्चों को अक्षर ज्ञान कराने में जुटी थीं.
इस गीत के बोल थेः छोटे-छोटे छऊआ मन आंगनबाड़ी जांय ना, एक दो, तीन-चार पांच सीखे नां… ( छोटे बच्चे गिनती सीखने आंगनबाड़ी केंद्र जाते हैं)
जयंती बताती हैं कि एक महीने हो गए चावल ख़त्म हुए. इधर- उधर से इंतज़ाम कर कुछ दिनों तक काम चलाती रही. कब चावल मिलेगा इसकी जानकारी नहीं.
अब ये बच्चे अपने गांव के हैं, तो इन्हें संभालने की ज़िम्मेदारी निभानी भी पड़ेगी. आख़िर बढ़कर इन्हें स्कूल भी जाना है.
वो बताने लगी कि कई दफा सरकारी इंतज़ाम देख बेहद दुखी हो जाती हूं. तब सहायिका विश्वासी और उनके पति मुकुद सांगा जो ग्राम प्रधान हैं हिम्मत दिलाते हैं कि बच्चों की ख़ातिर इसी व्यवस्था में चलना है.
छोटी सी बच्ची सकुरमुनी संकुचाती हुई कहती है कि सरकार से पैसा नहीं आया है, तो दीदी भात और बेस तीयन (भात और बढ़िया तरकारी) कैसे बनाएगी.
दीदी गाना नहीं अब खाना दो…
इसी गांव में एक और आंगनबाड़ी केंद्र की सेविका करुणा देवी ने ग्रेजुएट तक की पढ़ाई की है. वे भी बच्चों को खेल-खेल में अक्षर ज्ञान की कोशिशें कर रही हैं.
बच्चों की संख्या कम होने के सवाल पर करुणा बताती हैं कि अक्टूबर महीने की बारह तारीख़ से चावल ख़त्म है. इस हालात से बच्चों को घरों से लाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है.
कई दिनों तक ख़ुद इंतज़ाम कर खिचड़ी पकाई, तो गांव के ही कुछ लोग कहने लगे कि मोटा चावल खिला रही है, तब उन्होंने घर से चावल ले जाना ही बंद कर दिया.
करुणा कहती हैं कि अक्सर बच्चे पूछते हैं कि दीदी गाना ही सुनाओगी या खाना भी खिलाओगी, तो उनके चेहरे देख रूआंसी हो जाती हूं.
ऐसे दर्जनों आंगनबाड़ी केंद्रों में भोजन के बिना गंवई बच्चों का चेहरा उतरा नज़र आया. उनके मासूम सवालों का जवाब देना किसी के लिए आसान भी नहीं होता.
अलबत्ता उस वक़्त सिमडेगा की संतोषी का चेहरा ज़रूर सामने था, जिसने हाल ही में भात-भात कहते दम तोड़ दिया था.
कैसे मिले 51 रुपये किलो सत्तू!
इसी इलाके कालामाटी आंगनबाड़ी की सेविका सरोज देवी बताती हैं कि दूसरे सेंटर की झुबली दीदी से उन्होंने पचास किलो चावल लिया था. उसी से काम चला रही हूं. अब बहुत थोड़ा सा बचा है. चिंता बढ़ती जा रही है.
इस सेंटर के बच्चे सुबह की धूप में उछल-कूद कर मस्ती करते नज़र आए. सहायिका दीदी बताती हैं कि सूरज जब माथे पर चढ़ेगा, तो वे खाना मांगेंगे और इसका पक्का इंतज़ाम होता नहीं.
तब अगले सुबह क्या होगा?
हम कच्ची और ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर झुबली लिंडा के सेंटर पर पहुंचे. वे बताने लगीं कि मुश्किलें कोई एक हो तो बता दूं. बच्चों के निवाले के इंतज़ाम में कई दफा उधार लेना पड़ता है, तो राशन दुकानदार भी जवाब दे जाता है. तब लगता है कि अगले सुबह क्या होगा.
वे बताती हैं कि बच्चों को सुबह में मीठी दलिया या सत्तू का घोल दिया जाना है. अब बाज़ार में 51 रुपये किलो सत्तू कहां मिलता है, जबकि सरकारी रेट वही तय किया गया है.
कमोबेश यही हाल दलिया का है. प्रत्येक बच्चे की सब्जी के लिए तीस पैसे दिए जाते हैं. अब बीस बच्चों की सब्जी छह रुपये में कैसे बने. गनीमत वे लोग अपने स्तर से साग जुगाड़ लेती हैं. रोज़-रोज़ खिचड़ी बच्चे खाना भी नहीं चाहते.
झुबली को इसका भी गम है कि ख़ुद उन लोगों को कभी समय पर मानदेय नहीं मिलता. जबकि आंगनबाड़ी चलाने के अलावा कई किस्म के सरकारी काम उन लोगों के ज़िम्मे है.
इसी इलाके में नामसीली गांव की दुलू मुंडा बताती हैं कि कई महीनों से बच्चों को खाना नहीं मिल रहा. रास्ते में हमें खेतों से लौट रहे रतिया मुंडा और जीवा मुंडा मिले.
वे बताने लगे कि खूंटी शहर जाने पर विकास और कल्याण के दावे करते मुख्यमंत्री, मंत्री के बड़े-बड़े होर्डिंग्स, पोस्टर चप्पे-चप्पे पर दिखते हैं, लेकिन गांवों में उन दावों का सच कोई और कभी भी आकर जान-देख सकता है.
रतिया दावे के साथ कहते हैं कि दूरदराज़ के आंगनबाड़ी केंद्रों, स्वास्थ्य केंद्रों और सरकारी स्कूलों में कभी कोई पर्यवेक्षक, पर्यवेक्षिका या अधिकारी झांकने तक नहीं आते. जबकि सरकारी कागज़ों में विकास के आंकड़े ज़रूर गढ़ दिए जाते होंगे.
जलावन, नमक, मसाले के 24 पैसे
अगले दिन हम रांची के सुदूर ढेलुआखूंटा, बोगंईबेड़ा, टुंगरीटोली, महलीहुहू गांव पहुंचे थे. टुंगरीटोली आंगनबाड़ी केंद्र की सेविका बसंती देवी मैट्रिक पास हैं. बच्चों की उपस्थिति कम होने की वजह पूछने पर वे बताती हैं धानकटनी चल रहा है. कई घरों के लोग बच्चों को साथ लेकर खेत-खलिहान चले जा रहे हैं.
बातों के बीच बसंती चूल्हे में आंच फूंकने चली जाती हैं, जिस पर खिचड़ी की हांडी चढ़ी है. रसोई घर से ही वे बताने लगी कि पहले से बचा चावल काम दे रहा है, वरना कई महीनों से चावल नहीं आया है.
बसंती के मुताबिक एक बच्चे पर जलावन, नमक और हल्दी के नाम पर 24 पैसे मिलते हैं. अब आप ही बताइए कैसे संभालना पड़ता है. सुबह घर से निकलने पर वे लोग रास्ते या झाड़ियों से सूखी लकड़ियां चुन कर लाती हैं, तब चूल्हें जलते हैं.
ढेलुआखूंटी की सेविका अनिता कच्छप बताने लगीं कि धानकटनी की वजह से बच्चों की उपस्थिति कम होती रही, वरना भोजन का संकट और गहराता.
हमने दौरे के क्रम में ये भी देखा कि कई आंगनबाड़ी केंद्रों के अपने भवन नहीं है, तो कई जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं. कहां पानी का टोटा है, तो कही खिड़की-दरवाज़े नहीं हैं. पढ़ाई और चिकित्सा के किट भी सालों पुराने हो गए हैं. दरियां फटी पड़ी हैं.
भोजन प्राथमिकता में रहे तब तो!
भोजन के अधिकार पर सालों से काम कर रहे जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता बलराम कहते हैं कि हाल ही में आदिवासी बहुल पाकुड़ ज़िले के दौरे के क्रम में ये बातें सामने आई कि आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों को भोजन नहीं मिल रहा. हकीकत जान चिंता बढ़ गई कि जिस राज्य में कुपोषण का ग्राफ बढ़ता जा रहा है, भोजन बड़ा सवाल है वहां इन विषयों पर क्यों लापवरवाही और संवेदनहीनता बरती जाती है. इन मामलों को बाल संरक्षण आयोग को भी संज्ञान में लेना चाहिए.
जबकि बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष आरती कुजूर कहती हैं कि कुछ दिनों पहले ही उन्होंने महिला बाल कल्याण विभाग के आला अधिकारी से इस मुद्दे पर बात कर ठोस कदम उठाने को कहा है. कई सेविकाओं ने उनसे खाने के सामान के दर में संशोधन पर भी ज़ोर दिया है.
वहीं राज्य की महिला बाल कल्याण (समाज कल्याण) मंत्री लुइस मरांडी का कहना है कि हफ्ते भर पहले उन्होंने विभागीय अधिकारियों के साथ बैठक कर उपायुक्तों, आपूर्ति अधिकारियों और समाज कल्याण अधिकारियों को समन्वय बनाकर इस समस्या का समाधान निकालने को कहा था.
लेकिन कई महीने से बच्चे इस संकट का सामना कर रहे हैं, तब चावल का आवंटन किन परिस्थितियों में रुका रहा, इस सवाल पर पर उनका कहना था कि अब प्रक्रिया में कहां क्या अड़चनें थीं, इसे दूर करने को कहा गया है. केंद्र ने क्यों समय पर अनाज नहीं दिया, पता करूंगी.
ये हालात उस राज्य के हैं
- जहां 48.7 फीसदी बच्चे कुपोषण के जद में हैं.
- चार लाख बच्चे अति कुपोषित व उनकी जान ख़तरे में.
- पांच साल के 45 फीसदी बच्चे नाटे हैं.
- 6-23 महीने के 67 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त भोजन मिलता है.
इस हालात पर पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन तंज कसते हुए कहते हैं, ‘यह उस राज्य की भी तस्वीर है, जहां भाजपा की सरकार गरीब कल्याण वर्ष मना रही है. वे सरकारी दावे पर वे इत्तेफाक भी नहीं रखते.’
सोरेन के मुताबिक, ‘किसान, गरीब, मज़दूर, बच्चों को भोजन मिले, इसकी चिंता वे क्यों करें. ख़ुद इस विभाग की मंत्री के गृह क्षेत्र में सैकड़ों आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों को कई महीने से भोजन नहीं मिल रहा.’
कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय का कहना है, ‘पूंजी निवेशकों को रिझाने तथा शिलान्यास-उदघाटन समारोहों पर करोड़ों ख़र्च करने के साथ विज्ञापनों के ज़रिये उपलब्धियां गिनाना ही सरकार का प्रमुख एजेंडा है. बच्चों की थाली का निवाला कौन निगल गया, इसकी ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए.’
जल्दी ठीक होंगी परिस्थितियां
इस बीच समाज कल्याण विभाग के निदेशक राजीव रंजन ने जानकारी दी है कि चावल के आवंटन के लिए पिछले दिनों कई दफा केंद्र सरकार को पत्र लिखा गया.
उनका कहना है, ‘अक्टूबर से दिसंबर के लिए 2448 मिट्रिक टन चावल आवंटन की स्वीकृति मिल गई है. इसके आधार पर तीस नवंबर को उन्होंने झारखंड राज्य खाद्य निगम के महाप्रबंधक को आवश्यक कार्रवाई के लिए पत्र लिखा है. साथ ही सभी ज़िलों के समाज कल्याण पदाधिकारियों को चावल मुहैया कराए जाने के लिए तत्काल कदम उठाने को कहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुत जल्दी समस्या दूर हो जाएगी.’
अनाज पहुंचने में अब भी अब भी वक़्त लगेगा
जबकि भोजन के अधिकार से जुड़े कई प्रतिनिधियों और गांव के प्रधान, पंचायत प्रतिनिधि का कहना है कि इस प्रक्रिया के पूरी होने से लेकर दूरदराज के गांव-टोले तक के आंगनबाड़ी में अनाज पहुंचने में अब भी पखवाड़े भर का समय लग सकता है. जबकि पहले ही कई दिनों तक पका और गर्म खाना नहीं मिलने से आदिवासी और दलित इलाकों में इस विकट स्थिति का ख़ामियाज़ा सबसे अधिक मज़दूर और गरीब परिवार के बच्चे भुगत रहे हैं, और यह परिस्थतियां झारखंड जैसे राज्य में कतई पैदा नहीं होनी चाहिए थी. अलबत्ता समय पर अनाज आपूर्ति का विकल्प भी नहीं निकाला गया.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं.)